रुद्राक्ष के बहुआयामी गुण-विशेष डाॅ. टीपू सुलतान ‘‘फैज’’ रुद्राक्ष वस्तुतः एलियोकापस जैनिट्रस नामक वंश की वनस्पति या पौधे से उत्पन्न हुए एक फल की गुठली है, जो फल दिखने में खुमानी जैसा प्रतीत होता है। इसकी बाहरी पतली, चिकनी त्वचा जामुनी व नीली झलक लिए हुए होती है तथा अंदर का खट्टा, मीठा कसैला गूदेदार भाग बड़ा ही स्वादिष्ट होता है, जिसे बड़े ही चाव से लोग खाया भी करते हैं। यदि बीज की ओर दृष्टि ले जाई जाए तो प्रायः इस का आकार लंबोतरा या गोलाकार-सा होता है, जिसकी ऊपरी सतह पर झुर्रीदार सी धारियां या रेखाएं पाई जाती हैं, जिसके दोनों किनारे थोड़े उभरे हुए से होते हैं, बीच का भाग किंचित नाली के समान गहराई लिए हुए तथा इन धारियों की स्पष्ट चोटियां विविध रूपों में अलंकृत होती-सी प्रतीत होती हैं, जिसे रुद्राक्ष के मुख की संज्ञा दी जाती है और इन्हीं रूप-रेखाओं के आधार पर रुद्राक्ष को कई प्रकारों में वर्गीकृत किया जाता है। अतः इन अलंकृत प्रकारों में इक्कीस मुखी तक के रुद्राक्ष भी शामिल हैं, परंतु पुराणों में मुख्य रूप से चैदह मुखी तक के ही रुद्राक्ष का उल्लेख मिलता है। रुद्राक्ष की प्रजातियां व उनके आकार-प्रकार: जिस वनस्पति के वंश का यह सदस्य है उसकी लगभग 120 से अधिक प्रजातियां पाई जाती है, जिसमें भारत के पूर्वी हिमालय के तराई व नेपाल के ऊंचे पर्वतीय क्षेत्रों में पाए जाने वाले सौरेट्स व लेंसोकोयिस प्रजातियों के पौधों के नाम प्रमुख हैं। भारत के नीलगिरि, मैसूर व अन्नामलाई के पठारी क्षेत्रों के जंगलों मंे उत्पन्न रुद्राक्ष के पौधों को ट्येबरक्लेटस प्रजाति की वनस्पति श्रेणी में रखा गया है। इन पेड़ों की काया अन्य पेड़ों की अपेक्षा अधिक विशाल होती है, जिसमें से दो, तीन, चार, पांच व ग्यारह मुखी प्रकार के रुद्राक्ष उत्पन्न होते हैं। इन क्षेत्रों के अलावा दक्षिणापूर्व एशिया के देश इन्डोनेशिया के जंगलों में भी रुद्राक्ष के पेड़ बहुतायत से पाए जाते हैं जिन्हें किसी मुख्य जाति-विशेष के अंतर्गत नहीं रखा जाता। आकार के दृष्टिकोण से ये झरबेरी के बेर के बीज के समान छोटे अथवा काली मिर्च के बराबर तक के होते हैं, जिनकी माला प्रायः शरीर पर धारण नहीं की जाती बल्कि इन्हें मंत्र-जप आदि में अधिक प्रयुक्त किया जाता है। इनके दाने पूर्ण गोल नहीं होते तथा इन लंबे चपटे दानों का एक भाग पर्वतनुमा या शंकु के समान उभरा हुआ-सा होता है, जिसके कारण इस किस्म की तुलना गौरीशंकर रुद्राक्ष से की जाती है। जावा व बाली के जंगली क्षेत्रों मंे पाए जाने वाले रुद्राक्ष चंद्राकार होते हैं, जिनकी पर्वतीय रेखाएं कम उभरी हुई अर्थात् अन्य स्थानों के रुद्राक्षों की अपेक्षा इनके बाहरी सतह की झुरियां अधिक दबी हुई होती