आश्विन शुक्ल प्रदिपदा से नवमी तक शारदीय नवरात्र (नौ रात) होते हैं। इनमें मां भगवती दुर्गा देवी के प्रीत्यर्थ उनकी स्तुति पूजा, व्रत आदि किए जाते हैं। शारदीय नवरात्रों में नौ दिन बड़ा ही उत्सव मनाया जाता है। मां भगवती की प्रतिमाओं का पूजन सारे भारतवर्ष में विशेषकर बंगदेश में बड़ी धूमधाम से होता है। श्रद्धालु नौ दिन तक सामथ्र्यानुसार उपवास, नक्तव्रत, एक भक्त व्रत करते हैं। नवरात्रों में प्रतिदिन एक कन्या की पूजा करें, उसे भोजनादि सहित दक्षिणा देकर संतुष्ट करें। यदि प्रतिदिन संभव न हो तो अंतिम नवरात्र को नौ कन्याओं की पूजा करें। इन दिनों में ‘दुर्गा सप्तशती’, ‘अपराजिता’ आदि के पाठ का विशेष माहात्म्य है। ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ऊँ’ इस महामंत्र का भी जाप अधिकाधिक करें। शारदीय नवरात्र तथा वासंत नवरात्र, ये दोनों नवरात्र ऋतु परिवर्तन (सर्दी से गर्मी तथा गर्मी से सर्दी) के समय पर होते हैं। मां भगवती जो शक्ति का प्रतीक है उस मां के प्रीत्यर्थ उपवास या अल्पाहार हमारे शरीर को भी स्वास्थ्य के साथ स्फूर्ति प्रदान करता है। श्रीदुर्गाष्टमी (आश्विन शुक्ल अष्टमी) नवमी विद्धा आश्विन शुक्ल पक्ष की अष्टमी को यह व्रत किया जाता है। मां भगवती की षोडशोपचार से पूजा की जाती है तथा नवमी को मां की प्रतिमा विसर्जित की जाती है। कुछ व्रती नवरात्रों में व्रत करके अष्टमी को मां भगवती की पूजा करने के पश्चात नौ कन्याओं का पूजन करते हैं। पूजन में कन्याओं को वस्त्र, अलंकार, सौभाग्य सूचक सामग्री (मेंहदी, रोली, बिंदी, चुड़ियां आदि) प्रदान की जाती है। हलवा और चने का प्रसाद दिया जाता है। बाद में व्रती भी प्रसाद लेकर नवरात्र के व्रतों का परायण करता है। अगर दो दिन अष्टमी हो तो पहले दिन पूर्ण अष्टमी तथा दूसरे दिन तीन मुहूत्र्त से कम अर्थात 2 घंटे 24 मिनट सूर्योदय के बाद तो पहले दिन व्रत करें। दूसरे दिन तीन मुहूत्र्त से अधिक अष्टमी हो तो दूसरे दिन। यदि अष्टमी क्षय हो तो सप्तमीयुता अष्टमी में यह व्रत होगा। महानवमी (आश्विन शुक्ल नवमी) कुछ लोग दुर्गा अष्टमी की भांति ही महानवमी को मां भगवती के नवरात्रों के व्रतों का परायण करते हैं। महानवमी को मां भगवती को कूष्माण्ड (पेठा मिठाई वाला) की बलि प्रदान करते हैं। नवरात्र समाप्ति/ पारणा आश्विन शुक्ल नवमी इस दिन नवरात्र व्रत समाप्त कर पूजा के बाद स्वर्ण या रजत की मां की प्रतिमा षोडशोपचार पूजा के पश्चात वस्त्र, पात्र, दक्षिणा आदि के साथ ब्राह्मण को दान दी जाती है। नौ कुंवारी कन्याओं का पूजन करें। शास्त्रीय मत के अनुसार दो से दस वर्षपर्यंत उम्र की कन्या ही इस पूजा में पूजा करने योग्य है। विजयादशमी (आश्विन शुक्ल दशमी) इस दिन अपराह्न में अपराजिता पूजन किया जाता है। क्षत्रिय एवं सैनिक इस दिन अस्त्र-शस्त्र का पूजन करते हैं तथा