वास्तु शास्त्र: मूल सिद्धांत व् उपयोगिता
वास्तु शास्त्र: मूल सिद्धांत व् उपयोगिता

वास्तु शास्त्र: मूल सिद्धांत व् उपयोगिता  

व्यूस : 7615 | दिसम्बर 2012
जय इन्दर मलिक वावास्तव में वास्तु शास्त्र में प्रकृति के नियमों और सिद्धांतों के अनुसार किसी भवन का निर्माण कहां होना चाहिए या किस दिशा में क्या बनना चाहिये और क्या नहीं बनना चाहिये, इसका मार्गदर्शन होता है। क्या करने से भवन के स्वामी के जीवन में सुख-शांति व समृद्धि आए इसकी व्याख्या भी वास्तु के सिद्धांत बखूबी करते हैं। इस लेख में वास्तु शास्त्र के मूल सिद्धांतों एवं उसकी वर्तमान जीवन में बढ़ती उपयोगिता पर प्रकाश डाला गया है। स्तु सिद्धांत के आधार पर ऐसा भवन निर्माण किया जा सकता है जो सर्व प्रकार से अनुकूल होने के साथ-साथ प्रकृति से भरपूर लाभ कराये। वास्तु आधारित निर्माण सुख समृद्धि का कारक है। हलायुध कोष के अनुसार वास्तु से तात्पर्य है- वास्तु संक्षेपतो वक्ष्ये ग्रह दो विघ्ननाशनम्। ईशान कोणादारभ्य ह्याकाशीति पदे त्यजेत। अर्थात वास्तु संक्षेप में इशान्यादि कोण से प्रारंभ होकर गृह निर्माण की वह कला है जो गृह को विघ्न, प्राकृतिक उत्पातों उपद्रवों से बचाती है। वास्तु का क्षेत्र बहुत बड़ा है। वास्तु शास्त्र का ज्योतिष से निकट का संबंध है। वास्तु निर्माण में शुभाशुभता व मुहूर्त ज्ञान के लिये ज्योतिष का सहारा लेना पड़ता है। इसका भूगोल एवं भूगर्भ-विद्या और गणित से भी घनिष्ठ संबंध है। वास्तु शास्त्र का पालन करने से आप स्वास्थ्य, मानसिक शांति, सफलता और सुख समृद्धि पा सकते हैं और वास्तु-सिद्धांतों को अपनाकर निजी जीवन में आश्चर्यजनक परिवर्तन ला सकते हैं। जो इसका पालन नहीं करते वे दुःखी और तनावग्रस्त होने के साथ-साथ अनेक समस्याओं से जूझते हैं। सब से प्रथम ऋग्वेद में वास्तु का पहला प्रयोग मिला। तभी वास्तु शास्त्र का उद्भव हुआ। वास्तु शास्त्र के उद्भावकों में विश्वकर्मा तथा मय के नाम अधिक लोकप्रिय हैं। विश्वकर्मा को देवताओं का वास्तुविद और मय को असुरों का वास्तुविद माना गया है। वास्तु चाहे छोटी हो या बड़ी उसका निर्माण पंचमहाभूतों से अर्थात् भूमि, गगन, वायु, अग्नि एवं नीर से हुआ है। इन्हें प्राकृतिक स्रोतों से कैसे अधिक से अधिक पाया जाये इसका ज्ञान वास्तु शास्त्र से होता है। वास्तु शास्त्र सौर ऊर्जा, चुंबकीय प्रवाहों, दिशाओं, वायु प्रभावों, गुरुत्वाकर्षण, ऊर्जा और प्रकृति की अनंत शक्तियों का मनुष्य और आवास स्थान में संतुलन प्रदान करता है। ऊर्जा दो प्रकार की होती है। 1. सूर्य ऊर्जा (चर ऊर्जा) 2. चुंबकीय ऊर्जा (स्थिर ऊर्जा), दोनों का समायोजन = वास्तु। प्रातः 6 बजे से 12.00 बजे तक इलेक्ट्रो मैग्नेटिक किरणें 12.00 बजे से शाम 6.00 बजे तक जीवनयापी ऊर्जा। दिशा का निर्धारण उत्तर से किया जाता है। जीवनधारियों को सारणी में दी हुई बातें सर्वाधिक प्रभावित करती हैं। इन पांच तत्वों के समान मिश्रण से मनुष्य को धर्म और ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। आधुनिक विज्ञान का आधार वैदिक ज्ञान भी है। वास्तु का मूलभूत सिद्धांत है प्रकृति के स्थूल और सूक्ष्म प्रभावों को मानव मात्र के अनुरूप प्रयोग में लाना। वास्तु शास्त्र के सिद्धांत हमारे पूर्वजों के अध्ययन, अनुसंधान और अनुभवों के प्रकाश स्तंभ हैं। इनकी सत्यता, व्यावहारिकता और वैज्ञानिकता आज स्वतः सिद्ध हो रही है। यह पृथ्वी अपनी धुरी पर लगभग 23)0 अंश पर झुकी हुई है और लगभग 24 घंटे में एक चक्कर पूरा करती है। इसे दैनिक गति कहते हैं। साथ ही यह लगभग एक वर्ष में सूर्य के चारों ओर एक परिक्रमा भी पूरी करती है, इसे वार्षिक गति कहते हैं। दैनिक गति के कारण रात और दिन और वार्षिक गति के कारण ऋतुएं आती हैं। 