पूर्व काल में यज्ञदत्त नामक एक ब्राह्मण थे। समस्त वेद-शास्त्रादि का ज्ञाता होने से उन्होंने अतुल धन एवं कीर्ति अर्जित की थी। उनकी पत्नी सर्वगुणसम्पन्न थी। कुछ दिनों के बाद उन्हें एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसका नाम गुणनिधि रखा गया। बाल्यावस्था में इस बालक ने कुछ दिन तो धर्मशास्त्रादि समस्त विद्याओं का अध्ययन किया, परंतु बाद में वह कुसंगति में पड़ गया। कुसंगति के प्रभाव से वह धर्मविरूद्ध कार्य करने लगा। वह अपनी माता से द्रव्य लेकर जुआ खेलने लगा और धीरे-धीरे अपने पिता द्वारा अर्जित धन तथा कीर्ति को नष्ट करने लगा। कुसंगति के प्रभाव से उसने स्नान-संध्या आदि कार्य ही नहीं छोड़ा, अपितु शास्त्र-निन्दकों के साथ रहकर वह चोरी, परस्त्रीगमन, मद्यपानादि कुकर्म भी करने लगा, परंतु उसकी माता पुत्र-स्नेहवश न तो उसे कुछ कहती थी और न उसके पिता को ही कुछ बताती। इसीलिये यज्ञदत्त को कुछ भी पता नहीं चला। जब उनका पुत्र सोलह वर्ष का हो गया तब उन्होंने बहुत धन खर्च करके एक शीलवती कन्या से गुणनिधि का विवाह कर दिया, परंतु फिर भी उसने कुसंगति को न छोड़ा। उसकी माता उसे बहुत समझाती थी कि तुम कुसंगति को त्याग दो, नहीं तो यदि तुम्हारे पिता को पता लग गया तो अनिष्ट हो जायेगा। तुम अच्छी संगति करो तथा अपनी पत्नी में मन लगाओ। यदि तुम्हारे कुकर्मों का राजा को पता लग गया तो वह हमें धन देना बंद कर देगा और हमारे कुल का यश भी नष्ट हो जाएगा, परंतु बहुत समझाने पर भी वह नहीं सुधरा, अपितु उसके अपराध और बढ़ते ही गये। उसने वेश्यागमन तथा द्यूतक्रीड़ा में घर की समस्त संपत्ति नष्ट कर दी। एक दिन वह अपनी सोती हुई मां के हाथ से अंगूठी निकाल ले गया और उसे जुए में हार गया। अकस्मात् एक दिन गुणनिधि के पिता यज्ञदत्त ने उस अंगूठी को एक जुआरी के हाथ में देखा, तब उन्होंने उससे डाँटकर पूछा- ‘तुमने यह अंगूठी कहां से ली?’ जुआरी डर गया और उसने गुणनिधि के संबंध में सब कुछ सत्य-सत्य बता दिया। जुआरी से अपने पुत्र के विषय में सुनकर यज्ञदत्त को बड़ा आश्चर्य हुआ। वे लज्जा से व्याकुल होते हुए घर आये और उन्होंने अंगूठी के संबंध में प्राप्त हुई गुणनिधि के विषय की सारी बातें अपनी पत्नी से कही। माता ने गुणनिधि को बचाने का प्रयास किया, किंतु यज्ञदत्त क्रोध से भर उठे और बोले कि ‘मेरे साथ तुम भी अपने पुत्र से नाता तोड़ लो तभी मैं भोजन करूंगा।’ पति की बात सुनकर वह उनके चरणों पर गिर पड़ी और गुणनिधि को एक बार क्षमा कर देने की प्रार्थना की, जिससे यज्ञदत्त का क्रोध कुछ कम हो गया। जब गुणनिधि को इस घटना का पता चला तब उसे बड़ी आत्मग्लानि हुई। वह अपनी माता के उपदेशों का स्मरण कर शोक करने लगा तथा अपने कुकर्मों के कारण अपने को धिक्कारने लगा और पिता के भय से घर छोड़कर भाग गया, परंतु जीविका का कोई भी साधन न होने से जंगल में जाकर रुदन करने लगा। इसी समय एक शिव भक्त विविध प्रकार की पूजन- सामग्रियों से युक्त हो अपने साथ अनेक शिव भक्तों को लेकर जा रहा था। उस दिन सभी व्रतों में उत्तम तथा सभी वेदों एवं शास्त्रों द्वारा वर्णित शिवरात्रि-व्रत का दिन था। उसी के निमित्त वे भक्तगण शिवालय में जा रहे थे। उनके साथ ले जाये गये विविध पकवानों की सुगंध से गुणनिधि की भूख बढ़ गयी। वह उनके पीछे-पीछे इस उद्देश्य से शिवालय में चला गया कि जब ये लोग भोजन को शिवजी के निमित्त अर्पण कर सो जायेंगे तब मैं उसे ले लूंगा। उन भक्तों ने शिवजी का षोडशोपचार पूजन किया तथा नैवेद्य अर्पित करके वे शिवजी की स्तुति करने लगे। कुछ देर बाद उन भक्तों को नींद आ गयी, तब छिपकर बैठे हुए गुणनिधि ने भोजन उठा लिया, परंतु लौटते समय उसका पैर लगने से एक शिव भक्त जाग गया और वह चोर-चोर कहकर चिल्लाने लगा। गुणनिधि जान बचाकर भागा, परंतु एक नगर रक्षक ने उसे अपने तीर से मार गिराया। तदुपरांत उसे लेने के लिये बड़े भयंकर यमदूत आये और उसे ले जाने लगे। तभी भगवान् शिव ने अपने गणों से कहा कि इसने मेरा परम प्रिय शिवरात्रि का व्रत तथा रात्रि-जागरण किया है, अतः इसे यमगणों से छुड़ा लाओ। यमगणों के विरोध करने पर शिवगणों ने उन्हें शिवजी का संदेश सुनाया और उसे छुड़ाकर शिवजी के पास ले गये। शिवजी के अनुग्रह से वह महान् शिवभक्त कलिंगदेश का राजा हुआ। वही अगले जन्म में भगवान् शंकर तथा मां पार्वती के कृपा प्रसाद से यक्षों का अधिपति कुबेर हुआ। (शिवपुराण)