स्व-प्रबंधन ही मूलमंत्र है
स्व-प्रबंधन ही मूलमंत्र है

स्व-प्रबंधन ही मूलमंत्र है  

व्यूस : 8692 | जनवरी 2008
स्व-प्रबंधन ही मूलमंत्र है डाॅ. एच. के. चोपड़ा पिछले कुछ वर्षों के दौरान दुनिया भर में आर्थिक विकास पर खासा जोर दिया गया है। कई देशों ने स्वयं को वैश्विक तकनीकी और उत्पादन केंद्र के रूप में प्रस्तुत किया है। ऐसे में सभी आयु वर्ग के लोगों के लिए रोजगार और प्रशिक्षण की अपार संभावनाएं उभर कर सामने आई हैं। समाचार माध्यमों ने जैव तकनीकी फैशन, मीडिया आदि रोजगार के विभिन्न नए क्षेत्रों के प्रति लोगों में जागरूकता का संचार किया है। इन अवसरों को देखते हुए अपनी पहल पर नौकरी की तलाश कोई बुरा विचार नहीं है। कंपनियों और प्रतिष्ठानों से सीधे संपर्क के लिए आत्मविश्वास की बहुत जरूरत होती है। अक्सर कंपनियां उन लोगों के प्रति अनिच्छा जताती हैं जो कम से कम स्नातक न हों। किंतु, इससे डरने की कतई जरूरत नहीं है, क्योंकि यह किसी व्यक्ति का समग्र व्यक्तित्व होता है, ‘‘क्यों नहीं कर सकता’’ और ‘‘कभी नह कहो मर गया’’ की एक धारणा और उत्साह की एक सीमा, जो व्यक्ति को भीड़ में भी अलग रखते हैं। यदाकदा माता-पिता और रिश्ते नातेदार प्रेरणा के स्रोत हो सकते हैं - और श्रम बाजार में नेटवक्र्र के एक मजबूत व क्षमतावान स्रोत भी। युवाओं के लिए यह जरूरी है कि वे समय प्रबंधन के सहारे समय का भरपूर सदुपयोग करें। यह समय प्रबंधन गर्मी की छुट्टियों और त्योहारों के दौरान किया जा सकता है। यही वह समय है जब किसी व्यक्ति के मन में प्रतिस्पर्धा में आगे बढ़ जाने और जीवन निर्माण की दिशा में काम शुरू करने की ललक या जज्बा होना चाहिए। इस ललक के साथ किसी क्षेत्र विशेष में कदम बढ़ाना जरूरी है। कहते हैं, हजार कदम के सफर की शुरुआत एक अकेले कदम से होती है। किंतु, तब स्कूल के कामों को, पढ़ाई को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। परिवार की आय का एक बड़ा हिस्सा किशोरवय सदस्यों पर खर्च हो जाता है। ऐसे में ये किशोर अपने पर होने वाले खर्च के लिए श्रम बाजार में नौकरी कर धनार्जन कर सकते हैं। श्रम विभाग की हाल की एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 1996 से 98 के बीच 15 से 17 वर्ष आयु वर्ग के लगभग 30 लाख युवकों ने स्कूल के महीनों के दौरान, और लगभग 40 लाख ने गर्मी के महीनों के दौरान काम किया। स्व-प्रबंधन ही मूलमंत्र है। लेकिन इसके लिए आचार संहिता का पालन जरूरी है। सफलता, सुख, समृद्धि और अनुकूल स्वास्थ्य की प्राप्ति के लिए अच्छा आचरण आज के दैनिक जीवन की मांग है। पर्याप्त जीवनशैली प्रबंधन या तन मन का प्रबंधन आज उपलब्ध एकमात्र विधि है जो दैनिक जीवन में आचारजन्य मूल्यों का पोषण करने में हमारी सहायता कर सकती है। परिवेश हमारा विस्तृत शरीर है। हम माइक्रोकाॅज्म, जिसे आंतरिक और मैक्रोकाॅज्म, जिसे बाह्य परिवेश कहते हैं, के बीच परस्पर व्यवहार के प्रतिफल हैं। वेद में कहा गया है कि जो सूक्ष्म है वही ब्रह्मांड है, जो माइक्रोकाॅज्म है वही मैक्रोकाॅज्म है, जो सांसारिक मन है वही अंतरिक्षीय मन है, जो सांसारिक प्रेम है वही अंतरिक्षीय प्रेम है। हमारे शरीर में साठ खरब कोशिकाएं हैं और