राष्ट्र की सीमाओं की रक्षा का संकल्प लेते हैं। विजयादशमी के दिन उत्तर भारत में दस दिन पहले से चला आ रहा ‘रामलीला उत्सव’ समाप्त हो जाता है तथा इस दिन रावण, कुंभकरण, मेघनाद के पुतले जलाकर श्री राम की विजय का उत्सव मनाया जाता है। इस दिन सर्वत्र विजय के लिए अपराजिता स्तोत्र का पाठ करना चाहिए। विजयादशमी का दूसरा नाम दशहरा भी है। इस दिन राजा लोग अपराजिता देवी की पूजा कर पर राज्य की सीमा लांघना आवश्यक मानते थे। दसों दिशाओं को जीतने या हर लेने का नाम दशहरा हुआ। आधुनिक परिवेश में भारतवर्ष की सीमाओं की रक्षा दशहरे से ही होनी चाहिए क्योंकि सभी आक्रमण भारत पर अक्तूबर से मार्च के बीच में ही होते हैं। भारत वर्ष की भौगोलिक स्थिति के अनुसार गर्मियों या वर्षा ऋतु में आक्रमण संभव नहीं है। कथा नवरात्र एवं दशहरा से जुड़ी अनेक कथाएं हैं। एक प्रचलित कथानुसार रावण द्वारा सीता जी के अपहरण किए जाने के उपरांत भगवान श्रीराम अति उद्विग्न एवं चिंतातुर थे। दुःख के कारण उनका चेहरा मलीन था तथा कई बार क्रंदन के भाव उनके मुख पर परिलक्षित हो जाते थे। उनकी इस स्थिति को देखकर नारद जी ने भगवान श्री राम को भगवती जगदंबा की आराधना करने की सलाह दी। तब भगवान राम ने कहा - विप्रवर ! आप इस व्रत की संक्षिप्त विधि बतलाने की कृपा करें, क्योंकि अब मैं प्रीतिपूर्वक श्रीदेवी की उपासना करना चाहता हूं। श्रीनारदजी बोले - राम ! समतल भूमि पर एक सिंहासन रखकर उस पर भगवती जगदंबा को पधराओ और नौ रात तक उपवास करते हुए उनकी आराधना करो। पूजा सविधि होनी चाहिए। राजन ! मैं इस कार्य में आचार्य का काम करूंगा; क्योंकि देवताओं का कार्य शीघ्र सिद्ध हो, इसके लिये मेरे मन में प्रबल उत्साह हो रहा है। परम प्रतापी भगवान् राम ने मुनिवर नारद जी के कथन को सुनकर उसे सत्य माना। एक उत्तम सिंहासन बनवाने की व्यवस्था की और उस पर कल्याणमयी भगवती जगदंबा के विग्रह को पधराया। व्रती रहकर भगवान् ने विधि-विधान के साथ देवी-पूजन किया। उस समय आश्विन मास आ गया था। उत्तम किष्किंधा पर्वत पर यह व्यवस्था हुई थी। नौ दिनों तक उपवास करते हुए भगवान् राम इस श्रेष्ठ व्रत को संपन्न करने में संलग्न रहे। विधिवत होम, पूजन आदि की विधि भी पूरी की गयी। नारदजी के बतलाये हुए इस व्रत को राम और लक्ष्मण-दोनों भाई प्रेमपूर्वक करते रहे। अष्टमी तिथि को आधी रात के समय भगवती प्रकट हुईं। पूजा होने के उपरांत भगवती सिंह पर बैठी हुई पधारीं और उन्होंने श्रीराम-लक्ष्मण को दर्शन दिये। पर्वत के उंचे शिखर पर विराजमान होकर भगवान् राम और लक्ष्मण दोनों भाइयों के प्रति मेघ के समान गंभीर वाणी में वे कहने लगीं। भक्ति की भावना ने भगवती को परम प्रसन्न कर दिया था। देवी ने कहा - विशाल भुजा से शोभा पाने वाले श्रीराम ! अब मैं तुम्हारे व्रत से अत्यंत संतुष्ट हूं। जो तुम्हाने मन में