कब्ज (सभी रोगों की जड़) आचार्य अविनाश सिंह शरीर का मेटाबोलिज्म सही न होने पर जहां शरीर में रसपरिपाक और यथावश्यक धातुओं की परिपुष्टि नहीं होती, वहीं अंतिम परिणति होती है शरीर के मल-उत्सर्जन संस्थान की अव्यवस्था के रूप में और कब्ज उसका प्रत्यक्ष स्वरूप होता है। क्यों और कैसे क्या है उपाय देखें इस लेख में... आयुर्वेद और अन्य चिकित्सा प्रणालियों का मानना है कि कब्ज आंतों में बसने वाला वह शैतान है जो अनेक प्रकार के रोगों को जन्म देता है और कब्ज के रहते किसी भी रोग का उपचार सुनिश्चित नहीं हो सकता। कब्ज निम्न आंत्र संस्थान से संबंधित रोग है जो वृहद आंत की निष्क्रियता, कम मात्र में मल का निर्माण या आहार में तरल पदार्थों के अभाव आदि के कारण उत्पन्न होता है। यदि निश्चित समय पर मल का त्याग न हो, शौच क्रिया में देरी हो, मल की मात्रा सामान्य से कम हो, व अत्यंत शुष्क और कठोर हो, इसके साथ पेट में भारीपन महसूस हो तथा मल कठिनाई के साथ निकले तथा मल-त्याग के लिए जोर लगाना पड़े, तो उसे कब्ज, मलबंध (कोष्ठबद्धता) माना जाता है। कब्जग्रस्त रोगियों का मलाशय मल से ठसाठस भरा रहता है। मल-संचय से मलाशय में सूजन आ जाती है। आयुर्वेद शास्त्र में इस रोग को वृहदांत्र प्रदाह कहते हैं। इस रोग में मल-विसर्जन तो होता है, पर वह संचित मल के नीचे एक पतली राह बनाकर बाहर आता है। संचित मल वैसे का वैसा ही रहता है। संचित मल रक्त शुद्धि में बाधा बनता है और कीड़े पैदा करता है। चरक संहिता में उल्लेख है कि मलावरोध से क्षुधा नाश और कुरुवाद होता हैं, मीठी और भारी चीजें देर से पचती हैं। भोजन के बाद छाती व पेट में जलन, भोजन के पचने का अनुभव न होना, पैरो में सूजन निरंतर शारीरिक शिथिलता पैदा होती ह,ै परिश्रम में सांस फूल जाता है। पेट में मल का संचय होता रहता है। पेट का बढ़ना, पेट के आसपास के हिस्सों में दर्द उत्पन्न होना, हल्का और अल्पमात्रा में भोजन करने के बाद भी पेट का तन जाना, नसों में उभार आदि अनेक व्याधियां जन्म लेती हैं। अर्थात सभी रोगों का कारण कुपित मल (कब्ज) ही है।