प्रकृति के नियमों के अनुसार साठ खरब रासायनिक प्रतिक्रियाएं हर पल होती हैं। इस तरह, यह सारा ब्रह्मांड अथवा बाह्य परिवेश एक अंतरिक्षीय कंप्यूटर की तरह है और ये कोशिकाएं इस कंप्यूटर के टर्मिनल के रूप में काम करती हैं। फिर संचालक कौन है? संचालक हमारा मन है। हमारा मन अंतरिक्षीय मन का और हमारी ऊर्जा अंतरिक्षीय ऊर्जा की प्रतिरूप है। नैतिक मूल्यों का सीधा प्रभाव हमारे साथ साथ समाज और हमारे देश के स्वास्थ्य पर पड़ता है। ब्रह्मांड का हर अंश हम में और हमारा हर अंश ब्रह्मांड में है। इस तरह, हम संपूर्ण ब्रह्मांड के और संपूर्ण ब्रह्मांड हमारा प्रतिरूप है। नैतिक मूल्यों सहित हमारे हर विचार, हमारे हर शब्द का प्रचुर सकारात्मक प्रभाव हमारे तंत्र पर पड़ता है। स्वामी चिन्मयानंद ने कहा था, जैसा हमारा विचार होगा वैसा ही हमारा मन भी होगा। जैसा मन होगा वैसा व्यक्ति होगा। मन के परिवर्तन से व्यक्ति के व्यक्तित्व में परिवर्तन आता है और नैतिक मूल्यों में परिवर्तन से विचारों में परिवर्तन आता है। हम अपने बच्चों को झूठ न बोलने की शिक्षा देते हैं और स्वयं झूठ बोलते हैं। हम अपने बच्चों को मदिरा और सिगरेट से परहेज करने की सलाह देते हैं और स्वयं पीते हैं। हमें नैतिक मूल्यों का प्रतिरूप होना चाहिए - न केवल अपने बच्चों के लिए बल्कि अपने परिवार और अंततः अपने समाज के लिए भी। नैतिक मूल्य हमारे अपने प्रत्यक्ष ज्ञान, हमारे विचारों, हमारे अनुभवों और हमारी रुचियों के प्रतिरूप हैं। इस तरह, नैतिक मूल्य संयोग का नहीं बल्कि रुचि का विषय है। रुचि किसकी? जाहिर है, हमारी और आपकी। हमारे अस्तित्व के तीन स्तर हैं - स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और कारण-शरीर। स्थूल शरीर दिक्काल की परिघटना है। यह जन्म लेता है, जीवित रहता है और फिर मर जाता है। इसके दो घटक होते हैं - पार्थिव और प्राण। हम में से बहुत से लोग ऊर्जावान होते हैं, तो वहीं दूसरी तरफ बहुत से आलसी भी। यदि हम रंग,रूप, शब्द, गंध और स्पर्श जैसे अपने संवेगी तत्वों से आवश्यक ऊर्जा ग्रहण करें, तो हम ऊर्जावान होंगे। हम यदि मोहक प्राकृतिक छटाओं, फूलों, पेड़ पौधों, फलों और वनस्पतियों, वनों, तारामंडल, चांद, आकाश आदि का अवलोकन करें तो वे सभी हम में ऊर्जा का संचार करेंगे। फलों, वनस्पतियों और फूलों में छिपे इंद्रधनुष के सात रंग हम में ऊर्जा का संचार और दैनिक जीवन में नैतिक मूल्यों को आत्मसात करने में हमारी सहायता कर सकते हैं। वहीं यदि हम खौफनाक फिल्में या हिंसात्मक दृश्य देखें तो हमारी ऊर्जा क्षीण होगी और हम में अनैतिक मूल्यों का संचार होगा। सूक्ष्म शरीर मन, बुद्धि और अहं का सम्मिश्रण है। मन विचारों, मनोवेगों, आवेगों, अनुभूतियों, रुचियों और अरुचियों का मिलाजुला रूप है। मन की तृषाएं असीम होती हैं, जिनकी पूर्ति असंभव है। बुद्धि विचारों, धारणाओं, विवेक शक्ति, सोचने की शक्ति, तर्कणा, गुण दोष विवेचन, निर्णय शक्ति आदि का संघटन है। बहुत से लोग केवल मन से काम लेते हैं, बगैर बुद्धि का सहारा लिए। वहीं बहुत से अन्य लोग बुद्धि से काम लेते हैं। ये दूसरी किस्म के लोग सोचते हैं, विवेचन करते हैं, निर्णय लेते हैं और फिर कोई कदम उठाते