अभिजित: एक उत्तम मुहूत जातक एवं मुहूर्त ग्रंथों में अधिकांश स्थानों पर 27 नक्षत्रों की गणना की व्यवस्था निर्देशित है। ‘अभिजित्’ नामक एक अतिरिक्त नक्षत्र को इस व्यवस्था में सम्मिलित कर के नक्षत्रों की संख्या 28 भी स्वीकार की गई है। 27 नक्षत्रों वाली व्यवस्था ‘निराभिजित’ और 28 नक्षत्रों वाली व्यवस्था को ‘साभिजित’ व्यवस्था के रूप में जाना जाता है। साभिजित नक्षत्र व्यवस्था का उपयोग पंच या सप्त शलाका वेध, अवकहड़ा चक्र और वृष वास्तु चक्रादि कुछ नियत उद्देश्यों के साधन मात्र में किया जाता है। अन्य जातक कार्यों का निष्पादन निराभिजित व्यवस्था द्वारा किया जाता है। यजुर्वेद के अनुसार 27 नक्षत्रों को गंधर्व कहा गया है। स्कंद पुराण में 27 नक्षत्रों को चंद्र की पत्नियां बताया गया है। अथर्व वेद के 19वें कांड के 7वें सूक्त में अश्विनी, भरणी आदि क्रम से 28 नक्षत्रों के नाम दिए गए हैं। राशि चक्र में अभिजित की स्थिति: अभिजित नक्षत्र यद्यपि अधिक कांतिवान है, किंतु अन्य नक्षत्रों की तुलना में क्रांतिवृत्त से दूर, अर्थात 61043’59’’ उत्तर तथा विषुवत रेखा से 38046’51’’ उत्तर स्थित है। ध्रुव वृत्त के निकटस्थ होने के कारण इसकी स्थिति अविचल न हो कर, परिवर्तनशील है। इस तरह उपयोगिता की दृष्टि से अभिजित नक्षत्र की मान्यता रद्द कर दी गई। शेष 27 नक्षत्रों का विभिन्न 12 राशियों में समायोजन का सिद्धांत प्रचलित रहा। अतः ऊषा तथा श्रवण नामक नक्षत्रों के युगल विस्तार (26040’) में, अभिजित सहित, 3 नक्षत्र समायोजित किए गए हैं, जहां विस्तार की दृष्टि से प्रस्तुत तीनों नक्षत्रों का कोणात्मक मान परस्पर असमान होगा। किंतु राशि चक्र में शेष बचे 25 नक्षत्रों का अंशात्मक मान समान (अर्थात 13020’) ही रहेगा। अभिजित नक्षत्र उत्तराषाढ़ के चतुर्थ चरण एवं श्रवण की प्रथम 4 घड़ियों के सम्मिलित समय को माना जाता है। नक्षत्रों के योग के विभिन्न विस्तार अब प्रचलन में नहीं हैं। 27 नक्षत्रों में से प्रत्येक का मान 800 कला निश्चित कर दिया गया है। परंतु इस परिवर्तन से अभिजित नक्षत्र के भोग में कोई विशेष अंतर नहीं पड़ता। वह लगभग 253 कला 52 विकला के आसपास रहता है। अभिजित नक्षत्र का अंशात्मक विस्तार 20ग800ग3ग200 60 = 276 अंश 40 कला से प्रारंभ हो कर श्रवण की प्रथम 4 घडियों के अंशात्मक मान के अनुसार 280 अंश 53 कला तक है। सूर्य सिद्धांत के अनुसार अभिजित के योग तारा का भोग पूर्वाषाढ़ के अंत में है। अभिजित नक्षत्र मार्गशीर्ष मास में उत्तर-पश्चिम में क्षितिज के पास दिखाई देता है। इस नक्षत्र के 3 तारे हैं। जातक एवं मुहूर्त ग्रंथों में जहां निराभिजित गणना के प्रयोग का निर्देश है, उत्तराषाढ़ा श्रवण के चरणों का जहां साभिजित् गणना के उपयोग का निर्देश है, वहां उत्तराषाढ़ा अभिजित एवं श्रवण के चरणों का निर्धारण यहां दी गई तालिका के अनुसार करना आवश्यक