ज्योतिषीय परिप्रेक्ष्य में देव-पितर-प्रेत-दोष
ज्योतिषीय परिप्रेक्ष्य में देव-पितर-प्रेत-दोष

ज्योतिषीय परिप्रेक्ष्य में देव-पितर-प्रेत-दोष  

व्यूस : 18110 | सितम्बर 2012
ज्योतिषीय परिप्रेक्ष्य में देव-पितर-प्रेत-दोष! जिस प्रकार छलनी में पानी नहीं भरा जा सकता उसी तरह देव-पितर प्रेत दोष से ग्रस्त मानव जीवन अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाता हालांकि इन दोषों के बारे में ज्योतिषीय योगों के द्वारा जाना जा सकता है। आप भी जानें कि किस देव दोष, प्रेत दोष आदि के कारण व्यक्ति के जीवन का क्या रूप हो जाता है और उन दोषों का शमन किस प्रकार किया जा सकता है। विद्वानों ने अपने गं्रथों में विभिन्न दोषों का उदाहरण दिया है और पितर दोष का संबंध बृहस्पति (गुरु) से बताया है। अगर गुरु ग्रह पर दो बुरे ग्रहों का असर हो तथा गुरु 4-8-12वें भाव में हो या नीच राशि में हो तथा अंशों द्वारा निर्धन हो तो यह दोष पूर्ण रूप से घटता है और यह पितर दोष पिछले पूर्वज (बाप, दादा, परदादा) से चला आता है, जो सात पीढ़ियों तक चलता रहता है। उदाहरण हेतु इस जन्मकुंडली को देखें जिसमें पूर्ण पितर दोष है। इनका परदादा अपने पिता का एक ही लड़का था, दादा भी अपने पिता का एक ही लड़का था। इसका बाप भी अपने पिता का भी एक ही लड़का और यह अपने बाप का एक ही लड़का है और हर बाप को अपने बेटे से सुख नहीं मिला। जब औलाद की सफलता व सुपरिणाम का समय आया तो बाप चल बसा। पितर दोष के और भी दुष्परिणाम देखे गये हैं- जैसे कई असाध्य व गंभीर प्रकार की बीमारियां जैसे दमा, शुगर इत्यादि जो पीढ़ी दर पीढ़ी चलती हैं। पितर दोष का प्रभाव घर की स्त्रियों पर भी अधिक रहता है। देव दोष क्या है? देव दोष ऐसे दोषों को कहते हैं जो पिछले पूर्वजों, बुजुर्गों से चलें आ रहे हैं, जिसका देवताओं से संबंध होता है। गुरु और पुरोहित तथा ब्राह्मण विद्वान पुरुषों को इनके पिछले पूर्वज मानते चले आते थे। इन्होंने उनको मानना छोड़ दिया अथवा वह पीपल जिस पर यह रहते थे, को काट दिया, तो उससे देव-दोष पैदा होता है। इसका असर औलाद तथा कारोबार पर विपरीत होता है। इसका संबंध बृहस्पति तथा सूर्य से होता है। बृहस्पति नीच, सूर्य भी नीच या दो बुरे ग्रहों के घेरे में हो, तो यह दोष उत्पन्न होता है। अपने समय के अनुरूप इस जातक के भाई ने कोई रुहानी गुरु धारण कर लिया और उस गुरु के कहने पर देवी-देवता पुरोहित की पूजा छोड़ दी जिससे कारोबार में अत्यधिक हानि होती गयी। रुकती नहीं। पहले इनके पूर्वज बुजुर्गादि देवी-देवता व शहीदों, मृतकों को मानते थे इन्होंने उनको मानना, पूजा आदि छोड़ दी, इस कारण ऐसा हुआ। दुबारा पूजा शुरू करने पर अब ठीक है। प्रेत दोष के कारण भूत-प्रेत: जिसके यहां खून के रिश्ते में कोई पानी में डूब गया हो या अग्नि द्वारा जल गया हो या शस्त्र द्वारा मौत हो गयी हो या कोई औरत तड़प-तड़प कर मर गई हो या मारी गई हो, उनको प्रेत-दोष भुगतना पड़ता है और कई बार तो बाहरी भूत-प्रेतों का भी असर हो जाता है। जैसे किसी समाधि या कब्र का अनादर-अपमान किया जाय या किसी पीपल-बरगद जैसे विशेष वृक्ष के नीचे पेशाब आदि करने से यह दोष शुरु हो जाता है। कई बार किसी शत्रु द्वारा किये कराए का असर भी होता है। भूत-प्रेत के कारक: भूत-प्रेत कारक ग्रह राहु से अधिक संबंध रखता है। चैथे स्थान में राहु, दसवें स्थान में मंगल हो, तो उसके निवास स्थान में प्रेत का वास रहता है, धन हानि, संतान हानि, स्त्री को कष्ट इत्यादि होता है। अगर दूसरे, चैथे, पंचम, छठे, सातवें, द्वादश रवि के साथ राहु या गुरु के साथ राहु या तीनों एक जगह हों, तो धन के लिए किसी की हत्या करना, विधवा स्त्री का धन, जायदाद आदि हड़प लेने, घर