भारतवर्ष पर्वों का देश है। इसके विभिन्न भागों मं विभिन्न प्रकार के पर्व अलग-अलग ढंग से मनाये जाते हैं। इससे जीवन में स्फूर्ति और आस्था का संचार होता है तो मन और शरीर की पवित्रता का अभ्यास भी होता है। भगवान भास्कर प्रत्येक चराचर के लिए जीवनी शक्ति के कंद्र हैं। सूर्य ही हमें शरीर सुख प्रदान करते हैं। ज्योतिष में सूर्य आत्मा का कारक भी है। इसी भगवान सूर्य की उपासना का पर्व पवित्र छठ पर्व या डाला छठ का पर्व है। यह देश के अन्य हिस्सों में भी न्यूनाधिक रूप से मनाया जाता है परंतु बिहार, झारखंड, पूर्वी, उरप्रदेश में यह पर्व बड़े स्तर पर और बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता है। यह इन क्षेत्रों का एक लोकप्रिय पर्व है। इस बार छठ पर्व क्षयवती षष्ठी तिथि 8 नवंबर शुक्रवार को संध्या समय अस्ताचल सूर्य को अघ्र्य दिया जायेगा और रात्रि पश्चात् शनिवार 9 नवंबर को उदयमान सूर्य को प्रातः का अघ्र्य देकर पर्व की समाप्ति की जायेगी। यद्यपि यह पर्व मात्र दो दिनों का लगता है परंतु पर्व का वास्तविक प्रारंभ अस्ताचल सूर्य के अघ्र्य से दो दिन पहले ही हो जाता है। कार्तिक शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि को ‘‘नहाय-खाय’’ के साथ पर्व का प्रारंभ हो जाता है। यह पर्व सामान्यतः महिलाओं द्वारा किया जाता है। परिवार की महिला जो पर्व करती है उस ‘‘नहाय खाय’’ के दिन बर्तनों को शुद्धता से धो-मांजकर स्नानादि के बाद अपना भोजन बनाती है। इसमें उस दिन कद्दू और भात खाने का विशेष महत्व है। फिर अगले दिन अर्थात् कार्तिक शुक्ल पक्ष पंचमी को ‘‘खरना’’ का दिन होता है। इस पर्व में मनसा, वाचा, कर्मणा से पवित्रता का बड़ा महत्व है। खरना के दिन खीर, पूड़ी बनाई जाती हैं। संध्या समय खीर, पूड़ी, मिष्टान्न्ा और केला को अपने घर में गोसाईं (कुल देवता) के आगे रखकर फिर दीप जलाकर मन से परिवार के कल्याण की कामना की जाती है। घर के दूसरे लोग भी हाथ-पैर धोकर उस स्थान पर जाकर प्रणाम करते हैं। फिर परिवार के लोग उस सामग्री को प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं। इस दिन अपने इष्ट-मित्र एवं संबंधी को भी खरना का प्रसाद खाने के लिए अपने यहां आमंत्रित करते हैं। पर्व से पहले ही गेहूं को चुन-बिछकर और धोकर सुखा लिया जाता है। इसे पवित्रतापूर्वक जांता (आटा पीसने की घरेलू चक्की) में पीस लिया जाता है। परंतु आध्निकता के कारण जांता का प्रचलन कम हो गया है। अतः लोग आटा मील से भी गेहूं को पिसवा लेते हैं। परंतु छठ पर्व का गेहूं पीसने के लिए कई आटामील भी खरना के दिन अपने आटामील को धोकर, साफ-सुथरा कर सिर्फ पर्व का गेहूं ही पीसते हैं। ऐसे आटामील में ही पर्व का गेहूं लोग ले जाते हैं। यह पर्व नदी के घाटों, तालाबों के किनारे या फिर आजकल लोग अपने आंगन, घरों की छत पर भी कर लेते हैं। संध्या समय सूर्य को अघ्र्य देने के लिए ठेकुआ, खजूर, पीरुकिया बनाये जाते हैं। साथ ही नारियल, ईख, अलुआ, सुथनी एवं अन्य मौसमी फल भी अघ्र्य के सूप में रखे जाते हैं। सूप के स्थान पर लोग पीतल, तांबे की थाली/सूप भी रखते हैं। पूजा के लिए आरती का पात, धूप, दीप और बद्धी (गले में पहनने के लिए बना हुआ रंगीन धागा) आदि का भी प्रबंध रहता है। सूप की संख्या एकाधिक होती है। इसका नियम यह है कि परिवार के जिन-जिन सदस्य के लिए मनोकामना माना जाता है उसके हिसाब से सूपों की संख्या होती है। एक बार पर्व शुरू करने पर प्रत्येक वर्ष करने की परंपरा है। जिसके लिए सूप लगाया जाता है अगर उसका देहांत हो गया हो तो फिर एक सूप कम कर दिया जाता है। पर्व करने वाली महिला पूरे षष्ठी तिथि से पवित्रतापूर्वक निराहार रहती है और वह प्रातः उदयमान सूर्य को अघ्र्य प्रदान करने के बाद ही अन्न-जल ग्रहण करती है। इस पर्व में समाज का सहयोग और उत्साह देखते ही बनता है। लोग स्वेच्छा से सड़कों को साफ करते दिखाई देते हैं। नदियों, तालाबों से लेकर रास्ते को भी सजाया जाता है। प्रकाश की व्यवस्था की जाती है। हर कोई पर्व करने वालों को सहयोग करने के लिए आतुर दिखाई देते हैं। समाज के लोग अपने-अपने ढंग से एक-दूसरे का सहयोग करते हैं। नदियों और तालाबों के घाटों को साफ करने में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं। शहरों में स्थानीय निकाय की भी भागीदारी रहती है। इस पर्व में अनेक लोग निर्धन लोगों को पर्व करने के लिए कपड़ा, फल आदि का दान भी करते हैं। पूरा वातावरण पर्वमय हो जाता है। शराबी और कबाबी भी उस दिन नजर नहीं आते। ऐसा प्रतीत होता है मानो भगवान भास्कर अपनी सात्विकता से समाज को ओत-प्रोत कर रहे हों।