है। जैसे, जातक के नाम के आदि अक्षर के निर्धारण के लिए अवकहड़ा चक्र का उपयोग साभिजित नक्षत्र गणनानुसार करने का निर्देश है। अतः जन्मकालिक चंद्र के भोगांशों (राश्यादि) के अनुसार जातक के नक्षत्र चरण का निर्धारण तालिका के अनुसार करें। अभिजित काल एवं मुहूर्त नारद मुनि के अनुसार दिन में 15 मुहूर्त होते हैं। इन्हीं मुहूर्तों को स्वामी तिथ्यांश भी कहा जाता है। ये दिनमान के 15वें भाग के समान होते हैं और इन्हें नक्षत्रों का भाग समझा जाता है। दिवामुहूत्र्ता रुद्राहिमित्राः पितृ वसूद कम। विश्वे विधातृ ब्रह्मेंद्रा इंद्राग्न्य सुरतोयपाः अर्यमा भग सज्ञंश्च विज्ञेया दश पच्च च।। दिन के पहले मुहूर्त के स्वामी गिरीश (आद्र्रा), दूसरे के सर्प (अश्लेषा), तीसरे के मित्र (अनुराधा), चैथे के पितृगण (मघा), पांचवें के वसु (धनिष्ठा), छठे के जल (पूर्वाषाढा़), सातवें के विश्वदेव (उत्तराषाढा़), आठवें के ब्रह्मा (अभिजित), नौवें के विधाता (रोहिणी), दसवें के इंद्र (ज्येष्ठा), ग्यारहवें के इंद्राग्नि (विशाखा), बारहवें के निऋति (मूल), तेरहवें के वरुण (शतभिषा), चैदहवें के अर्यमा (उत्तराफाल्गुनी) तथा पंद्रहवें मुहूर्त के स्वामी भग (पूर्वाफाल्गुनी) होते हैं। रात्रि के 15 मुहूर्त इस प्रकार हैं: पहले मुहूर्त के स्वामी (आद्र्रा), दूसरे के अजपाद (पूर्वाभाद्रपद), तीसरे के अर्हिबुध्न्य (उत्तराभाद्रपद), चतुर्थ के पूषा (रेवती), पांचवें के अश्विनी कुमार (अश्विनी), छठे के यम (भरणी), सातवें के अग्नि (कृत्तिका), आठवें के ब्रह्मा (रोहिणी), नौवें के चंद्र (मृगशिरा), दसवें के अदिति (पुनर्वसु), ग्यारहवें के जीव (पुष्य), बारहवें के विष्णु (श्रवण), तेरहवें के अर्क (हस्त), चैदहवें के त्वाष्ट्र (चित्रा) तथा पंद्रहवें के मरुत (स्वाति) हैं। ‘सर्वेषां वर्णानामभिजित्संज्ञको मुहूत्र्तस्यात् अष्टमो दिवसस्र्योर्द्ध त्वभिजित्संज्ञकः क्षणः।।’ अभिजित मुहूर्त शुभ कार्यों के लिए श्रेष्ठ है। यह मध्याह्न में अष्टम मुहूर्त होता है। यह मुहूर्त ब्रह्मा के वरदान से सर्वसिद्धिकारक है, किंतु दक्षिण दिशा की यात्रा के लिए वर्जित है। कुछ शास्त्र मध्याह्न के अतिरिक्त मध्य रात्रि (निशीथ) समय में भी अभिजित मुहूर्त मानते हैं। ‘कालं हित्वा सर्वदेशे लग्ने शस्तोऽभिजित्क्षणः अम्भोधि मथनोत्पन्नां प्राप्तोऽत्र कमलां हरि।।’’ जहां कोई शुभ लग्न-मुहूर्त न मिलता हो, वहां सभी कार्य अभिजित मुहूर्त में किए जा सकते हैं। शिव के त्रिशूल एवं विष्णु के चक्र की शक्ति अभिजित में समाहित है। भगवान श्री राम का जन्म अभिजित मुहूर्त में हुआ था। आधुनिक काल में यद्यपि अभिजित नक्षत्र का अभिजित मुहूर्त से कोई संबंध दृष्टिगोचर नहीं होता, तथापि प्राचीन ज्योतिषीय इतिहास इनके मध्य संबंध का प्रबल प्रमाण है। लगभग 1600 ईस्वी पूर्व सूर्य के धनिष्ठा नक्षत्र में प्रवेश के समय वर्षारंभ माना जाता था। किंतु अयनांश