श्री बुद्ध जयंती एवं व्रत पं. ब्रजकिशोर भारद्वाज ‘ब्रजवासी’ भगवान बुद्ध की जयंती एवं व्रत सनातन धर्म के अनुसार पौष शुक्ल पक्ष सप्तमी को करने का विधान है। पौष शुक्ल सप्तमी को सायंकाल की बेला में गया के पावन क्षेत्र में भगवान बुद्ध का जन्म आसुरी शक्तियों पर विजय प्राप्ति हेतु भगवान श्री विष्णु के अंश से हुआ था। जो व्यक्ति भगवान बुद्ध के इस परम मंगलमय व्रत को करता है एवं उनके अवतरण की कथा का श्रवण करता है, वह निश्चय ही आंतरिक एवं बाह्य आसुरी शक्तियों पर विजय प्राप्त कर जीवन का कल्याणकारी मार्ग प्रशस्त कर लेता है। बुद्ध व्रत का पालन करने वाले साधक को प्रातः काल सूर्योदय से पूर्व ही जागकर दैनिक संध्या वंदन कृत्यों को पूर्ण करते हुए यह संकल्प लेना चाहिए कि आज मैं भगवान बुद्ध के व्रत में निराहार रहते हुए सायंकाल की बेला में श्री विष्णु भगवान के अंश से अवतरित भगवान बुद्ध का पंचोपचार या षोडशोपचार पूजन और उनके अवतरण माहात्म्य का श्रवण कर ब्राह्मणों को पं. ब्रजकिशोर भारद्वाज ‘ब्रजवासी’ नैवेद्य दक्षिणादि से संतुष्ट कर ही फलाहार ग्रहण करूंगा। दिनभर ‘‘¬ महाबुद्ध नमः’’, ‘‘¬ बुद्धये नमः’’, ‘‘¬ नमो नारायण’’, ‘‘¬ नमो भगवते वासुदेवाय’’ आदि मंत्रों का जप एवं श्री हरि भगवान के सुंदर चरित्रों का श्रवण करें। हरि संकीर्तन करें। रात्रि में भगवान बुद्ध की प्रसन्नता के लिए जागरण, संकीर्तन व मंत्र जप करें। ऐसा करने से साधक की आसुरी शक्ति से रक्षा होती है और उसके जीवन में दैवीय शक्ति का विकास होता है। संपूर्ण संपŸिायां एवं भोग प्राप्त होते हैं। इहलौकिक सुखों को भोगकर वह पारलौकिक सुखों की प्राप्ति करता है। भगवान की अहैतुकी कृपा का लाभ प्राप्त कर जीवन का कल्याण कर लेता है। वास्तव में यह व्रत अंधकार को दूर करने वाला, असत्य पर सत्य की पताका फहराने वाला तथा मृत्यु से अमृत की ओर ले जाने वाला व्रत है। इस व्रत का पालन करने से पापियों, अत्याचारियों एवं दुराचारियों का अंत होता है। देवताओं, भक्तों एवं साधकों को आनंद की अनुभूति होती है। भगवान बुद्ध की यह जयंती एवं व्रत परम मंगलकारी एवं आनंददाता है। भगवान बुद्धावतार कथा महाराज शुद्धोदन के यशस्वी पुत्र गौतम बुद्ध के रूप में श्री भगवान अवतरित हुए थे, ऐसी प्रसिद्धि विश्रुत है, परंतु पुराणवर्णित भगवान बुद्ध देव का प्राकट्य गया के समीप कीकट देश में हुआ था। उनके पुण्यात्मा पिता का नाम ‘अजन’ बताया गया है। प्रस्तुत प्रसंग पुराणवर्णित बुद्धावतार का ही है। कथा है कि दैत्यों की शक्ति बढ़ गई थी। उनके सम्मुख देवता टिक नहीं सके और उनके भय से प्राण लेकर भागे। दैत्यों ने देवधाम स्वर्ग पर अधिकार कर लिया। वे स्वच्छंद होकर देवताओं के वैभव का उपभोग करने लगे। किंतु उन्हें प्रायः चिंता बनी रहती थी कि पता नहीं, कब देवगण समर्थ होकर पुनः स्वर्ग छीन लें। सुस्थिर साम्राज्य की कामना से दैत्यों ने सुराधिप इंद्र का पता लगाया और उनसे पूछा- ‘हमारा अखंड साम्राज्य स्थिर रहे, इसका उपाय बताइए।’ देवाधिप इंद्र ने शुद्ध भाव से उŸार दिया- ‘सुस्थिर शासन के लिए यज्ञ एवं वेदविहित आचरण आवश्यक है।’ दैत्यों ने वैदिक आचरण एवं महायज्ञ का अनुष्ठान प्रारंभ किया। फलतः उनकी शक्ति उŸारोŸार बढ़ने लगी। स्वभाव से ही उद्दंड और निरंकुश दैत्यों का उपद्रव बढ़ा। जगत में आसुर भाव का प्रसार होने लगा। असहाय और निरुपाय दुःखी देवगण जगत्पति श्रीविष्णु के पास गए और उनसे करुण प्रार्थना की। श्रीभगवान ने उन्हें आश्वासन दिया। श्रीभगवान ने बुद्ध का रूप धारण किया। उनके हाथ में मार्जनी थी और वे मार्ग को बुहारते हुए उस पर चरण रखते थे। इस प्रकार भगवान बुद्ध दैत्यों के समीप पहंुचे और उन्हें उपदेश दिया- ‘यज्ञ करना पाप है। यज्ञ से जीवहिंसा होती है। यज्ञ की प्रज्वलित अग्नि में ही कितने जीव भस्म हो जाते हैं। देखो, मैं जीवहिंसा से बचने के लिए कितना प्रयत्नशील रहता हूं। पहले झाडू लगाकर पथ स्वच्छ करता हूं, तब उस पर पैर रखता हूं।’ संन्यासी बुद्धदेव के उपदेश से दैत्यगण प्रभावित हुए। उन्होंने यज्ञ एवं वैदिक आचरण का परित्याग कर दिया। परिणामतः कुछ ही दिनों में उनकी शक्ति क्षीण हो गई। फिर क्या था, देवताओं ने उन दुर्बल एवं प्रतिरोधहीन दैत्यों पर आक्रमण कर दिया। असमर्थ दैत्य पराजित हुए और प्राणरक्षार्थ यत्र-तत्र भाग खड़े हुए। देवताओं का स्वर्ग पर पुनः अधिकार हो गया। इस प्रकार संन्यासी के वेष में भगवान बुद्ध ने त्रैलोक्य का मंगल किया।