प्रश्न: भोजन की थाली को हाथ क्यों जोड़ते हैं? उत्तर: सनातनी हिंदू लोग अन्न को ब्रह्म (परमात्मा) की कृपा समझकर, भोजन का अभिवादन करते हुये उसकी उपासना करते हैं। यह उनकी नित्य-नैमित्तिक उपासना है। प्रश्न: भोजन को भगवान के भोग क्यों लगाते हैं? उत्तर: नास्तिक लोग कहते हैं कि जब अन्न ब्रह्म है तो भोजन को भगवान के भोग क्यों लगाते हैं। शास्त्रकार कहते हैं- अन्न विष्टा, जलं मूत्रं, यद् विष्णोर निवेदितम्। -ब्रह्म वैवर्त पुराण, ब्रह्मखंड, 27/6 विष्णुभगवान को भोग न लगा अन्न विष्टा के समान और जल मूत्र के तुल्य है। ईश्वर के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए कि उसकी कृपा से आप और हम जीवित हैं, और यह अन्न-जल हमें मिला है। अतः जैसा भी भोजन मिले इसको प्रेमपूर्वक भगवान का प्रसाद समझकर स्वीकार करना चाहिये। भारतीय संस्कृति में भोजन करना मात्र पेट भरने का कार्य नहीं। जब भी भूख लगे जैसा भी भोजन मिले, बिना नियम के खा लेना पशुओं का कार्य है। हमारे यहां भोजन करना भी ईश्वर उपासना के तुल्य पवित्र कार्य है। ईश्वर को जूठी वस्तु का, अपवित्र वस्तु का भोग नहीं लगता। भोजन क्या, हमारे यहां अन्न व जल की उपयेागिता भी परखी जाती है। कहा भी है: जैसा खाये अन्न, वैसा होवे मन जैसा पीओ पानी, वैसी होवे वाणी। प्रश्न: ताम्रपात्र में भोजन का निषेध क्यों? उत्तर: ताम्रपात्र केवल देवपूजन में काम आता है फिर ताम्र पात्र में जल के अतिरिक्त अन्य पदार्थ शीघ्र ही विकृत हो जाते हैं। प्रश्न: जूते पहनकर भोजन क्यों नहीं करें? उत्तर: चमड़ा वैसे भी दुर्गन्धपूर्ण परमाणुओं से बनी एक अपवित्र वस्तु है। जूतों के तलों में नाना प्रकार की गंदगी, कीचड़, मल, और दुर्गन्धपूर्ण वस्तुएं लगी होती हैं। भारतीय संस्कृति में भोजन करना एक पवित्र कार्य है। भोजन एक ईश्वरीय उपासना तुल्य शुचि कार्य होने से उसमें जूतों का संसर्ग धार्मिक एवं वैज्ञानिक दोनों ही दृष्टि से निन्दनीय है। प्रश्न: भोजन करके चलना क्यों चाहिये? उत्तर: शास्त्रों में लिखा है - ‘भोजनान्ते शतपदं गच्छेत्’ भोजन खाकर कम-से-कम सौ कदम चलना चाहिये। इस पर कुछ कुतर्कियों ने उपर्युक्त शंका उठाई। आयुर्वेद एवं आज का डाॅक्टर भी यही कहता है कि भोजन करके बैठे रहने से शरीर स्थूल हो जाता है और पेट बढ़ जाता है। भोजन करके तत्काल सो जाने से अनेक रोग उत्पन्न होते हैं, भोजन करके दौड़ने से मौत का खतरा है अतः भोजन के बाद जरा-सी-चहलकदमी स्वास्थ्यवर्धन करती है। प्रश्न: दिन में क्यों न सोयें ? उत्तर: शास्त्रकारों ने कहा है - ‘दिवास्वापं च वर्जयेत्’ अर्थात दिन में नहीं सोना चाहिये। आयुर्वेद भी कहता है कि दिन की निद्रा आयु को कम करती है। ग्रीष्म ऋतु के अपवाद को छोड़कर किसी भी ऋतु में बाल, वृद्ध व तरूण को दिन में नहीं सोना चाहिये। आयुर्वेद में लिखा है कि दिन में सोने से ‘प्रतिश्याम’ जुकाम हो जाता है। वह चिरस्थाई होकर ‘कास’ रोग को उत्पन्न करता है। कास रोग आगे चलकर ‘श्वांस’ रोग में परिवर्तित हो जाता है जिससे फेफड़े खराब हो जाते हैं तथा व्यक्ति को क्षयरोग हो जाता है।