यह पर्व संपूर्ण बिहार और उर प्रदेश के पूर्वी क्षेत्रों में बड़ी श्रद्धा से मनाया जाता है जिसमें संतान एवं सुख-समृद्धि की प्राप्ति के लिए भगवान् सूर्य देव की आराधना की जाती है। यह पर्व बहुत ही साफ-सफाई और निष्ठा के साथ मनाया जाता है। छठ व्रत दीपावली के छह दिन बाद ‘खरना’ से आरंभ होता है। खरना के दिन व्रती स्नान-ध्यान कर शाम को चंद्रमा को गुड़ की खीर एवं रोटी का भोग लगाते हैं। खरना के बाद दूसरे दिन 24 घंटे का उपवास आरंभ होता है। अगले दिन शाम को नदी अथवा तालाब में खड़े होकर व्रतीगण डूबते सूर्य को अघ्र्य देते हैं। फिर अगली सुबह को इसी प्रकार उगते सूर्य को अघ्र्य आदि देकर मंत्र जप अथवा उनकी स्तुति, आरती आदि करते हैं। तत्पश्चात प्रसाद बांटकर स्वयं भी ग्रहण करते हैं। कथा है कि स्वयं मनु के पुत्र राजा प्रियव्रत को अधिक समय बीत जाने के बाद भी जब कोई संतान नहीं हुई तो महर्षि कश्यप ने पुत्रेष्टि यज्ञ कराकर उनकी पत्नी को प्रसाद दिया। प्रसाद खाने से गर्भ तो ठहर गया, किंतु बाद में रानी ने मृत पुत्र को जन्म दिया जिसे देखकर वे तत्क्षण मूच्र्छित हो गईं। प्रियव्रत मृत शिशु को लेकर श्मशान गए और पुत्र वियोग में उन्होंने भी प्राण त्यागने का निश्चय किया। उसी समय षष्ठी देवी वहां प्रकट हुईं। मृत बालक को भूमि पर रखकर राजा ने देवी को प्रणाम किया। देवी ने राजा को षष्ठी व्रत करने की सलाह दी और बालक को जीवित कर दिया। राजा ने उसी दिन घर जाकर नियमानुसार षष्ठी देवी की पूजा की। तभी से यह व्रत प्रसिद्ध हो गया।