में पागलपन, दरिद्रता, लोगों के लापता हो जाने जैसी घटनाएं होती हैं। वहां पिशाच प्रेत का निवास होता है। पांच पीढ़ी तक यह दुःख देता है। राहु अगर चंद्र या शुक्र के साथ हो तो किसी स्त्री का श्राप सात पीढ़ी तक चलता है। महारोग, क्षयरोग, गण्डमाला रोग, सांप का काटना इत्यादि घटनाएं होती हैं। राहु के साथ शनि-आत्महत्या का कारक है। तंग होकर कोई खून के रिश्ते में आत्महत्या कर ले, तो सात पीढ़ी तक चलता है। औलाद व औरत न बचें, धन-हानि होती है। ये हैं प्रेत दोष। इस प्रकार प्रथम भाव से खानदानी दोष-देह पीड़ा, द्वितीय भाव-आकाश देवी, तृतीय भाव-अग्नि दोष, चतुर्थ भाव-प्रेत दोष, पंचम भाव-देवी- देवताओं का दोष, छठा भाव-ग्रह दोष, सातवां भाव-लक्ष्मी देवी दोष, आठवां भाव-नाग देवता दोष, नवम भाव-धर्म स्थान दोष, दशम भाव-पितर दोष, लाभ भाव ग्रह दशा, व्यय भाव-पिछले जन्म का ब्रह्म दोष होता है। कोई ग्रह किसी घर में पीड़ित हो, सूर्य दो ग्रहों द्वारा पीड़ित हो तो जिस घर में होगा वही दोष होगा। भूत-प्रेत कौन और कैसे? भूत प्रेत, जिन्नादि जैसे मनुष्यों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि जाति भेद हैं उसी प्रकार उनकी भी जातियां या भेद सुविधानुसार किये गये हैं। इनमें भूत प्रेत, जिन्न, ब्रह्म राक्षस, डाकिनी, शाकिनी आदि मुख्य हैं। जिनकी किसी दुर्घटना में मृत्यु हो जाती है, वे भूत-प्रेत बन जाते हैं। जिसका जीवन में किसी ने ज्यादा शोषण किया हो, जिनको धोखे से किसी ने ठगा या हानि पहुंचायी हो। वे बदले की भावना में भूत-प्रेत योनी स्वीकार कर लेते हैं। आत्महत्या या जहर देकर जिनकी हत्या हुई हो। जिनकी मरते समय कोई इच्छा अतृप्त रह जाती है वे भूत-प्रेत योनी में अथवा जन्म की सुरक्षा हेतु इस योनी में जन्म लेते हैं। जो पापी, कामी, क्रोधी और मूर्ख होते हैं, भूत-प्रेत बन जाते हैं। पितर दोषों के उपाय: पितर दोष के लिए बृहस्पति की पूजा, पीपल ब्रह्मा की पूजा तीन महीने करें। रोज प्रातः इतवार को छोड़कर दूध, जल, चीनी मिलाकर पीपल की जड़ में पानी डालें तथा कच्चा सूत लपेटें और ज्योति जलाएं। हल्दी जैसे पीले रंग का प्रसाद बांटे, अपने बुजुर्गों की सेवा करें। पीला-पुखराज नौ या बारह रŸाी का धारण करें और घर मंे नारायण बलि का हवन पाठ कराएं वास्तव में पितर अपने वंशज की श्रद्धा के भूखे होते हैं, उनके द्वारा दी गई वस्तुओं के भूखे नहीं होते। श्राद्ध कर्म का मूल तत्व है, श्रद्धा। श्रद्धा की भावना के बिना किया गया श्राद्ध और तर्पण सर्वथा निरर्थक है। कंजूसी करना अनुचित है। श्राद्धकर्ता पितरों के आशीर्वाद से धन-धान्य, सुख-समृद्धि, संतान और स्वर्ग प्राप्त करता है। शास्त्रों में पितृगण को देवताओं से भी अधिक दयालु और कृपालु बताया गया है। पितृपक्ष में श्राद्ध और तर्पण पाकर वे वर्ष भर तृप्त रहते हैं। जिस घर में पूर्वजों का श्राद्ध होता है, वह घर पितरों द्वारा सदैव सुरक्षित रहता है। पितृपक्ष में श्राद्ध न किये जाने से पितर अतृप्त होकर कुपित हो जाते हैं जिससे व्यक्ति को अनेकों प्रकार के कष्ट और दुःख उठाने पड़ते हैं। मृतक के लिए किये गये श्राद्ध का सूक्ष्मांश उस तक अवश्य पहुंचता है, चाहे वह किसी लोक या योनी में हो। श्राद्ध और तर्पण वंशज द्वारा बुजुर्गों, पुरखों, पूर्वजों को दी गई एक श्रद्धांजलि मात्र है। हमें किसी भी स्थिति में अपने इस आध्यात्मिक कर्तव्य से विमुख होकर उदासीनता नहीं बरतनी चाहिए। पितृपक्ष-पुरखों, पूर्वजों की स्मृति का विशेष पक्ष है। पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का जो हमारा दायित्व और धर्म है उसके लिए इससे अच्छा मौका नहीं मिल सकता ।



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