है जिनमें अधिकतर एक मुख पाया जाता है। अतः इन सभी स्थानों के रुद्राक्षों की यदि तुलना की जाए तो जाति व किस्म के आधार पर अन्य की अपेक्षा नेपाल के रुद्राक्ष अधिक श्रेष्ठ व उच्च श्रेणी के होते हैं। रुद्राक्ष की परख: रुद्राक्ष एक प्रकार का बीज है, जिसे काठ अर्थात् लकड़ी की संज्ञा भी दी जा सकती है। वस्तुतः इन बीजों के अंदर रासायनिक तत्वों के साथ-साथ जल की कुछ मात्राएं भी विद्यमान होती हैं, जिस का घनत्व प्राकृतिक संरचनाओं, समय व स्थान विशेष के परिवर्तनों के कारण प्रायः किसी में कम तो किसी में अधिक हो जाया करता है। जैसे-जैसे ये बीज पुराने होते जाते हैं, इनका घनत्व दिन-प्रतिदिन घटता जाता है तथा इस अवस्था में इन्हें यदि जल में डाला जाए तो ये डूबते नहीं बल्कि तैरते रहते हैं। इसलिए सत्यता की सिद्धि हेतु डूबने व तैरने जैसी इन प्रचलित परंपरागत विधियों को पूर्णतः कारगर नहीं कहा जा सकता। अतः प्रयोगशाला में रुद्राक्ष के आकार-प्रकार, उस के अंदर के रासायनिक तत्वों का अवलोकन तथा माइक्रोस्कोप के द्वारा उसके ऊपर की लकीरों या किंचित झुर्रियों के अंशों को देखकर इसकी सत्यता की परख की जा सकती है। रुद्राक्ष की आध्यात्मिक व ज्योतिषीय पृष्ठभूमि: भारत की प्राचीनतम परंपराओं के विदित इतिहासों, अथर्ववेद, पुराणों, उपनिषदों आदि जैसे आध्यात्मिक ग्रंथों के उल्लेखित विवरणों में रुद्राक्ष के असंख्य गुणों की चर्चाएं हुई हैं। स्कंद पुराण में इसकी उत्पत्ति के संदर्भों में, उल्लेखों के साथ-साथ इसे शरीर में धारण करने की विधि, घर में स्थापित करने की महत्ता व प्राण-प्रतिष्ठा या अभिमंत्रण आदि विषयों पर भी प्रकाश डाला गया है। इन वर्णित उल्लेखों से विदित होता है कि भक्ष्य अभक्ष्य में अंतर न रखने वाले, नित्य दुष्कर्मों में लिप्त रहने वाले व्यक्ति भी यदि इसे धारण करे तो अवश्य ही उनके विचार परम शुद्धता की गति को प्राप्त कर सकते हैं तथा अनेक पापों से युक्त म्लेच्छ अथवा चांडाल भी शुद्ध कर्मों की दिशा पाकर पापों से मुक्त हो सकते हैं। रुद्राक्ष की सकारात्मक ऊर्जा के सशक्त माध्यम को ज्योतिषीय विधान में भी अनुसरणीय माना गया है, जिसमें राशियों के गणनाक्रम व अंको तथा अंकशास्त्र में मूलांकों व भाग्यांको के अंकों की प्रकृति व उनकी व्यवहारिकताओं के स्वरूपों तथा रुद्राक्षों के मुखों के अंकों के मेलजोल व समानताएं प्रमुख हैं। ग्रहों, राशियों व अंकों के साथ-साथ इस प्रकरण में नक्षत्र आदि की भूमिकाओं को भी महत्वपूर्ण माना गया है। अतः रुद्राक्ष के मुखों की विविधताओं में छुपे गुण-विशेषों के कुछ ज्योतिषीय विवरण यहां प्रस्तुत किए जा रहे हैं। एकमुखी रुद्राक्ष: धर्म-कर्म व अर्थ-सिद्धि में एकमुखी रुद्राक्ष की भूमिका अत्यंत