हैं। बुद्धि और नैतिक मूल्य सबल हों, तो मन, शरीर, परिवार, समाज और राष्ट्र मजबूत होते हैं। केवल मन से काम लेने वाले लोग आम तौर पर आवेशी और दुर्बल होते हैं, उनमें निर्णय शक्ति तथा आत्मसंयम की कमी होती है। उनमें नैतिक मूल्यों की कमी भी होती है और उनकी बुद्धि अविकसित रह जाती है। स्व-प्रबंधन से हमारी बुद्धि को बल मिलता है और वह बौराते मन को लगाम देने में सफल होती है। मन पर विवेक का नियंत्रण ही स्व-प्रबंधन है। यदि हमारा विवेक हमारे मन को दिशा दे तो हमें सफलता और समृद्धि मिलेगी, लेकिन यदि विवेक पर मन हावी हो तो हम में नैरास्य, निग्रह, दमन और विषाद की भावना पनपेगी और हम पतनोन्मुखी हो जाएंगे। मन पर नियंत्रण करने वाले विवेक से उत्पन्न नैतिक मूल्यों के स्तर से किसी व्यक्ति के आंतरिक चरित्र का पता चलता है। हमें अपने नैतिक मूल्यों से अपने विवेक को मजबूत करना चाहिए। मनुष्य का विवेक किसी नदी के कूलों किनारों की तरह काम करता है जबकि मन अपने आप में एक नदी है जिसमें मनोवेग, आवेश, उत्तेजना, रुचियां और अरुचियां, असीम इच्छाएं आदि बहते रहते हैं। यदि किनारा मजबूत हो तो नदी का बहाव नियंत्रण में रहेगा, और यदि कमजोर हो तो बहाव उसे तोड़कर बाहर निकल आएगा और नदी के दोनों तरफ की फसलों को बर्बाद कर देगा। मानव जाति को स्व-प्रबंधन के अनुरूप दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है -हठधर्मी और सहनशील। हठधर्मी के पुनः दो भेद किए जा सकते हैं -हठधर्मी नम्र और हठधर्मी आक्रमणशील। इसी तरह सहनशील के भी पुनः दो भेद किए जा सकते हैं - सहनशील नम्र और सहनशील उग्र। हठधर्मी लोग विवेक का उपयोग करते हैं। हठ अच्छा या बुरा हो सकता है। हठधर्मियों में जो सहनशील होते हैं वे निःस्वार्थी होते हैं। वे अनासक्त होते हैं, उनमें अहं नहीं होता, वे आत्मकेंद्रित नहीं होते, दूसरों की मदद करना उनका स्वभाव होता है। वे सभी के प्रिय होते हैं और उनमें सेवा तथा परोपकार की भावना भरी रहती है। इसके विपरीत उग्र लोग स्वार्थी, आसक्त, अहंकारी, लालची, आत्मकेंद्रित, अंतर्मुखी, उद्धत, प्रतिशोधी, हिंसक, असहिष्णु और ईष्र्यालु होते हैं। वे दूसरों की मदद नहीं करते और उनमें सेवा तथा परोपकार की भावना नहीं बल्कि घृणा और क्रोध की भावना भरी रहती है। हमारा आचरण कैसा हो? सुंदर जीवन के लिए प्रेम, करुणा, नम्रता, परोपकार, उदारता, सहानुभूति, समानुभूति, शांति, सौहार्द, सहभागिता, दयालुता, शिष्टता, सहयोग, आशावादिता और क्षमाशीलता आदि आवश्यक हैं। हम में बदले की भावना, अहंकार, हिंसा भाव, धर्मांधता, ईष्र्या आदि नहीं होने चाहिए। सहनशील लोग विवेक की बजाय मन से काम लेते हैं। वे आवेशी और मनोवेगी होते हैं। उनमें गुण दोष विवेचन के गुण की कमी होती है। हमें हमारे शरीर की हर कोशिका का नैतिक मूल्यों के साथ पोषण करना चाहिए ताकि हम हठधर्मी सहनशील हो सकें। चरित्र और चालचलन को ठीक रखना जरूरी है और यह तभी संभव है जब हम आचार संहिताओं का पालन करें। इसमें मन और बुद्धि की भूमिका अहम होती है जो आंतरिक व्यक्तित्व का सृजन करते हैं। यह आंतरिक व्यक्तित्व शरीर को कार्य करने के प्रति प्रेरित करता है। मजबूत विवेक जीवन के वेदांतिक दर्शन के पालन से संभव