जब कालभैरव की महिमा से अभिभूत हुए हनुमान... लघु-विशाल अनेक नगर, पुर तथा पुरियों का अवलोकन करते हुए गुरु हनुमान तथा शिष्य नारद उज्जयिनी (उज्जैन) की शिप्रा नदी के तट पर बसी अवंतिकापुरी, जिसे उज्जयिनी या उज्जैन भी कहते हैं। यहां महाकालेश्वर नाम का ज्योतिर्लिंग है, जिसकी गणना शिवजी के द्वादश ज्योतिर्लिंगों के साथ-साथ मोक्षदायिनी सप्त पुरियों एवं 51 शक्तिपीठों में भी होती है। वहां पहुंचकर गुरु और शिष्य दोनों ने सर्वप्रथम शिप्रा माता को प्रणाम किया और फिर स्नान करने के बाद पुरी में प्रवेश किया। सबसे पहले उन्हें श्रीकालभैरव जी का मंदिर मिला। अवंतिका के श्री कालभैरव मंदिर में जब महावीर हनुमान तथा देवर्षि नारद जी ने प्रवेश किया, तब वहां आरती हो रही थी। भक्त नाना प्रकार के वाद्य बजा रहे थे। कुछ भावुक जन ताली बजाते हुए उमंग में झूम रहे थे। प्रधान पुजारी जी 33 दीपों की आरती घुमा रहे थे। 11-11 दीपों की तीन प्रज्वलित पंक्तियां अत्यंत सुहानी लग रही थीं। आरती हो जाने पर पुजारी जी ने नीराजन का जल छिड़का। सब ने भक्तिपूर्वक अपने मस्तक झुकाकर उस जल को अपने तन पर पड़ने दिया और अपने को कृतार्थ माना। फिर सबने करबद्ध रूप में भगवान की स्तुति आरंभ की। श्रीकालभैरव जी की पूजन-आरती देखकर गुरु-शिष्य अत्यंत आनंदित हुए। उन्होंने कुछ देर वहां रुकने का निश्चय किया और मंदिर के कोने में, जहां किसी को कोई अड़चन न हो, दोनों आसन लगाकर ध्यान-मुद्रा में बैठ गए। ध्यान का तो बहाना था, वास्तव में वे यह देखना चाहते थे कि यहां और क्या-क्या होता है। गुरुद और शिष्य ने देखा कि मंदिर में अगणित श्रद्धालु भक्त आकर श्रीकालभैरव को मद्यपान कराते हैं। इस नैवेद्य-समर्पण की विधि में बड़ी विचित्रता थी। प्रत्येक भक्त अपने मद्यपात्र का दो तिहाई भाग भगवान के मद्यपात्र (कपालपात्र) में डालता था, जिसका दो तिहाई भाग कुछ ही क्षणों में भगवान ग्रहण कर लेते थे। कपालपात्र में बचा शेष मद्य पुजारी जी लाने वाले के मद्यपात्र में वापस डाल देते थे। अब चाहे प्रसाद रूप में कुछ बूंदें भक्त अपने मद्यपात्र में से सैकड़ों लोगों को बांट भी देता, तो भी उसका पात्र सदैव दो तिहाई भरा ही रहता था। यह क्रम निरंतर अहर्निश चलता रहता था। इसमें किसी प्रकार का व्यवधान नहीं पड़ता था। श्री कालभैरव को अनवरत मद्यपान करते देखकर गुरु हनुमान और शिष्य नारद चकित हो गए। शिष्य ने प्रश्न किया, ‘‘गुरुदेव! निरंतर मद्य का सेवन करने वाले ये देवता क्या और कुछ नहीं खाते-पीते?’’ गुरु ने उŸार दिया, ‘‘इन्हें महाकाल का एक रूप समझो। यह महाकाल भैरव भी कहे जाते हैं। इन पर श्मशान भैरवी या छिन्नमस्ता भैरवी अदृश्य रूप से सदैव सवार रहती हैं। उन्हीं भैरवी की शक्ति से यह विग्रह अपना कार्य करता रहता है। महाकाल या मृत्यु के रूप में प्रसिद्ध यह कालभैरव देवता मद्य के अतिरिक्त मरने वाले प्रत्येक प्राणी के रक्त आदि सप्तधातु का पान भी करते रहते हैं।’’ इस उŸार से शिष्य की जिज्ञासा शांत नहीं हुई। उसने अनुरोध किया कि कुछ अन्य पदार्थ निवेदन करके देख लिया जाए। गुरु बोले, ‘‘पुजारी जी से अनुमति लो, फिर प्रयत्न करो।’’ नारदजी कोई साधारण व्यक्ति नहीं थे, वह दिव्य-शक्ति संपन्न थे। स्मरण करते ही उनके हाथों में एक थाल उपस्थित हो गया, जिसमें नाना प्रकार के स्वादिष्ट फल, भांति-भांति के सूखे मेवे और मिष्टान्न आदि रखे हुए थे। शिष्य ने पुजारी जी के पास जाकर प्रार्थना की, ‘‘महाराज! मुझे भोग अर्पित करने की आज्ञा दीजिए।’’ पुजारी ने कुछ मुस्कराते हुए कपालपात्र की ओर संकेत किया कि इसमें डालो। नारद जी ने एक-एक करके सभी पदार्थ पात्र में डाले, किंतु देवता ने एक कण भी स्वीकार नहीं किया। पुजारी जी ने सारे पदार्थ थाल में वापस डाल दिए। नारद जी थाल लेकर पीछे की ओर 5-7 पग चले कि थाल लुप्त हो गया। तब उन्होंने अपनी शक्ति से शिप्रा के जल से भरा हुआ एक कमंडल हाथ में उत्पन्न किया। उसमें गंगाजल का तथा कुछ तुलसीदल का आवाहन किया और फिर पहले की भांति कमंडल लेकर पुजारी जी के पास पहुंचे। पुजारी जी ने उसे भी उसी तरह कपालपात्र में उंडेल दिया। पर्याप्त समय तक प्रतीक्षा करने के बाद भी एक बूंद तक स्वीकार नहीं की गई। तब पुजारी जी ने सारा जल कमंडल में वापस भर दिया। अत्यंत निराश होकर शिष्य गुरुजी के पास आ गए। हताश हो जाने पर कभी-कभी कोई व्यक्ति हठ पकड़ लेता है। कुछ ऐसी ही मनोदशा देवर्षि नारद की थी। अपने प्रयास में शत-प्रतिशत असफल होने के कारण उनके मन में कुछ खिझलाहट भी थी। उन्होंने अपने गुरु से कहा, ‘‘गुरुदेव! आप जैसे सर्वसमर्थ प्रभु के संग होते हुए भी मेरी पराजय हो जाए, यह बात उचित तथा न्यायसंगत नहीं लगती। मैं किसी भी प्रकार कालभैरव को सात्विक एवं वैष्णवोचित नैवेद्य अर्पित करना चाहता हूं। आपको कुछ ऐसा उपाय करना होगा, जिससे मेरी लालसा पूरी हो।’’ अर्द्धरात्रि के समय गुरुदेव ने शिष्य को एक स्वर्णपात्र में गंगाजल लाने की आज्ञा दी और उसमें थोड़े तुलसी दल भी डालने को कहा। यह कार्य करने में शिष्य को अधिक विलंब नहीं हुआ। गंगाजल के पात्र को सम्मुख रखकर जब गुरु हनुमान भैरव मंत्रों से उसे अभिमंत्रित करने लगे, तब शनैः शनैः गंगाजल का रंग बदलने लगा और देखते-देखते वह मद्यार्क के रूप में परिवर्तित हो गया। यह देखकर नारद जी जब नाक भौं सिकोड़ने लगे, तो गुरुदेव ने उन्हें शांत रहने का संकेत किया। फिर गुरुदेव उठे और देवता के समक्ष जाकर पूरा पात्र देवता के कपालपात्र में उलट दिया। ऐसा करते समय वे कालभैरव के मंत्रों का उच्चारण भी कर रहे थे। धीरे-धीरे पात्र खाली होने लगा और कुछ ही क्षणों में कपालपात्र के पेंदे से गरम तवे पर जल छिड़कने जैसी छनछनाहट की ध्वनि आई। फिर पात्र के भीतर से एक ज्वाला निकलकर शांत हो गई। तब एक चमत्कार दिखाई पड़ा। देवता का कपालपात्र रत्नपात्र हो गया और वह तुलसी दल सहित गंगाजल से परिपूरित हो गया। गुरु और शिष्य दोनों अति प्रसन्न हुए और उन्होंने श्री कालभैरव के इस दिव्य चमत्कार को श्रद्धापूर्वक नमन किया। जब गुरुदेव ने उस गंगाजल को अपने पात्र में भर लिया, तब रत्नपात्र में परिवर्तित देवता का पात्र फिर कपालपात्र बन गया। कहा जाता है कि यदि कोई वयक्ति श्री बदरीनारायण जाकर तुलसीदल युक्त अलकनंदा के जल से वहां पूजन करे और फिर उस जल को भैरव के मंत्रों से अभिमंत्रित कर महाशिवरात्रि पर्व के अवसर पर अर्द्धरात्रि के समय अभिजित मुहूर्त में श्री कालभैरव के कपालपात्र में मंत्रोच्चार सहित डाले, तो पहले वह जल मद्यार्क में बदल जाता है और फिर बाद में गंगाजल हो जाता है। आज का भौतिक विज्ञान यद्यपि अनेक दुर्लभ साधनों से संपन्न है, तथापि उसके पास ऐसे उपयुक्त साधन नहीं हैं, जिनकी कसौटी पर कस कर वह ऐसी अलौकिक घटनाओं का सत्यापन कर सके। ऐसी स्थिति में इसे असत्य या कोरी कल्पना मानना उचित नहीं है। इस कथा के रहस्य का उद्घाटन अभी नहीं हो पाया है। यह रहस्य जब भी उद्घाटित होगा, मानव जाति के लिए परम सौभाग्य का संदेश लेकर आएगा।