प्रबल मानी गई है। वस्तुतः सूर्य द्वारा शासित यह रुद्राक्ष मोक्ष की प्राप्ति, सांसारिक ऐश्वर्य, पद-प्रतिष्ठा आदि में पूर्ण सहायक होता है तथा इसे धारण करने से अनिष्टता दूर होती हैं। दोमुखी रुद्राक्ष: अर्धनारीश्वर का स्वरूप होने के कारण दो मुखी रुद्राक्ष को दाम्पत्य जीवन में मधुरता, प्रेम, आर्थिक उन्नति व सांसारिक वैभव जैसे विषयों के लिए मुख्य रूप से विचारणीय माना गया है। इस रुद्राक्ष की सारी क्रियात्मकताएं चंद्रमा द्वारा नियंत्रित होती है। त्रिमुखी रुद्राक्ष: इस रुद्राक्ष को सात्विक, राजसी व तामसी शक्तियों का प्रतीक माना गया है, जो बुद्धि, विद्या, स्मरण-शक्ति आत्म सम्मान आदि की वृद्धि तथा विवेक व परोपकार जैसी रचनात्मक प्रवृत्तियों की निरंतरता में पूर्ण रूप से सहायक होता है। मंगल इस रुद्राक्ष का अधिपति ग्रह है। अंक शास्त्र में इसे बृहस्पति के स्वामित्व के अंतर्गत माना गया है। चार मुखी रुद्राक्ष: मानसिक व शारीरिक पीड़ा, वाणी-दोष, त्वचा, रक्त व हृदय से संबंधित रोगों में इस रुद्राक्ष की बड़ी ही प्रबल व महत्वपूर्ण भूमिका मानी गई है। चार वेदों के स्वरूप अर्थात धर्म, अर्थ काम व मोक्ष के कारक के रूप में इस रुद्राक्ष को स्वीकारा गया है। ज्योतिष शास्त्र में इस रुद्राक्ष की सभी क्रियात्मकताएं चंद्र ग्रह के अंतर्गत नियंत्रित बताई जाती है। अंक शास्त्र में इसे राहु ग्रह के अंतर्गत बताया जाता है। पंचमुखी रुद्राक्ष: इस रुद्राक्ष को पंच महा तत्वों का प्रतीक माना गया है जो दीर्घायु, सर्वकल्याण, उपार्जित धन-जायदाद में वृद्धि, बुद्धि-कौशल व मंगलप्रदायक कार्यों की सिद्धि में पूर्ण रूप से सहायक होता है। ज्योतिष शास्त्र में इस रुद्राक्ष की राशि सिंह तथा स्वामी ग्रह सूर्य को बताया गया है। अंक शास्त्री इसे बुध ग्रह के अंतर्गत मानते हैं। छःमुखी रुद्राक्ष: आत्म-संकल्प, काम-शक्ति व रोग प्रतिरोधक क्षमता की वृद्धि में यह रुद्राक्ष पूर्ण रूप से सहायक माना गया है। इसे धारण करने से लोभ, क्रोध, मोह-माया व शुक्र जनित रोगों से मुक्ति तथा जीवन में दांपत्य सुख अथवा परस्पर प्रेम आदि जैसे संबंध स्वतः सिद्ध होते हैं। ज्योतिष शास्त्र में बुध को इसके स्वामी ग्रह के रूप में स्वीकार किया गया है। परंतु अंक शास्त्र में इसे शुक्र ग्रह द्वारा नियंत्रित बताया जाता है। सप्त मुखी रुद्राक्ष: इसे धारण करने से आर्थिक समृद्धि, मान-प्रतिष्ठा में वृद्धि तथा रोग, तनाव, निराशा आदि जैसे दुखों से मुक्ति मिलती है। यह आकर्षण की क्षमता को विकसित करता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार शुक्र इसका स्वामी ग्रह है, परंतु अंक ज्योतिष में इसे केतु ग्रह के स्वामित्व के अंतर्गत निहित बताया जाता है। अष्ट मुखी