हो, वह अभिलषित वर मुझसे मांग लो। तुम भगवान नारायण के अंश से प्रकट हुए हो। मनु के पावन वंश में तुम्हारा अवतार हुआ है। रावण-वध के लिये देवताओं के प्रार्थना करने पर ही तुम अवतरित हुए हो। इसके पूर्व भी मत्स्यावतार धारण करके तुमने भयंकर राक्षस का संहार किया था। उस समय देवताओं का हित करने की इच्छा से तुमने वेदांे की रक्षा की थी। फिर कच्छप रूप से प्रकट होकर मंदराचल को पीठ पर धारण किया। यों समुद्र का मंथन करके देवताओं को अमृतद्वारा शक्तिसंपन्न बनाया। रामे तुम वराह रूप से भी प्रकट हो चुके हो, उस समय तुमने पृथ्वी को दांत के अग्र भाग पर उठा रखा था। तुम्हारे हाथों हिरण्याक्षा की जीवन-लीला समाप्त हुई थी। नृसिंह रूप धारण करके तुम हिरण्यकशिपु को मार चुके हो ! रघुकुल में प्रकट होने वाले श्रीराम! तुमने नृसिंहावतार में प्रींाद की रक्षा की और हिरण्यकशिपु को मारा। प्राचीन समय में वामन का विग्रह धरकर तुमने बलि को छला। उस समय देवताओं का कार्य साधन करने वाले तुम इंद्र के छोटे भाई होकर विराजमान थे। भगवान विष्णु के अंश से संपन्न होकर जन्मदग्नि के पुत्र होने का अवसर तुम्हें प्राप्त हुआ। उस अवतार में क्षत्रियों को मारकर तुमने पृथ्वी ब्राह्मणों को दान कर दी। रघुनंदन ! उसी प्रकार इस समय तुम राजा दशरथ के यहां पुत्र रूप से प्रकट हुए हो। तुम्हें अवतार लेने के लिये संपूर्ण देवताओं ने प्रार्थना की थी; क्योंकि उन्हें रावण महान् कष्ट दे रहा था। राजन् ! अत्यंत बलशाली ये सभी वानर देवताओं के ही अंश हैं, ये तुम्हारे सहायक होंगे। इन सबमें मेरी शक्ति निहित है। अनघ ! तुम्हारा यह छोटा भाई लक्ष्मण शेषनाग का अवतार है। रावण के पुत्र मेघनाद को यह अवश्य मार डालेगा-इस विषय में तुम्हें कुछ भी संदेह नहीं करना चाहिये। अब तुम्हारा परम कर्तव्य है, इस वसंत ऋतु के नवरात्र में असीम श्रद्धा के साथ उपासना में तत्पर हो जाओ। तदनन्तर पापी रावण को मारकर सुखपूर्वक राज्य भोगो। ग्यारह हजार वर्षों तक धरातल पर तुम्हारा राज्य स्थिर रहेगा। राघवेंद्र ! राज्य भोगने के पश्चात् पुनः तुम अपने परमधाम को सिधारोगे। इस प्रकार कहकर भगवती अंतध्र्यान हो गयीं। भगवान् राम के मन में प्रसन्नता की सीमा न रही। नवरात्र-व्रत समाप्त करके दशमी के दिन भगवान राम ने यात्रा प्रारंभ कर दी। प्रस्थान के पूर्व विजयादशमी की पूजा का कार्य संपन्न किया। जानकी वल्लभ भगवान् श्रीराम की कीर्ति जगत्प्रसिद्ध है। वे पूर्णकाम हैं। प्रकट होकर परम शक्ति के प्रेरणा करने पर सुग्रीव के साथ श्रीराम समुद्र के तट पर गये। साथ में लक्ष्मण जी थे। फिर समुद्र में पुल बांधने की व्यवस्था करके देव-शत्रु रावण का वध किया। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक देवी के इस उत्तम चरित्र का श्रवण करता है। उसे प्रचुर भोग भोगने के पश्चात परमपद की उपलब्धि होती है।