आध्यात्मिक जीवन में जब हम प्रवेश करते हैं तब यह निश्चय ही प्रतीत होता है कि भगवान की प्राप्ति के लिए एक मात्र शरणागति का मार्ग सरल एवं सर्वश्रेष्ठ है। श्रीमद् भगवद्गीता में भगवान अर्जुन को समस्त साधना का उपदेश करने के अनंतर अंत में शरणागति की ही आज्ञा करते हैं। सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षशिष्यामि मा शुचः।। सभी धर्मों का आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी शरण में आ जा। मैं तुझे सभी पापों से मुक्त कर दूंगा, चिंता मत कर। तात्पर्य यह कि भक्त के लिए भगवान की शरणागति का जितना महत्व है उतना धर्मों का नहीं है। सभी धर्मों का त्याग अर्थात समस्त कर्म फलों का त्याग वही कर सकता है जो भगवान के शरणापन्न हो जाए। श्रीमद् भगवद्गीता में एक रहस्यपूर्ण श्लोक है तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत। तत्प्रसादात्परां शांति स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्।। हे भरतवंसोद्भव अर्जुन! तू सर्वभाव से उस ईश्वर की शरण में चला जा।
उसकी कृपा से तू परम शांति (संसार से सर्वथा उपरति) और परमपद को प्राप्त हो जाएगा। कितनी महत्वपूर्ण और अद्भुत बात भगवान कह रहे हैं- शरणागति से अविनाशी परमपद की प्राप्ति। जीव ईश्वर का अंश है- ‘ईश्वर अंश जीव अविनासी।’ इसलिए भगवान ईश्वर की ही शरण में जाने की आज्ञा दे रहे हैं। ईश्वर की शरणागति से अहंकार नष्ट हो जाता है। अहंकार नष्ट हो जाने से एक मात्र भगवान पर ही भरोसा हो जाता है। विद्वानों (ज्ञानियों) की शरणागति है भगवान के साथ अपने को अभिन्न देखना, भगवान की वस्तु उन्हीं को सौंप देना तथा सारे संसार को अपने से भिन्न मरुमरीचिका के समान असत् देखना। जब तक जीव ईश्वर के शरणागत नहीं होता तब तक वह प्रकृति के वश में रहता है। जैसे ही वह ईश्वर शरणागति को प्राप्त होता है, प्रकृति भी पूर्णतया उसके अनुकूल हो जाती है। शरणागत को तो बस एक ही अभिमान रह जाता है कि मैं भगवान का हूं और भगवान मेरे हंै। त्वमेव माता च पिता त्वमेव/ त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव। त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव/ त्वमेव सर्वं मम देव देव।। जब यह भावना परिपुष्ट हो जाती है तभी समस्त परतंत्रता हो जाती है।
धन, पुत्र, राज्य, पद, प्रतिष्ठा, योग्यता सामाजिक बल, अस्त्र शस्त्रादि सभी सीमित हैं, परंतु भगवदाश्रय के समक्ष किसी आश्रया या बल की आवश्यकता नहीं रह जाती। श्री दुर्गासप्तशती में एक चमत्कारिक मंत्र है: शरणागत दीनात्र्त परित्राण परायणे। सर्वस्यात्र्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तुते।। शरण में आए हुए दीनों एवं पीड़ितों की रक्षा में संलग्न रहने वाली सबकी पीड़ा दूर करने वाली नारायणी देवि! तुम्हें नमस्कार है। शरणागत भक्त के द्वारा इस मंत्र के जप से भगवती जगदंबा का परमाश्रय प्राप्त हो जाता है। रामरक्षास्तोत्र में अद्भुत मंत्र है। माता रामो मत्पिता रामचंद्र: स्वामी रामो मत्सखा रामचंद्रः। सर्वस्व मे रामचंद्रो दयालु- र्नान्यं जाने नैव जाने न जाने।। राम मेरी माता हैं, राम मेरे पिता हैं, राम स्वामी हैं और राम ही मेरे सखा हंै। दयामय रामचंद्र ही मेरे सर्वस्व हैं। उनके सिवा और किसी को भी मैं नहीं जानता-बिल्कुल नहीं जानता।। जब यह अवस्था प्राप्त होती है तभी सच्ची शरणागति प्राप्त होती है। जहां इष्ट सर्वस्व हुआ, हम शरणागत हुए। श्री गोस्वामी तुलसीदास जी के भयंकर पीड़ा उपस्थित होने पर श्री हनुमत शरणागति में जाने के प्रसंग का हनुमानवाहक में एक पद है। सीतापति साहेब सहाय हनुमान नित हित उपदेश को महेस मानो गुरुकै। मानस वचन काय सरन तिहारे पांय, तुम्हरे भरोसे सुर मैं न जाने सुर के।। व्याधि भूतजनित उपाधि काछु खल की, समाधि कीजै तुलसी को जानि जन फुरकै। कपिनाथ रघुनाथ भोलानाथ भूतनाथ रोगसिंधु क्यों न डारियत गाय खुरकै।।