रुद्राक्ष: यह रुद्राक्ष प्रकृति के आठ प्रकारों अर्थात भूमि, गगन, अग्नि, जल, वायु, मन, माया व अहंकार पर विजय प्राप्ति में पूर्ण सहायक होता है। इसे धारण करने से आठो दिशाओं की बाधाएं दूर होती हैं। ज्योतिष शास्त्र में इसकी राशि वृश्चिक तथा इसके स्वामी ग्रह के रूप में मंगल को स्वीकार किया गया है। परंतु अंकशास्त्र में इसे शनि ग्रह के स्वामित्व के अंतर्गत माना जाता है। नौ मुखी रुद्राक्ष: इस रुद्राक्ष के धारण करने से व्यक्ति के अंदर वीरता, धीरता, पराक्रम, साहस, सहनशीलता, दानशीलता आदि जैसे गुणों की क्रियाएं पूर्ण रूप से विकसित होती हैं। यह आकस्मिक घटनाओं से बचाव करता है। अंक शास्त्र में इसे मंगल ग्रह द्वारा शासित बताया गया है। परंतु ज्योतिष शास्त्र में इसकी राशि धनु मानते हुए इसके स्वामित्व के रूप में बृहस्पति ग्रह को स्वीकार किया गया है। दश मुखी रुद्राक्ष: इस रुद्राक्ष को साक्षात जनार्दन की संज्ञा दी गई है। इसे धारण करने से भूत, पिशाच, वैताल, सूर्य आदि के भय समाप्त हो जाते हैं। नव ग्रह की शांति में इस रुद्राक्ष की प्रबल, उपयोगी व महत्वपूर्ण भूमिका मानी गई है। अंक शास्त्र में यह रुद्राक्ष अंक एक का प्रतिनिधित्व करता है, जिस कारण इसकी सारी क्रियात्मकताएं सूर्य के स्वामित्व के अंतर्गत निहित बताई जाती है। एकादश मुखी रुद्राक्ष: पुराणों में इस रुद्राक्ष को साक्षात रुद्र के स्वरूप की संज्ञा दी गई है। संकट मोचन का प्रतीक यह रुद्राक्ष सांसारिक ऐश्वर्य में वृद्धि व संतान सुख की प्राप्ति में प्रबल रूप से सहायक माना गया है। इसे धारण करने से चंद्रग्रहण से उत्पन्न दोष शीध्र ही समाप्त हो जाते हैं। अंक शास्त्र में यह अंक दो का प्रतिनिधित्व करता है, जिसकी सारी क्रियात्मकताएं चंद्रमा द्वारा नियंत्रित होती हैं। द्वादशमुखी रुद्राक्ष: इसे साक्षात रुद्र के स्वरूप के रूप में स्वीकारा गया है। इसे धारण करने से व्याधियों व हिंसक जानवरों से मनुष्य की रक्षा होती है। यह धन-संपत्तियों में वृद्धि तथा दरिद्रता का नाश करता है। अंक शास्त्र में यह अंक तीन का प्रतिनिधि माना गया है। तेरहमुखी रुद्राक्ष: यह कार्तिकेय के समान समस्त ऐश्वर्य व मनोकामनाओं को स्वतः पूर्ण करता है। इसे धारण करने से धातुओं व रसायनों से जुड़े तत्व पूर्ण सिद्ध होते हैं जिससे समस्त पापों से शीघ्र ही मुक्ति मिलती है। कुछ विद्वानों ने इसे निःसंतान को संतति प्रदान करने वाला, सुख-शांति में सफलता व आर्थिक समृद्धि प्रदायी रुद्राक्ष के रूप में भी स्वीकार किया गया है। अंक शास्त्र में इसे अंक चार का प्रतिनिधि माना गया है। चैदहमुखी रुद्राक्ष: इसे साक्षात मारूत के स्वरूप की संज्ञा दी गई है जो वायु तत्वों पर आधिपत्य करने में पूर्ण सहायक