अहंकार को काटने की शक्ति भक्ति में है। जो भक्ति परायण होगा उसे निरंकारी होना ही पड़ेगा। कहीं हमारे अंदर यह सूक्ष्म अहं न आ जाए कि हम तो बड़े भक्त हैं। इसी अहं से भक्त का पतन हो जाता है। यह समझना भी परमावश्यक है कि क्या हम वास्तव में भक्त की कोटि में हैं? भक्त अपना मन, बुद्धि, हृदय, शरीर, धन, परिवार सब कुछ भगवान के चरणों में अर्पित कर देता है। सो अनन्य जाके असि मति न टरइ हनुमंत। मै सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत।। ऐसे अनन्य भक्त का जीवन प्रभुमय होता है। उसमें प्रभु परायणता आ जाती है। उसके समस्त कार्य प्रभु के कार्य होते हैं। श्री रामकृष्णदेव परमहंस कहा करते थे- ‘डूबो डूबो रे मन रूप सागरे।’ बस आनंदधन में गोता लगाना ही भक्त का कर्तव्य है। परंतु यह पुरुषार्थ का काम नहीं है। यह तो भगवत्कृपा से ही हो सकता है।
रामायण में श्री गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं- यह गुन साधन ते नही होई। तुम्हरी कृपा पाव कोई कोई।। सबसे बड़ी बात यह है कि भगवत्कृपा सभी जीवों पर समान रूप से बरस रही है। किंतु मन की मलिनता से हमें मालूम नहीं होती। मीराबाई परम भक्त थीं। जहर का प्याला पी गईं परंतु उनका कुछ नहीं बिगड़ा। सांप का पिटारा जब उन्हें मारने के लिए भेजा गया तब सांप में भी उन्हें भगवान की झलक दिख गई। उनका कुछ नहीं बिगड़ा। भक्तराज प्रह्लाद पर मत्त गजराज छोड़े गए। बड़े-बड़े विषधारी सर्पों से उसे डसवाने का प्रयत्न किया गया। पर्वतों से उसे गिराया गया। बड़े-बड़े उपायों से उसे मारने की चेष्टा हुई। परंतु वह अटल विश्वासी भक्त न डरा, न मरा, न उसने अपनी टेक ही छोड़ी। हिरण्यकशिपु को कहना पड़ा- ‘यह बालक होकर भी मेरे समीप किस निर्भयता के साथ बैठा है। मालूम होता है, यह अत्यंत सामथ्र्यवान है।’ प्रह्लाद में क्या शक्ति थी, उसमें ऐसा कौन सा अलौकिक बल था ? उसमें भगवद् भक्ति का चरमोत्कर्ष था।
उसका हृदय भगवत्प्रेम से परिपूर्ण था। उसका अटल विश्वास था कि सारा संसार प्रभुमय है। जगत् की प्रत्येक वस्तु भगवान का रूप है। इसलिए हिरण्यकशिपु ने उसे मारने के लिए जिन-जिन वस्तुओं का प्रयोग किया, वे सभी उसे ईश्वर रूप ही दिखाई दीं। इसी व्यवस्था में प्रह्लाद की असीम भक्ति के बल पर भगवान अपनी सर्वव्यापकता प्रत्यक्ष करा देने के लिए स्तम्भ को चीरकर अद्भुत रूप में प्रकट हुए। भक्त का काम हर समय भगवद् स्मृति रखना है। भक्त तो अपने इष्ट में ही अपने को तन्मय रखता है। भक्त के लिए तो भगवान की स्मृति भगवान से बढ़कर है, क्योंकि भगवान तो किसी का दुख दूर नहीं करते। यदि वे दुख दूर करते तो संसार में कोई दुखी नहीं होता। दुख तो उसी का दूर होता है, जो दुखी होकर उनका स्मरण करता है। अतएव भगवान की स्मृति ही दुख दूर करती है। श्री चैतन्य महाप्रभु जी ने भक्ति का लक्षण इस श्लोक में बताया है।