हे हनुमानजी! स्वामी सीतानाथ जी आपके नित्य ही सहायक हंै। और हितोपदेश के लिए महेश मानो गुरु ही हैं। मेरे लिए तो तन-मन-वचन से आपके चरणों की ही शरण है। आपके भरोसे मैंने देवताआंे को देवता नहीं माना। रोग व प्रेत द्वारा उत्पन्न अथवा किसी दुष्ट के उपद्रव से हुई पीड़ा को दूर करके तुलसी को अपना सच्चा सेवक जानकर इसकी शांति कीजिए। हे कपिनाथ, रघुनाथ, भोलानाथ और भूतनाथ! रोग रूपी महासागर को गाय के खुर के समान क्यों नहीं कर डालते? गोस्वामीजी की शरणागति वास्तव में ही स्तवनीय है। शरणागति में अनन्य शरणागति का बड़ा महत्व है। गोस्वामीजी सभी देवी देवताओं से प्रार्थना करते हुए अपने इष्ट की ही कृपा का वरदान मांगते हैं। श्रीगणेशजी से वंदना करते हुए ‘‘मंागत तुलसीदास कर जोरे। वहि राम सिय मानस मोरे।। अपने प्रभु सीतारामजी को अपने मन में बसने की ही प्रार्थना कर रहे हैं। जब भक्त शरणागत हो जाता है, तो उसे अपना कल्याण स्वयं नहीं करना पड़ता। कारण यह है कि वह अपने बल, बुद्धि आदि का किंचिन्मात्र भी आश्रय न रखकर केवल भगवान का ही आश्रय प्राप्त कर लेता है। तब निश्चित रूप से भगवत्कृपा ही कल्याण कर देती है।
परम पूज्यपाद श्री उड़िया बाबा जी महाराज के पास एक व्यक्ति दर्शनार्थ गया और कहा कि बाबा हम बड़े दुखी हंै। बाबा बोले, बेटा हम बड़े सुखी हंै। उस व्यक्ति ने कहा कि बाबा हमें आपके सुख से क्या मतलब। बाबा बोले बेटा तेरे दुख से ही हमें क्या मतलब है। सहज वार्तालाप के क्रम में उस व्यक्ति ने कहा बाबा आपने बच्चों की सी बात कर दी। तो बाबा बोले बेटा तू बड़ों की सी कर ले। तब उस व्यक्ति ने अनायास कहा बाबा मैं तो आपकी शरण में आया था। तब बाबा बोले बेटा हमारी शरण कौन आता है। सारा संसार धन, पुत्र, स्त्री, पद, प्रतिष्ठा के लिए भटक रहा है। अरे बेटा जिस क्षण तू शरणागत होगा उसी क्षण तू दुख से मुक्त हो जाएगा। दर्शनार्थी अचंभित रह गया। वास्तव में शरणागत होते ही दुख मिट जाता है। द्रौपदी जिस क्षण तक अपने बल अथवा अन्यों के आश्रित रही, भगवान नहीं आए। जैसे ही वह शरणागत हुई, भगवान ने वस्त्रावतार लेकर उसकी मान मर्यादा की रक्षा कर दी।
शरणागत भक्त को तो भजन भी नहीं करना पड़ता। उसका भजन तो स्वतः स्वाभाविक होता है। वह तो हर चीज में ईश्वर का ही विधान देखता है। ईश्वर की इच्छा ही उसकी इच्छा हो जाती है। ईश्वर की हर मर्जी में वह अपनी मर्जी मिला देता है। श्रीमद्भागवत में शरणागति रहस्य में एक विशिष्ट तथ्य यह आता है कि जो प्रेमी भक्त भगवान के चरणों का अनन्य भाव से भजन करता है, उसके द्वारा यदि अकस्मात कोई पाप कर्म हो भी जाए तो उसके हृदय में विराजमान परम पुरुष भगवान श्री हरि उसे सर्वथा नष्ट कर देते हैं। यदि हम किंचित भी भक्तिमार्ग के पथिक हैं तो शरणागति के लिए प्रयत्न से, कृपा से जैसे भी हो सत्संग से, किसी भी साधन से उधर जाएंगे तो प्रभु की प्रत्यक्ष कृपा का आभास होगा। भगवान गीता में शरणागति की अत्यंत दुर्लभ स्थिति के विषय में कह रहे हैं: बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते। वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः।। बहुत जन्मों के अंतिम जन्म में अर्थात मनुष्य जन्म में सब कुछ परमात्मा ही हैं। इस प्रकार जो ज्ञानवान मेरे शरण होता है वह महात्मा अत्यंत दुर्लभ है।