शनि ग्रह एवं हनुमान डाॅ. सुलतान फैज ‘टीपू’ संस्कृति में अर्कपुत्र, सौरि, भास्करि, यम, आर्कि, छाया सुत, नील, आसित, तरणितनय, कोण, फारसी व अरबी में जुदुल, केदवान, हुहल तथा अंग्रेजी में सैटर्न आदि नामों से पुकारा जाने वाला शनि ग्रह सौरमंडल में सूर्य की परिक्रमा करने वाला छठा ग्रह है। यह सौरमंडल का सबसे सुंदर ग्रह है। वेदों तथा पुराणों के अनुसार यह सूर्य की दूसरी पत्नी छाया का पुत्र है, और इसका वर्ण श्यामल है। उसके इसी श्याम वर्ण को देखकर सूर्य ने उसे अपना पुत्र मानने से इनकार कर दिया। अपने प्रति पिता के इस व्यवहार को देखकर शनि की भावनाओं को ठेस लगी जिसके परिणामस्वरूप वह अपने पिता सूर्य से शत्रुभाव रखने लगा। रामायण से विदित होता है कि लंकापति रावण के सभी भ्राता व पुत्रों की जब युद्ध में मृत्यु हो रही थी तभी अपने अमरत्व के लिए उसने सौरमंडल के सभी ग्रहों को अपने दरबार में कैदकर लिया। रावण की कुंडली में शनि ही एक मात्र ऐसा ग्रह था जिसकी वक्रावस्था व योगों के कारण रावण के लिए मार्केश की स्थिति उत्पन्न हो रही थी, जिसे परिवर्तित करने के लिए रावण ने अपने दरबार में शनि को उलटा लटका दिया व घोर यातनाएं दीं। परंतु शनि के व्यवहारों में कोई बदलाव नहीं आया और वह कष्ट सहता रहा। तभी विभीषण से सूचना पाकर श्री हनुमान वहां पहुंचे और शनि को रावण की कैद से मुक्त कराया। इसी उपकार के बदले शनि ने हनुमान को वरदान दिया कि ‘जो भी आपकी आराधना करेगा, ह म उसकी सर्वदा रक्षा करेंगे।’ शनि का खगोलीय स्वरूप: सौरमंडल में आकार की दृष्टि से गुरु के बाद शनि का दूसरा स्थान है, जिसका व्यास 1,20,500 कि.मी. है, जो सूर्य से 1,42,60,000 कि.मी. दूर है। इसका वर्ण नीला तथा इसकी गति काफी मंद है। इसीलिए इसे सूर्य की एक परिक्रमा पूरी करने में 29 वर्ष व 5 महीने लग जाते हैं। अपने अक्ष पर घूर्णन करने में इसे 10 घंटे 40 मिनट लग जाते हैं तथा एक राशि में यह 30 माह तक रहता है। इसका पृथ्वी से गुरुत्व 65 गुणा अधिक है। शास्त्रों के अनुसार इसके उपग्रहों की संख्या 9 है जो इसके चारों और परिक्रमा करते हैं जिसमें छठे उपग्रह चंद्रमंदी को सबसे बड़ा माना गया है। परंतु राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान के अनुसार उसके उपग्रहों की संख्या 30 से अधिक है। शनि की राशि व स्वामित्व: वायु तत्व प्रधान शनि मकर व कुंभ राशियों का स्वामी है, परंतु कुंभ राशि में यह मूल त्रिकोणी तथा शेष में स्वगृही होता है। तुला राशि में यह उच्च का माना जाता है जिसमें 20 डिग्री तक इसकी स्थिति परम उच्च की हो जाती है। परंतु मेष में यह नीच का होता है जिसमें इस राशि के 20 डिग्री तक इसकी स्थिति परम नीच की होती है। विंशोŸारी महादशा में इसका काल 16 वर्षों का तथा अष्टोŸारी में 10 वर्षों का माना गया है। जन्मांक चक्र में यह जिस भाव में बैठता है उस स्थान से तृतीय व दशम भाव को एक पाद दृष्टि से, पंचम व नवम भाव को द्विपाद दृष्टि से तथा तृतीय, सप्तम व दशम भाव को पूर्ण दृष्टि से देखता है। बुध व शुक्र इसके मित्र हैं, सूर्य, चंद्र व मंगल से इसकी शत्रुता है तथा गुरु से यह समभाव रखता है। इसका रत्न नीलम, धातु लोहा और प्रिय रंग नीला व काला हैं। इसे कालपुरुष के घुटनों का स्वामी माना जाता है। अंक ज्योतिष के अनुसार शनि अंक 8 का और हस्तरेखा शास्त्र के अनुसार मध्यमा का प्रतिनिधि है। शनि प्रभावित जातक: जिस जातक के जन्मांक चक्र में शनि अनुकूल अवस्था में हो वह श्माम वर्ण, लंबे कद, न्यायप्रिय, त्यागी, सभ्य, प्रभावशाली तथा प्रबल स्मरण शक्ति वाला होता