अनन्यमयता विष्णोर्ममता प्रेमसचिता। भक्ति रित्युच्यते भीष्म प्रह्लादोद्धवनारदैः।।
अर्थात भगवान विष्णु में जो प्रेमसंज्ञक अनन्य ममता है, उसी को भीष्म, प्रह्लाद, उद्धव और नारद आदि ने भक्ति कहा है। रामायण में भगवान राम ने शबरी से नवधा भक्ति का वर्णन इस प्रकार किया है।
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा।।
गुरु पद पंकज सेवा तीसरी भगति अमान। चैथि भगति मम गुन गन कएइ कपट तजि गान।।
मंत्र जाप मम दृढ़ विश्वासा। पंचम भजन सो वेद प्रकाशा ।।
छठ दम सील विरति बहु करमा। निरत निरंतर सज्जन धरमा ।।
सातवं सम मोहि मय जग देखा। मोते संत अधिक करि लेखा ।।
आठवं जथा लाभ संतोषा। सपनेहुं नहिं देखई परदोषा।।
नव महुं एकउ जिन्ह कें होई। नारि पुरुष सचराचर कोई।।
अर्थात पहली भक्ति है संतों का सत्संग, दूसरी भक्ति है मेरे कथा-प्रसंग में प्रेम, तीसरी भक्ति है अभिमान रहित होकर गुरु के चरण कमलों की सेवा और चैथी भक्ति है कपट छोड़कर मेरे गुण समूहों का गान करना। पांचवीं भक्ति है मेरे (राम) मंत्र का जप और मुझ में दृढ़ विश्वास जो कि वेदों में प्रसिद्ध है। छठी भक्ति है इंद्रियों का निग्रहशील, बहुत कार्यों से वैराग्य और निरंतर संत पुरुषों के धर्म (आचरण) में लगे रहना। सातवीं भक्ति है जगत् भर को समभाव से मुझमें ओत प्रेत देखना और संतों को मुझसे (राम से) भी अधिक मानना। आठवीं भक्ति है जो कुछ मिल जाए उसी में संतोष करना और स्वप्न में भी दूसरों के दोषों को न देखना। नौवीं भक्ति है सब के साथ सरलतापूर्वक और कपट रहित बर्ताव करना, हृदय में मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्था में हर्ष और विषाद से दूर रहना। इसीलिए इन नवों में से जिसमें एक भी होती है, वह स्त्री या पुरुष, जड़ या चेतन कोई भी हो, मुझे अत्यंत प्रिय है।
शांत, दास्य, सख्य, वात्सल्य और माधुर्य- ये पांच रस भक्ति के माने जाते हैं। वेदांती भक्तों ने शांत, सख्य श्री गोसाईं जी महाराज ने दास्य, पुष्टिमार्गीय वैष्णव आचार्यों ने वात्सल्य और श्री चैतन्य महाप्रभु ने माधुर्य को प्रधान रस माना है। परम पूज्यपाद श्री उड़िया बाबा जी महाराज ने अपने उपदेशों में कहा है कि भक्ति से अच्छा कोई मार्ग नहीं है। जिनका हृदय कोमल है वे ही भक्ति के अधिकारी हैं। कठोर हृदय वाले या तर्क करने वाले पुरुषों के लिए ज्ञान मार्ग ही उपयोगी हो सकता है। भगवान वांछाकल्पतरु हैं। भक्त जैसी इच्छा करता है भगवान को वैसा ही होना पड़ता है। वे प्रेमी भक्त के तो पीछे-पीछे फिरते हैं। यह निष्काम भक्ति की ही महिमा है। भक्ति योग के लिए - श्रीमद्भगवदगीता में भगवान ने अद्भुत वाणी में अर्जुन को उपदेश दिया है। भगवान ने अंततः कह दिया- ‘न ये भक्त प्रणश्यति।’ मेरे भक्त का नाश नहीं होता। अतः इसी दृढ़ विश्वास के साथ भगवान मेरे हैं, मै भगवान का हूं। यही भक्ति का चरम फल है।