मरे में भी जान फूंक देता है। प्राणायाम
मरे में भी जान फूंक देता है।  प्राणायाम

मरे में भी जान फूंक देता है। प्राणायाम  

व्यूस : 6297 | जनवरी 2008
मरे में भी जान फंूक देता है प्राणायाम कृष्ण चंद्र झा मानव जीवन प्राण पर ही निर्भर है। प्राणायाम में लंबी गहरी सांस लेने व छोड़ने से पैर के नख से सिर की चोटी तक सभी अंग-प्रत्यंग प्रभावित होते हैं, सक्रिय होते हैं। प्राणायाम के नियमित अभ्यास से शरीर को पर्याप्त मात्रा में आॅक्सीजन प्राप्त होता है जिससे रक्त को शुद्ध करने में हृदय तथा फेफड़े को सहायता मिलती है। अर्थात प्राणायाम से रक्त की शुद्धि पर्याप्त मात्रा में होती है। हृदय शुद्ध रक्त का धमनियों द्वारा शरीर के प्रत्येक अंग में संचार करता है और शिराओं द्वारा विजातीय (दूषित) द्रव को शुद्ध करने के लिए पुनः फेफड़ों में भेजता है। लंबे गहरे प्रश्वास (सांस छोड़ने) से पर्याप्त मात्रा में कार्बन डाइओक्साइड बाहर निकलती है। नासिका मार्ग, फेफड़े, नस-नाड़ियां सभी शुद्ध, स्वच्छ हो जाते हैं। फेफड़ों में सांस के लिए जगह अधिक बनती है जिससे सांस की गति लंबी व धीमी हो जाती है। लंबी व धीमी सांस स्वस्थ एवं शांत व्यक्ति की पहचान है। साधरणतया स्वस्थ लोग एक मिनट में पंद्रह सांस लेते व छोड़ते हैं। इसी अनुपात से किसी के स्वस्थ या अस्वस्थ होने का निर्णय किया जा सकता है। कोई भी व्यक्ति पंद्रह से जितनी कम सांसें लेगा व छोड़ेगा उतना ही स्वस्थ व शांत रहेगा। हमारी आयु भी सांसों पर ही निर्भर है। प्रत्येक व्यक्ति को सौ करोड़ सांसों की आयु प्राप्त है। प्रत्येक मनुष्य एक मिनट में पंद्रह श्वास लेता व छोड़ता है। अर्थात पंद्रह श्वास खर्च करता है। प्राणायाम से श्वास की गति जब लंबी व धीमी हो जाती है तब एक मिनट में इसकी संख्या पंद्रह से घटकर दस हो जाती है और पांच सांसों की बचत हो जाती है। इस प्रकार प्रतिदिन 7,200, प्रति मास 2,16000 और प्रति वर्ष 25,92,000 सांसों की बचत होती है जो चार मास के बराबर होती है। अतः एक वर्ष में चार महीने आयु की वृद्धि हो जाती है। कहने का अभिप्राय यह कि प्रत्येक मनुष्य को ईश्वर की ओर से सीमित संास मिली हुई है। किसी को लाख सांस, किसी को करोड़, किसी को दस करोड़ और किसी को सौ करोड़। सौ करोड़ पूर्णायु है। अपनी धन सम्पत्ति की तरह जो व्यक्ति जितने अधिक श्वास खर्च करता है उसकी आयु उतनी ही छोटी होती है और जो जितने ही कम खर्च करता है उसकी आयु उतनी ही लंबी होती है। इसी कारण योगी अपने योग बल से जब तक चाहें जीते हैं। एक बात ध्यान रखने योग्य है। ईष्र्या, द्वेष, क्रोध, भय, शोक, रोगादि से श्वास की गति (खर्च) बढ़ जाती है और पूजा पाठ, जप, तप, योग, ध्यान, प्राणायाम, नम्रता, सुशीलता, सहजता, सरलता, प्रेम, दया, करुणा, भजन कीर्तन, सुमिरन और शांति से श्वास की गति लंबी व धीमी होती है जिससे शरीर स्वस्थ और मन शांत रहता है। यह तो हुआ स्थूल शरीर का स्थूल लाभ अब सूक्ष्म शरीर का सूक्ष्मतम लाभ देखें। रोग कैसे होता है? इसकी जड़ कहां है? आइए इस पर भी सूक्ष्मता से विचार करते हैं। पातंजल योग दर्शन में महर्षि पतंजलि कहते हैं। अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः क्लेशाः। सुखानुशयी रागः। दुखानुशयी द्वेषः। साधनपद ।। 