फ्यूचर पाॅइंट एवं अ. भा. ज्योतिष संस्था संघ के अध्यक्ष श्री अरुण बंसल के पूज्यपाद श्री चाचाजी प्यारेलाल बंसल का स्वर्गवास 93 वर्ष की दीर्घायु में 26 अगस्त 2011 को हो गया। चाचाजी बंसल परिवार के परम श्रद्धेय, पूज्यनीय तथा सर्वस्व गुरुरूप ही थे। कहना न होगा कि हमारे चाचाजी विलक्षण जीवन्मुक्त महापुरूष थे। सन् 1990 से ही मुझे उनके दर्शन एवं सत्संग का अवसर मिलता रहा।
2003 से लगातार उनके ब्रह्मलीन होने के कुछ समय पूर्व तक प्रायः नित्य निरंतर उनका मूर्तिमान सत्संग मेरे साथ होता रहा। वे ज्ञानमार्गी थे। ब्रह्मानुभूति उनको हो चुकी थी। प्रायः वे उदघोष भी करते कि मैं ब्रह्म हूं। एक बार उन्होंने मुझे बतलाया था कि जब मुझे भगवान् का प्रकाश हुआ था तो मैंने एक ही इच्छा प्रकट की थी कि मैं कुछ दिन जीवन रखकर इस ज्ञान का लाभ जन-जन को दूं।
वह इच्छा स्वतः स्वाभाविक ईश्वर की कृपा से पूर्ण हुयी। इतने लंबे जीवन में प्रायः वे पूर्ण स्वस्थ ही रहे। अंतिम समय में भी उनकी गजब की आत्मनिष्ठा देखने का अवसर मिला और उनको कोई विशेष शारीरिक कष्ट की अनुभूति नहीं हुई। चाचाजी सतत ब्रह्मचर्चा -सत्संग में निरत रहते थे। वे स्वयं तो आत्मनिष्ठ थे ही दूसरों के लिये भी आत्मनिष्ठा दृढ़ करने का प्रयत्न करते रहते थे। कई बार जब उनसे मेरा मिलन होता तो वेदांत के गूढ़ सिद्धांतों पर विचार हुआ करता था।
त्याग-वैराग्य पर उनका बहुत जोर था। वास्तव में स्वयं तो वे वैराग्य की जीवंत मूर्ति ही थे। चाचाजी मूल निवासी अलीगढ़ जनपद के जमों ग्राम के थे। उनके द्वारा गांव का विकास भी बहुत हुआ। उनके सत्संकल्प से गांव में भव्य मंदिर का निर्माण भी हुआ। एक विद्यालय भी उनकी ही प्रेरणा एवं उनके पारिवारिक सहयोग से चल रहा है जिसमें हजारेां विद्यार्थी निःशुल्क विद्या ग्रहण कर रहे हैं। चाचाजी के गांव के अनेक लोगों तथा परिवारजनों को भी उनकी आध्यात्मिक शक्ति का चमत्कार अनुभव हुआ।
कई बार जब बंसल परिवार पर अनायास कष्ट आया तो उनकी शक्ति का अनुभव हुआ और परिवारीजन कष्टों से मुक्त भी हो गये। पर मेरी दृष्टि में तो उनका सबसे बड़ा चमत्कार यह था कि वे सभी से प्रेम करते थे। सभी को अपना मानते थे। सबकी यथेष्ट सहायता करने को तत्पर रहते थे। अपने शरीर के वस्त्र से लेकर कोई भी वस्तु किसी को भी उठाकर दे सकते थे। किसी भी वस्तु में उनकी स्पृहा नहीं थी। सादगी उनके जीवन में हर पल प्रकट होती थी।
चाचाजी निरंतर स्वाध्याय रत रहते थे। प्रायः नित्य ही वे मुझसे एक नवीन पुस्तक ले जाते। गीताजी तथा रामायण में उनका अपार प्रेम देखा। उपनिषदों का भी उन्होंने खूब अध्ययन किया था जो उनकी वेदान्तचर्चा में भी प्रेरणास्पद होता था। वर्षों के निरंतर सत्संग, वात्र्तालाप के बाद उनके ब्रह्मलीन होने के पश्चात् उनका स्मरण मुझे पवित्रता की अनुभूति कराता है। जहां उनकी श्रद्धा, प्रीति, स्नेह का अनेक बार अनुभव हुआ वहीं उनकी आत्मीयता मन को मोहित करने वाली थी।
मुझे विश्वास है कि चाचाजी की ब्रह्मशक्ति उनके ब्रह्मलीन होने के उपरांत भी उनके आत्मीयजनों, परिवारजनों को अनुभव होगी तथा उनकी अनूठी कृपा जो लोग उनके समक्ष अनुभव करते थे चिरकालपर्यन्त अपने जीवन में अनुभव करते रहेंगे। मैं अपनी गुरु परंपरा का स्मरण करते हुये पूज्यपाद चाचाजी को बड़ी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं। वह ज्ञान, प्रेम और वैराग्य की मूत्र्ति अब जीवन में कहां देखने को मिलेगी?