रंग डालो ऐसा डालो, जिससे एक उमर रंग जाये। इन पानी वाले रंगों से क्या होता है।। ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्यः कृतः। ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्याशूद्रो अजायत।। अथवा पुरूषस्य मुखं ब्रह्म क्षत्रमेतस्य बाहवः। ऊर्वोर्वेश्यो भगवतः पद्भ्यांशूद्रोऽभ्यजायत।। विराट पुरूष के मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, जांघों से वैश्य और पैरों से शूद्रों की उत्पत्ति हुई है। इनके नाम से ही चार वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) की प्रधानता है और इनके चार ही मुख्य त्योहार क्रमशः रक्षाबंधन, दशहरा (विजयादशमी) दीपावली व होली हैं। चूंकि चारों वर्णों की उत्पत्ति विराट् के एक शरीर से है। प्रत्येक मानव के शरीर में चारों वर्ण निहित हैं अतः मूल रूप से यह कहना सर्वथा गलत होगा कि अमुक त्योहार अमुक वर्ण से संबंधित है। हां ऐसा संभव है कि अमुक वर्ण के लिए अमुक त्योहार की विशेष प्रधानता हो। परंतु संपूर्ण त्योहारों में होली का त्योहार सर्वश्रेष्ठ है। विचार कीजिए मकान में नींव (आधार) का ही महत्त्व है। उसी प्रकार शरीर रूपी घर के लिए पैर ही आधार हैं, स्तंभ हैं। सब धर्मों की सिद्धि का मूल सेवा है, सेवा किए बिना कोई भी धर्म सिद्ध नहीं होता। अतः मूलभूत सेवा ही जिसका धर्म है, वह शूद्र सब वर्णो से महान है। जब शूद्र सब वर्णों से महान है तो फिर उसके लिए निर्धारित होली का त्योहार भी सर्वश्रेष्ठ हो जाता है। ब्राह्मण का धर्म मोक्ष के लिए, क्षत्रिय का धर्म भोगने के लिए, वैश्य का धर्म अर्थ के लिए और शूद्र का धर्म, धर्म के लिए है; अतः इसकी वृत्ति से ही भगवान् प्रसन्न हो जाते हैं। स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण ने द्वारिकावासियों, ब्रजवासियों, अपनी रानियों, पटरानियों व आल्हवादिनी शक्ति राधा के साथ होली का उत्सव मनाया है। स्वयं देवता भी इस आनंद में पीछे नहीं रहे। भगवान् शंकर ने तो श्मशान की राख से ही होली खेलकर अपने को कृतकृत्य किया। होली का पर्व फाल्गुन शुक्ल पक्ष पूर्णिमा को प्रतिवर्ष मनाया जाता है। यह दो भागों में विभक्त है। पूर्णिमा को होली का पूजन व होलिका दहन तथा फाल्गुन कृष्ण प्रतिपदा को रंग, गुलाल तथा कीचड़ आदि से होली होती है। पूर्णिमा का व्रत भी किया जाता है। होली, होलिका दहन निर्णय प्रदोष व्यापिनी ग्राह्या पौर्णिमा फाल्गुनी सदा। तस्यां भद्रामुखं त्वक्त्वा पूज्या होला निशामुखे।। इति नारद-वचनात् प्रदोषव्यापिनीत्युक्तम्। सदा फाल्गुन मास की पौर्णिमा को प्रदोषव्यापिनी ग्रहण करें। उसमें भद्रा के मुख को त्यागकर निशामुख में होली का पूजन करें। इस नारद के वचन से प्रदोष व्यापिनी ग्रहण करें। हेमाद्रौ मदन रत्ने च भविष्ये अस्यां निशगमे पार्थ संरक्ष्याः शिशवो ग्रहे। गोमयेनोपलिप्ते च सचतुष्के गृहांगणे।। इत्यादिना तत्रैव तद्वि धानाच्च। तनेयं पूर्व विद्धाश्रावणी दुर्ग नवमी दूर्वा चैव हुताशनी। पूर्व विद्धैव कर्तव्या शिवरात्रिर्वलेर्दिनम्। इति