21 मार्च और 23 सितंबर को पृथ्वी अपनी परिक्रमा पथ पर ऐसी अवस्था में होती है कि सूर्य की किरणें भूमध्य रेखा पर सीधी पड़ती हैं। इन दिनों उत्तरी गोलार्द्ध और दक्षिणी गोलार्द्ध दोनों में सूर्य का प्रकाश समान रूप से पड़ता है इसलिये इन दिनों में दिन रात बराबर होते हैं। 21 मार्च के बाद पृथ्वी आगे बढ़ते हुये ऐसी स्थिति में आ जाती है कि उत्तरी गोलार्द्ध में दिन की अवधि रात्रि की अपेक्षा अधिक होती है और गर्मी की ऋतु आ जाती है। 21 जून को सूर्य की किरणंे कर्क रेखा पर सीधी पड़ती हैं। यह दिन सबसे लंबी अवधि का होता है और रात सबसे छोटी। इसके बाद 14 जुलाई से दिन की अवधि घटने लगती है और रात्रि की अवधि बढ़ने लगती है। 23 सितंबर को पुनः समान अवधि के दिन-रात होते हैं। अब सूर्य की किरणें दक्षिण गोलार्द्ध में सीधी पड़ती है। 21 दिसंबर को सूर्य की किरणें मकर रेखा पर सीधी पड़ती हैं। यह दिन दक्षिणी गोलार्द्ध में सबसे लंबी अवधि का होता है और रात सब से छोटी। वहां गर्मी की ऋतु रहती है। इसके विपरीत इस दिन उत्तरी गोलार्द्ध में अधिक शीत ऋतु रहती है। रात सबसे लंबी और दिन सबसे छोटा होता है। 14 जनवरी से इसका विपरीत क्रम शुरू हो जाता है। 14 जनवरी से 14 जुलाई तक की अवधि में क्रमशः वृद्धि होती जाती है। अतः सूर्य दक्षिण से उत्तर की ओर चलता है। यह उत्तरायण अवधि कहलाती है। 14 जुलाई से 14 जनवरी तक इसके विपरीत स्थिति होती है। यह अवधि दक्षिणायन कहलाती है। ज्योतिष शास्त्र में उत्तरायण अवधि को सभी कार्यों के लिये शुभ माना जाता है। आधुनिक विज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि प्रत्येक पदार्थ अणुओं व परमाणुओं से रचित होता है और प्रोट्राॅन, न्यूट्राॅन व इलेक्ट्राॅन सभी परमाणुओं के मूल कण होते हैं। इलेक्ट्राॅनों के गति करने के फलस्वरूप विद्युत चुंबकीय तरंगंे उत्पन्न होती हैं जिसके विभिन्न प्रकार के प्रभाव उत्पन्न होते हैं जैसे रेडियो, टी. वी. या टेलीफोन की कार्य प्रणाली को किसी विशेष अवस्था में रखने से लाभ मिलता है। भवन निर्माण या बना बनाया भवन खरीदने की योजना बनाते समय अपनी ग्रह-दशा, योग आदि पर जरूर विचार कर लेना चाहिये। सूर्य आदि की स्थिति को ध्यान में रखकर भवन बनाना या खरीदना चाहिये। यदि यह सब वास्तु के अनुरूप होगा तो सोने में सुहागा होगा। जन्मकुंडली के अनुसार भवन सुख का योग देख लें। कुछ योग इस प्रकार है: भूमि का ग्रह मंगल है। जन्मकुंडली का चैथा भाव भूमि या भवन सुख है। चैथे भाव का स्वामी केंद्र या त्रिकोण में होना भवन सुख का योग है। मंगल और चतुर्थेश, लग्नेश व नवमेश का बली होना या शुभ ग्रहों से युत या दृष्ट होना भवन प्राप्ति का अच्छा योग होता है। इसका विचार व्यक्ति स्वयं या विद्वान ज्योतिषी से करवा सकते हैं। आज के समय में वास्तुशास्त्र की उपयोगिता काफी अधिक है तथा इसका प्रयोग बहुत जरूरी है। आजकल जिंदगी के तनावों और कठिनाइयों को झेलते हुऐ तन-मन और जीवन में संतुलन बनाये रखना बहुत जरूरी है।



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