होता है। यह सकल सिद्धिप्रदायक, आरोग्यदायक व व्याधिनाशक यंत्र का एक मानक स्वरूप है। इसे धारण करने से एक ही साथ शनि व मंगल के दोष स्वतः समाप्त हो जाते हैं। अंक शास्त्र में यह रुद्राक्ष अंक पांच का प्रतिनिधि माना गया है। रुद्राक्ष की अन्य महत्ताएं: धन्वन्तरि के विदित तथ्यों से ऐसा ज्ञात होता है कि रुद्राक्ष की महत्ता केवल आध्यात्मिक, तांत्रिक व ज्योतिषीय क्षेत्रों तक ही सीमित नहीं थी बल्कि इसकी गुण-विशेषी उपयोगिता का ज्ञान आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति में भी पूर्ण रूपेण विकसित था तथा इस वृक्ष के फल, बीज, पत्तियां व छाल अति प्राचीन काल से ही रोगोपचार हेतु प्रयुक्त किए जाते थे। यदि आधुनिक सर्वेक्षणों की ओर दृष्टि ले जाएं तो इस परिप्रेक्ष्य में प्रसिद्ध शोधकर्ता जौन गानेंट का नाम सर्वदा याद किया जाता है, जिन्होंने सर्वप्रथम 1864 ईं. में एलियोकारपस जैनिट्रस नामक वनस्पति के रूप में रुद्राक्ष की एक अहम पहचान बनवाई। इसके अतिरिक्त कर्नल आर. एन. चोपड़ा ने भी अपनी उक्त पुस्तक ‘‘ग्लोसरी आफ इंडियन मेडिसिनल प्लान्टस’’ में रोग व व्याधियों के उपचार के संदर्भ में रुद्राक्ष के प्रयोग व इसकी उपयोगिताआंे को उल्लेखित किया है। अतः रुद्राक्ष की बहुआयामी उपयोगिता व लाभ की कुछ संक्षिप्त सूचियां आपके समक्ष प्रस्तुत हैं। रुद्राक्ष धारण करने या औषधि के रूप में प्रयोग करने से केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र व हृदय की उत्तेजक धमनियां नियंत्रित रहती है तथा हृदय का प्राकृतिक स्वरूप व रक्तचाप सामान्य रहता है। रुद्राक्ष के उष्ण स्वभावी गुण, रह्यूमेटिक पेन, कफ, अस्थमा, जुकाम, एलर्जी, शोथ आदि जैसे रोगों को दूर करने या सामान्य रखने में पूर्ण सहायक होते हैं। रुद्राक्ष धारण करने से शरीर में कोलेस्ट्रोल का संतुलन बना रहता है। रुद्राक्ष धारण करने से मन की तामसिक व उग्र वृत्तियां शांत होती हैं। रुद्राक्ष की शक्तिदायक ऊर्जा ग्रहों के अशुभ प्रभावों के निराकरण में पूर्ण सहायक मानी गई हैं। इसलिए कार्यों की सिद्धि, व्यवसाय में उन्नति, शिक्षण कार्य में सफलता व उत्तम स्वास्थ्य के हेतु इसकी उपयोगिता मुख्य रूप से वांछनीय मानी गई है। रुद्राक्ष शरीर पर पड़ने वाले नकारात्मक ऊर्जा के दोषपूर्ण प्रभावों को समाप्त करता है। यदि रात्रि काल में सोने के समय इसे तकिए के नीचे रख कर सोया जाए तो डरावने स्वप्नों का आना बंद हो जाता है। रुद्राक्ष की शक्तिदायक ऊर्जा ग्रहों के अशुभ प्रभावों के निराकरण में पूर्ण सहायक मानी गई हैं। इसलिए कार्यों की सिद्धि, व्यवसाय में उन्नति, शिक्षण कार्य में सफलता व उत्तम स्वास्थ्य के हेतु इसकी उपयोगिता मुख्य रूप से वांछनीय मानी गई है।