बृहद्यमब्रह्मवैवर्तोक्तश्च। दिनद्वये प्रदोष व्याप्तौ परैव। हेमाद्रि तथा मदनरत्न में भी भविष्य पुराण का वचन है कि - हे पार्थ इस पूर्णिमा में रात्रि के आने पर गोमय से किए हुए चैकोर गृहांगण (घर के चैक) में बालकों की रक्षा करें। इत्यादि से वहां पर उसका विधान कहा है। इससे यह पूर्व विद्धा (अर्थात- पूर्व दिन ही प्रदोषकाल में प्राप्त होने पर) ग्रहण करें- श्रावणी, दुर्गानवमी, दुर्गाष्टमी, हुताशनी (होली), शिवरात्रि आदि सब पूर्वा विद्धा ही करना चाहिए। यह बृहद्यम और ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा गया है। दोनों दिन प्रदोष काल में प्राप्त हो तो दूसरी ही ग्रहण करें। सायाह्रे होलिकां कुर्यात पूर्वाह्ने क्रीडनं गवाम्-निर्णयामृत के अनुसार सायाह्न में होलिका करें और पूर्वाह्न में गौओं की क्रीड़ा करं। ज्योतिर्निबन्धे तु- प्रतिपद्भूतभद्रासु याऽर्चिता होलिका दिवा। संवत्सरं च तद्राष्ट्रं पुरं दहति साद्भुतम्।। ज्योतिर्निबंध में कहा है कि - प्रतिपदा, चतुर्दशी और भद्रा में जो होलिका को दिन में पूजित करता है वह एक वर्ष तक उस देश (राष्ट्र) को और नगर को आश्चर्य से दहन करता है। प्रथम दिन प्रदोष के समय भद्रा हो और दूसरे दिन सूर्यास्त से पहले पूर्णिमा समाप्त होती हो तो भद्रा के समाप्त होने की प्रतीक्षा करके सूर्योदय होने से पूर्व होली का दहन करना चाहिए। (चंद्र प्रकाश) यदि पहले दिन प्रदोष न हो तो भी रात्रि भर भद्रा रहे (सूर्योदय होने से पहले न उतरे) और दूसरे दिन सूर्यास्त से पहले ही पूर्णिमा समाप्त होती हो तो ऐसे अवसर में पहले दिन भद्रा हो तो भी उसके पुच्छ में होलिका दीपन कर देना चाहिए। (भविष्योत्तर व लल्ल) । यदि पहले दिन रात्रि भर भद्रा रहे और दूसरे दिन प्रदोष के समय पूर्णिमा का उत्तरार्द्ध मौजूद भी हो तो भी उस समय यदि चंद्रग्रहण हो तो ऐसे अवसर में पहले दिन भद्रा हो तब भी सूर्यास्त के पीछे होली जला देनी चाहिए। (मुहूर्त चिंतामणि) यदि दूसरे दिन प्रदोष के समय पूर्णिमा हो और भद्रा उससे पहले उतरने वाली हो, किंतु चंद्रग्रहण हो तो उसके शुद्ध होने के पीछे स्नान दानादि करके होलिका दहन करना चाहिए। (स्मृति कौस्तुभ) यदि फाल्गुन दो हों (मलमास हो) तो शुद्ध मास (दूसरे फाल्गुन) की पूर्णिमा को होलिका दहन करना चाहिए। (धर्मसार) हुताशनी मलमासे न भवति। होली पूजन विचार होली का पूजनोत्सव रहस्यपूर्ण है। इसमें होली, ढुंढा, प्रींद तो मुख्य हैं हीं, इसके अलावा इस दिन ‘नवान्नेष्टि’ यज्ञ भी संपन्न होता है। इसी परंपरा से ‘धर्मध्वज’ राजाओं के यहां माघी पूर्णिमा के प्रभात में शूर, सामन्त और सभ्य मनुष्य गाजे-बाजे व लवाजमे सहित नगर से बाहर वन में जाकर शाखा सहित वृक्ष लाते हैं और उसको गंध अक्षतादि से पूजा कर नगर या गांव से बाहर पश्चिम दिशा में आरोपित करके स्थित कर देते हैं। जनता में यह होली दंड (होली का डांडा) या प्रींद के नाम से प्रसिद्ध होता है। यदि इसे ‘नवान्नेष्टि’ का यज्ञस्तंभ माना जाय तो निरर्थक नहीं होगा। व्रती को चाहिए कि वह फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को प्रातः स्नानादि के अनंतर ‘मम बालक बालकादिभिः सह सुखशांतिप्राप्त्यर्थं होलिका व्रतं करिष्ये।’ से संकल्प करके काष्ठखंड के खंग बनवाकर बालकों को दे तथा उनको उत्साह सैनिक बनाये। वे निःशंक होकर खेलकूद करें और परस्पर हँसें। इसके अतिरिक्त होलिका के दहन स्थान को जल छिड़क कर शुद्ध करके उसमें सूखा काष्ठ, सूखे उपले और सूखे कांटे आदि का स्थापन करे। पुनः सायंकाल के समय प्रसन्न मन से संपूर्ण पुरवासियों एवं गाजे-बाजे के साथ होली के समीप जाकर शुभासन पर पूर्व या उत्तर मुख होकर बैठंे और ‘‘मम सकुटुम्बस्य सपरिवारस्य पुरग्रामस्थजनपदसहितस्य वा सर्वापच्छान्ति प्रशमनपूर्वक सकल शुभफलप्राप्त्यर्थ दुण्ढाप्रीतिकामनया होलिकापूजनं करिष्ये।’’ यह संकल्प करके पूर्णिमा प्राप्त होने पर अछूत या सूतिका के घर से बालकों द्वारा अग्नि मंगवाकर होली को दीप्तिमान करे और चैतन्य होने पर गंध अक्षतपुष्पादि से शोडषोपचार पूजन करके ‘‘असृक्पाभयसंत्रस्त्रैः कृत्वा त्वं होलि बालिशैः। अतस्त्वां पूजयिष्यामि भूते भूतिप्रदा भव।।’’ इस मंत्र से तीन प्रदक्षिणा या प्रार्थना करके अघ्र्य दे तथा लोकप्रसिद्ध होलीदंड या शास्त्रीय ‘यज्ञस्तम्भ’ को शीतल जल से अभिषिक्त करके उसे एकांत में रख दें। उपरांत घर से लाए हुए खेड़ा, खांडा और वरकूलिया आदि को होली में डालकर जौ, गेहूं की बाल और चने के होलों को होली की ज्वाला से सेंके और यज्ञ सिद्ध नवान्न तथा होली की अग्नि तथा भस्म लेकर घर आये। वहां आकर वास स्थान के प्रांगण में गोबर से चैका लगाकर अन्नादि का स्थापन कर उसे अवसर पर काष्ठ के खंगों को स्पर्श करके बालकगण हास्य सहित शब्द उच्चारें। बालकों का रात्रि आने पर संरक्षण किया जाये और गुड़ के बने हुए पक्वान्न (पूआ-पूड़ी) उनको खाने को दें। इस प्रकार करने से ढूंढा के दोष शांत हो जाते हैं और होली के उत्सव में अभूतपूर्व सुख शांति होती है। होली की प्रासंगिक कथा प्रींाद दैत्यराज हिरण्यकशिपु का पुत्र था। बाल्यावस्था से ही भगवान् विष्णु का परम भक्त था। हिरण्यकशिपु घोर तपस्या कर ब्रह्माजी से दिव्य वरदान प्राप्त कर उनका दुरूपयोग करने लगा। इंद्रासन पर भी अपना अधिकार कर लिया तथा अपने भाई हिरण्याक्ष के वधकत्र्ता भगवान् विष्णु से विशेष विद्वेष करने लगा। संभवतः इसी प्रतिक्रिया स्वरूप उसके पुत्र प्रींाद में विष्णु (कृष्ण) के प्रति भक्ति भावना देवर्षि नारद जी की कृपा से जागृत हो गयी थी। एक बार हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्र की शिक्षा के संबंध में जानने का प्रयास किया तो पुत्र की भक्ति भावना का ज्ञान हुआ। इस पर क्रोधित होकर प्रींद को गोद से नीचे जमीन पर पटक दिया तथा यातनाओं का पहाड़ ही प्रींद पर टूट पड़ा। प्रींाद के मर्मस्थानों को शूलों से भिदवाया, बड़े-बड़े मतवाले हाथियों से कुचलवाया, विषधर नागों से डंसवाया, पुरोहितों से कृत्या राक्षसी उत्पन्न करायी, पहाड़ की चोटी से नीचे फिकवा दिया, शंबरासुर