3 ।। 7 ।। 8 ।। अविद्या, स्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश ये पांच क्लेश हैं, इन्हीं क्लेशों से रोग होता है। ये सभी योग साधना के मार्ग में बहुत बड़े बाधक हैं। राग और द्वेष दोनों ही दुखी करते हैं। इस दुख की, इस रोग की जड़ कहां है? ये कैसे पनपते हैं? रामचरितमानस में कहा गया है कि ये सभी मानस रोग हैं। इनकी जड़ मन (चित्त) में है। इस तरह सभी रोगों की जड़ है मन। मन में ही रोग छिपे रहते हैं। इन रोगों के नाम हैं- इष्र्या, द्वेष, क्रोध, मोह, अहंकार आदि। इन्हंे कहते हैं मानस रोग। वात, पित्त, कफ त्रिधातु हैं। ये तीनों धातु जब सम रहते हैं तो स्थूल शरीर स्वस्थ रहता है। जब इनका संतुलन बिगड़ता है तो शरीर का संतुलन बिगड़ जाता है और तरह-तरह के रोग उत्पन्न होते हैं। अब सूक्ष्म शरीर का रोग अर्थात मानस रोग क्या है? काम वात है, अपार लोभ कफ है और क्रोध पित्त है जो छाती को जलाता रहता है। पित्त की वृद्धि होने से क्रोध बढ़ता है। क्रोध अग्नि है और पित्त भी आग है। क्रोधाग्नि से शरीर जलने लगता है, खून सूखने लगता है। छाती में जलन, पेट में गैस, सिर में दर्द होने लगता है। ईष्र्या क्या है? जलन क्या है? ये सब आग हैं, इनसे जलन उत्पन्न होती है जिसमें लोग जिंदा ही जलते रहते हैं। यह जलन शरीर को अंदर से खोखला कर देती है। क्रोध के समय अगर भोजन किया जाए तो उस भोजन से पाचक रस नहीं बनता। इस तरह चिंता, क्रोध और भय से अपच हो जाता है। अपच भोजन बड़ी आंत में मल के रूप में सड़ता रहता है। इस सड़न को कब्ज कहते हैं। इस सड़न से जो गैस निकलती है उसे गैस्ट्रिक कहते हैं। यही गैस पूरे शरीर में फैलकर तरह-तरह के रोग उत्पन्न करती है। इस क्रोध का घर है मन। मन में ही ईष्र्या, द्वेष, क्रोध, लोभ आदि रोग का बीज पनपता है जो शरीर में गैस्ट्रिक रक्तचाप, शूगर आदि रूप में उत्पन्न करता है। जब तक मन के भीतर का रोग समाप्त न हो जाए तब तक शरीर स्वस्थ नहीं हो सकता। दवा तथा उपचार से रोग दब तो जाते हैं लेकिन जड़ से खत्म नहीं होते। जब तक मन के अंदर की सड़न समाप्त न हो जाए तब तक उस सड़न की दुर्गंध शरीर में फैलेगी ही। इस सड़न को जड़ से खत्म करता है प्राणायाम। प्राणायाम में लंबा गहरा श्वास शरीर के अंग-प्रत्यंग में ही प्रवेश नहीं करता, चित्त को भी छूता है, उसके दुर्गुणों को भी दूर करता है। योगश्चित्तवृत्तिनिरोध प्रणायाम से चित्त की वृत्तियों का निरोध अपने आप हो जाता है। चित्त की शुद्धि होने पर उसमें चैतन्य महाप्रभु का पदार्पण होता है, आत्मा परमात्मा का मिलन होता है। चैरासी लाख योनियों के चक्कर से मुक्ति मिल जाती है जो मानव का चरम लक्ष्य है। इस तरह लक्ष्य को प्राप्त कर योगी का जीवन सुखमय हो जाता है।



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