के गति चलन के कारण ईस्वी पूर्व 12वीं शताब्दी में सूर्य जब अभिजित नामक एकल तारे (नक्षत्र) में आने लगा, तब वर्षारंभ पर्व को मनाए जाने का प्रचलन हुआ। इस दिन प्राचीन आर्य लोग विशेष उत्सवादि मनाते थे। अतः यह नक्षत्र सभी कार्यों में श्रेष्ठ माना जाने लगा। वर्ष के 365 दिनों में से 360 दिन का वर्ष मान कर शेष 5 दिन पर्यंत विभिन्न उत्सव एवं धार्मिक कृत्य मनाए जाते थे। फलस्वरूप अभिजित को विशेष मुहूर्त माना जाने लगा। वर्तमान में देश के कुछ प्रांतों, विशेष कर राजस्थान एवं गुजरात, में अभिजित का अधिक उल्लेख किया जाता है। सूर्य की लग्न से दशम भाव में स्थिति भी अभिजित मुहूर्त या अभिजित काल है। सूर्य से चतुर्थ भाव में लग्न, अथवा लग्न से दसवें भाव में सूर्य के अनुसार अभिजित लग्न की अवधि 248 पलों की होती है। गणितागत प्रमाण से यह अवधि लगभग 1 घंटे 40 मिनट की होगी। जब मुंडन, अक्षरारंभ, विवाह आदि संस्कारों के लिए मुहूर्तों में शुद्ध लग्न न मिल रहा हो, तब अभिजित मुहूर्त अपनाना चाहिए। इस मुहूर्त में विवाह सफल होते हैं एवं पुत्र-पौत्र की वृद्धि होती है। सिख धर्म में अभिजित काल को अत्यधिक महत्व दिया जाता है। विवाह आदि अनेक शुभ कार्य अभिजित काल में ही संपन्न किए जाते हैं। अभिजित नक्षत्र का फल: अतिसुललितकांतिः सम्मतः सज्जनानां ननु भवति विनीतश्चारूर्कीतिः सुरूपः। अभिजित नक्षत्र में जन्मा जातक सुंदर स्वरूप वाला, साधुओं का प्रिय, विनीत, यशस्वी, विप्र और देवताओं का भक्त, स्पष्टवक्ता, कुल में श्रेष्ठ और नृप तुल्य होता है। अभिजित नक्षत्र ही नहीं, अभिजित मुहूर्त में भी जन्म लेने वाला जातक कुल शिरोमणि होता है। रामचरितमानस के बाल कांड के दोहे में भगवान राम के जन्म का विवरण इस प्रकार मिलता है। नवमी तिथि मधु मास पुनीता। सुकलपच्छ अभिजित हरिप्रीता।। मुहर्त ग्रंथ में प्रमाण है कि अभिजित मुहूत्र्त एवं अभिजित नक्षत्र दोनों का अलग-अलग महत्व है। किंतु संयोग से अभिजित काल में अभिजित नक्षत्र भी उपलब्ध हो जाए, तब विलक्षण संयोग फलीभूत होता है। ऐसे शुभ काल में किए गए कार्यों का सुफल तत्काल प्राप्त होता है। अभिजित राजस् नक्षत्र है। यह नक्षत्र मनुष्य के रीढ़ एवं कमर को प्रभावित करता है। इसके प्रथम 2 चरण रीढ़ एवं अंतिम 2 चरण कमर पर अपना प्रभाव दिखाते हैं। मानसागरी तथा जातकाभरणम् में उल्लेख है कि जिसका जन्म समय अभिजित नक्षत्र में हो, वह उत्तम कांति वाला, सद्पुरूषों का संगी, कीर्तिवान, मनोहारी छवियुक्त, ईश्वर एवं विप्रजनों का पूजक, सत्यवक्ता और स्वकुल प्रधान होता है। जिस जातक का जन्म अभिजित में हुआ हो, उसका नामकरण अभिजित के अक्षरों के अनुसार करना चाहिए। परंतु महादशा ज्ञात करने के लिए निराभिजित नक्षत्र गणना का उपयोग करें; अर्थात् उत्तराषाढ़ा, या श्रवण में से जो भी जन्मकालीन् नक्षत्र हो, उसी के स्वामी के अनुसार महादशा का निर्णय करें।