से अनेकों प्रकार की माया का प्रयोग करवाया, अंधेरी कोठरियों में बंद कराया, विष पिलाया, भोजन बंद कर दिया, बर्फीली जगह, दहकती हुई आग, और समुद्र में बारी-बारी से डलवाया, आंधी में छोड़ दिया, पर्वत के नीचे दबा दिया, स्वयं हिरणकशिपु की बहिन होलिका प्रींद को गोदी में लेकर आग में बैठ गयी परंतु भगवत् कृपा से जो दुपट्टा होलिका को ब्रह्माजी से प्राप्त हुआ था। वही दुपट्टा भक्त प्रींद के शरीर पर वायुदेव की कृपा से आ पड़ा व होलिका की शक्ति जो दुपट्टे में निहित थी, चले जाने के कारण दग्ध हो गयी। भक्त प्रींद हरि नाम स्मरण करते हुए सकुशल अग्नि से बाहर निकल आए। पुनः हिरणकशिपु का वध भगवान् नृसिंह के द्वारा हो गया। इसी पुनीत अवसर पर नवीन धान्य (जौ, गेहूं, चने) की खेतियां पककर तैयार हो गयीं और मानव समाज में उन धान्यों को उपयोग में लेने का प्रयोजन भी उपस्थित हो गया। किंतु धर्मप्राण हिंदू भगवान् यज्ञेश्वर को अर्पण किए बिना नवीन अन्न को उपयोग में नहीं ले सके, अतः फाल्गुन शुक्ल पर्णिमा को समिधास्वरूप उपले आदि को एकत्रित करके उसमें यज्ञ की विधि से अग्नि का स्थापन, प्रतिष्ठा, प्रज्ज्वालन व पूजन करके विविध रक्षोघ्न मंत्रों से यव गोधूमादि के चरू स्वरूप बालों की आहुति दी और हुतशेष धान्य को घर लाकर प्रतिष्ठित किया। उसी से प्राणों का पोषण होकर सभी प्राणी हृष्ट-पुष्ट और बलिष्ठ हुए और होली के रूप में नवान्नेष्टि यज्ञ को संपन्न किया। तभी से होली पूजन की यह परंपरा मानव समाज में विकसित हो गयी। इसे वसंत ऋतु के आगमन में किया गया महायज्ञ भी मानते हैं। लोक परंपरा के अनुसार नवविवाहिता स्त्री को प्रथम बार ससुराल की जलती होली नहीं देखनी चाहिए। प्रतिपदा का भव्य होली उत्सव होली के अगले दिन चैत्र कृष्ण प्रतिपदा को सभी बालक-वृद्ध-नर-नारी भांति-भांति की पिचकारियों और अनेक प्रकार के रंग-गुलाल आदि से एक दूसरे से होली का खेल खेलते हैं। विभिन्न प्रकार के रंगों से चेहरे को पोत देते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में तो नाली की गंदी कीचड़, गड्ढों में भरे हुए पानी से ही एक दूसरे को सराबोर करते हैं। साल भर की ईष्र्या व द्वेष भावना मन से मिट जाती है। अश्लील गालियां आदि भी एक दूसरे को देते हैं। बड़े-बूढ़ों का चरण स्पर्श करके आशीर्वाद लेते हैं। साथ के भाई आपस में गले मिलते हैं। ब्रजमंडल में तो यह उत्सव पूरे फाल्गुन मास ही मनाया जाता है। होली से पूर्व नवमी-दशमी-एकादशी को बरसाना-नंदगांव-वृंदावन में लट्ठमार होली व रंग की होली अपने आप में दिव्य है, जिसे देखने भारतवर्ष के कोने-कोने से तथा विदेशों से भी भक्त काफी संख्या में आते हैं। बड़े जोर-जोर से होली गीत, व रसिया गाते हैं, उछलते-कूदते और फांदते हैं। होली गीत गाने, हंसने तथा निर्भीक निःसंकोच बोलने का आयुर्वेदिक महत्व है। गाने का गले से संबंध होने के कारण गले की पूरी कसरत हो जाती है; परिणामस्वरूप कफ दब जाता है। अबीर गुलाब के गले में जाने से फेफड़े तथा गले में रूकी कफ साफ हो जाती है।