है। अच्छा चरित्र और चालचलन दोनों निम्नलिखित संहिताओं से प्राप्त किए जा सकते हैं। हमारा व्यवहार हर किसी के साथ प्रेमपूर्ण होना चाहिए। हमें अपने कर्तव्यों दायित्वों का निर्वाह निष्ठापूर्वक करना चाहिए। ध्यान रहे, जरूरी समर्पण है, फल की चिंता नहीं। हमें आत्मविश्वास, प्रबल इच्छाशक्ति और निर्भीकता के साथ, किसी को दोष दिए बगैर, अपना कर्तव्य करते रहना चाहिए। नेतृत्व गुण: हमारे नैतिक मूल्य जितने ऊंचे होंगे, उतनी ही उच्च कोटि का हममें नेतृत्व गुण होगा। नेता से तात्पर्य उस व्यक्ति से है जो बांटे नहीं बल्कि जोड़े। एक अच्छा नेता प्रेरणा देता है, गुमराह और हतोत्साह नहीं करता। ऐसे लोग कर्म में विश्वास रखते हैं, आलोचना में नहीं। वे जनमानस की सोच में परिवर्तन लाते हैं, उसे आंदोलित करते हैं। वे दूसरों को बदलने से पहले स्वयं को बदलने में विश्वास रखते हैं। उनकी सोच विस्तृत होती है। वे वर्तमान में जीते हैं, भविष्य की सोचते हैं और अतीत को ढोते नहीं। वे मानव कल्याण के लिए सतत अवसर खोजते रहते हैं। वे सहयोग, दृढ़ता और एकाग्रता में विश्वास रखते हैं। वे आशावादी होते हैं और आर्थिक उन्नति तथा मिलजुल कर कार्य करने में विश्वास रखते हैं। वे प्रेम, स्नेह और सहिष्णुता के साथ कार्य करते हैं। कार्य योजना: भगवान कृष्ण ने कहा था कि हमेशा सक्रिय रहो, कर्तव्य करते रहो। उन्होंने यह भी कहा था कि मनुष्य संन्यास अवस्था में रहते हुए भी सक्रिय रह सकता है। संन्यास का अर्थ है उच्च नैतिक मूल्यों को आत्मसात करना। जीवन में सफलता और आनंद चाहते हैं, तो अपने कार्यों की योजना बनाएं और अपनी योजना के अनुरूप कार्य करें। क्रियाशीलता, संस्कार और वासना का मिलाजुला रूप आत्मा का साॅफ्टवेयर है। हमें सही कार्य करने चाहिए। समृद्धि सही कार्य का प्रतिफल है। अनाचार से कैसे लड़ें: विश्व में अनाचार आदि काल से ही व्याप्त है। दैत्यों और देवों के उल्लेख से प्राचीन ग्रंथ भरे पड़े हैं। महाभारत में पांडवों को सद्गुणी और कौरवों को दुर्गुणी के रूप में चित्रित किया गया है। हमारे जीवन में सत्व का स्थान सर्वोच्च, रजस का न्यून और तमस का न्यूनतम होना चाहिए तभी हम अनाचार को अपने से दूर रख सकते हैं। गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है, प्रेम जीवन है और जीवन प्रेम है। प्रेम निर्मल शक्ति है। हमारे अंदर एक अदृश्य, अनश्वर तत्व है - सत, चित और आनंद। सत शाश्वत सत्य है, चित चेतना का प्रतिरूप है जिसे किसी का भय नहीं होता और जिस पर समस्त ब्रह्मांड टिका होता है, और आनंद परम सुख है जो जीवन का लक्ष्य है। इन तीनों की अनुभूति हमें ध्यान के अभ्यास से होती है और इसके लिए नैतिक मूल्य जरूरी है। काम, क्रोध, लोभ, अहं और आसक्ति नर्क के पांच द्वार हैं। हमें इनसे बचना चाहिए। तात्पर्य यह कि विचारशक्ति मजबूत हो तो किसी संगठन का, किसी समाज का, किसी राष्ट्र का और यहां तक कि समस्त विश्व का प्रबंधन किया जा सकता है। इस तरह ऊपर वर्णित तथ्यों का पालन करते हुए स्व-प्रबंधन कर कोई युवा अपने जीवन को संवार सकता है और अपने परिवार, समाज, देश और अंततः समस्त विश्व की सेवा कर सकता है।



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