है। यदि शनि उच्च राशि में हो तो जातक क्षेत्रपति, जमीन-जायदाद का स्वामी, मूल त्रिकोण में हो तो सुगठित शरीर का स्वामी, साहसी व सिद्धांतवादी तथा मित्र ग्रह से युत या दृष्ट हो तो धनी, स्नेहशील, परोपकारी व उदार प्रवृत्ति का होता है। शनि की उक्त स्थितियों से प्रभावित जातकों की नौकरी की अपेक्षा स्वतंत्र व्यवसाय में रुचि अधिक होती है। वे किसी के अधीन या एक स्थान पर अधिक दिनों तक कार्य नहीं कर सकता। वस्तुतः उनमें गणितज्ञ, वैज्ञानिक, राजनीतिज्ञ, संगीतज्ञ, लेखक, मनोवैज्ञानिक, ज्योतिषी, प्रकाशक आदि के गुण पर्याप्त होते हैं। परंतु जिस जातक की कुंडली या जन्मांक चक्र में शनि नीच राशि का हो वह चिंताग्रस्त, निर्धन और कष्टपीड़ित होता है, और नीच कर्म में लिप्त रहता है। यदि शनि वक्री, शत्रु राशिस्थ या दूषित भाव में हो तो जातक एकाकी, निष्ठुर, कटुभाषी, नास्तिक व स्वार्थी होता है और वह अधिकतर घर से दूर रहता है। शनि के कारक व अकारक गुण: शनि सांसारिक सफलताओं, लाॅटरी के माध्यम से धन की प्राप्ति तथा भाग्योदय का कारक ग्रह है। व्यक्ति की आयु, मोक्ष, कामना, ऐश्वर्य, जीविका, व्यवहार आदि का विश्लेषण शनि की स्थिति के आधार पर किया जाता है। वृष व तुला लग्नों के लिए तो शनि राजस योग का कार्य करता है। परंतु शनि के ये कारक फल जातक को उस समय तक मिलते रहते हैं जब तक उसकी स्थिति अनुकूल रहती है। यदि यह स्थिति प्रतिकूल हो जाए तो शनि अकारक का कार्य करने लगता है। परिणामस्वरूप, व्यथा, रोग, क्लेश तथा धन हानि जैसे कष्ट उत्पन्न होते हैं, क्योंकि दुख के कारक के रूप में शनि की विशेष पहचान है। शनि दुस्साहसी, हठी, व अपंगु ग्रह है इसलिए यदि यह अचानक लात भी मार दे तो इसका पता नहीं चलता। यद्यपि यह छठे, आठवें व बारहवें भावों का कारक ग्रह है, परंतु यदि यह उस स्थान पर निर्बल हो तो इन भावों से संबंध रखने वाले असाध्य वात व दीर्घकालिक व्याधियां जातक को होने लगते हैं। शनि कर्क व धनु लग्न के लिए मारक तथा सिंह लग्न के लिए मुख्य मारक ग्रह का कार्य करता है। श्री हनुमान के भक्तों के लिए शनि शुभ फलदायक श्री हनुमान ने शनि को कष्टों से मुक्त कराकर उसकी रक्षा की इसीलिए वह भी श्री हनुमान की उपासना करने वालों के कष्टों को दूर कर उनके हितों की रक्षा करता है। शनि से उत्पन्न कष्टों के निवारण हेतु श्री हनुमान को अधिक से अधिक प्रसन्न किया जाए। इससे न केवल शनि से उत्पन्न दोषों का निवारण होता है, बल्कि सूर्य व मंगल के साथ शनि की शत्रुता व योगों के कारण उत्पन्न सारे कष्ट भी दूर हो जाते हैं। श्री हनुमान को प्रसन्न करने की विधियां इस प्रकार हैं- प्रत्येक मंगलवार को प्रातः सूर्योदय के समय स्नान के पश्चात् श्री हनुमते नमः मंत्र का जप करें। प्रत्येक मंगल को प्रातः तांबे के लोटे में जल व सिंदूर मिश्रित कर श्री हनुमान को अर्पित करें। लाल धागे में सिद्ध श्री हनुमान यंत्र धारण करें तथा प्रत्येक मंगलवार को इसकी प्राण प्रतिष्ठा करें। शुक्ल पक्ष के पहले मंगलवार से प्रारंभ कर लगातार 10 मंगलवार तक श्री हनुमान को गुड़ का भोग लगाएं। प्रत्ये मंगल को चमेली के तेल में सिंदूर मिश्रित कर श्री हनुमान को अर्पित करें। शुक्ल पक्ष के पहले मंगलवार से प्रारंभ कर नित्य प्रत्येक मंगलवार को प्रातः श्री हनुमान चालीसा का पाठ करें। चित्रा व मृगशिरा नक्षत्रों में किसी भी मंगलवार से प्रारंभ कर लगातार 10 मंगलवार तक श्री हनुमान के मंदिर में जाकर केले का प्रसाद चढ़ाएं। शुक्ल पक्ष के पहले मंगलवार को लाल कपड़े में बंधा लंगोट श्री हनुमान मंदिर के पुजारी को दान करें।