भगवान नारायण ने सृष्टि के प्रारंभ में किंकत्र्तव्यविमूढ़ ब्रह्माजी को करूणावश भागवत ज्ञान प्रदीप का दान किया था। फिर उन्होंने ही ब्रह्माजी के रूप में देवर्षि नारद को उपदेश किया और नारद जी के रूप में भगवान् श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास को। पुनः व्यासरूप से योगीन्द्र शुकदेव जी को और श्री शुकदवेजी के रूप में अत्यंत करूणावश राजर्षि परीक्षित को उपदेश किया। उन परमशुद्ध एवं मायामल से रहित तथा शोक और मृत्यु से परे परम सत्यस्वरूप परमेश्वर का हम सब ध्यान करते हैं। श्रीमद्भागवत श्रवण के अनन्तर ब्रह्माजी सृष्टिकार्य में लग गये। देवर्षि नारद भक्ति-भाव से प्रचार-प्रसार में लगे, व्यासजी ने समाधिस्थ हो श्रीकृष्ण लीलाओं का अनुस्मरण किया और लोक कल्याण के लिए भागवत की रचना की और श्री शुकदेव को श्रवण कराया। श्री शुकदेव ने महाराज परीक्षित को तथा सूतजी ने शौनकादि को इस दिव्य भागवत तत्व का श्रवण कराया। शौनक को श्रवणानन्द का अनुभव तो बहुत हुआ परंतु श्रवण गौण होने के कारण यज्ञ-फल की समग्रता ही प्राप्त हुई, मोक्ष अथवा भगवल्लीला में प्रवेश न हो सका। परंतु परीक्षित बिना किसी व्यवधान के तत्काल श्रवणमात्र से ही जीवनमुक्त हो गए। इसीलिए श्रोताओं में मुख्य परीक्षित ही हैं। माहात्म्य में उन्हें ही श्रवण से मुक्ति का साक्षी कहा गया है। श्रवणनिष्ठा भी उन्हीं की प्रसिद्ध है। यह श्रीमद्भागवत अत्यंत गोपनीय रहस्यात्मक पुराण है। यह भगवत्स्वरूप का अनुभव कराने वाला और समस्त वेदों का सार है। संसार में फंसे हुए जो लोग इस घोर अज्ञानान्धकार से पार जाना चाहते हैं उनके लिए आध्यात्मिक तत्वों को प्रकाशित कराने वाला यह एक अद्वितीय दीपक है। भागवत क्या है? भागवत वैष्णवों का परम धन, पुराणों का तिलक, परम हंसों की संहिता, भक्ति ज्ञान-वैराग्य का प्रवाह (प्याऊ), भगवान् श्रीकृष्ण का आनंदमय स्वरूप, प्रेमी भक्तों की लीला स्थली, श्री राधा-कृष्ण का अद्वितीय निवास स्थान, जगत का आधार, लोक-परलोक को संवारने वाला, जगत् व्यवहार व परमार्थ का ज्ञान कराने वाला, वेदों उपनिषदों का अद्वितीय सार (रस), व्यक्ति को शांति तथा समाज को क्रांति का प्रतीक तथा पंचम वेद है। भागवत - विश्लेषण 1. भा - भाषते सर्व लोकेषु- जो संपूर्ण लोकों में प्रकाशित है या संपूर्ण लोक जिसके प्रकाश से प्रकाशित हैं। 2. ग - गीयते नारदादिभिः - जिसका गान नारद जी जैसे संतों के द्वारा निरंतर किया जाता है। 3. व - वर्तते सर्वशास्त्रेषु - जो सभी शास्त्रों में विद्यमान है। 4. त - तरणीव तरणायेत - जो संसारारण्य से पार ले जाने में नौका रूप है। भागवत महापुराण का अवलोकन करें तो इससे पूर्व श्रीमद् शब्द का पवित्र दर्शन होता है जो श्री यानी राधा या श्रेष्ठ का प्रतीक है। मद् अहंकार का द्योतक है। अहंकार सभी के जीवन में विद्यमान है। किसी को रूप का अहंकार, किसी को धन का, किसी को संतान का, किसी को अपने पद का, किसी को व्यापार का और किसी को अपने संबंधियों का आदि-आदि। परंतु जिसका अहंकार भागवत में है, श्री कृष्ण में है वही सर्वोपरि है। श्री राधा का अहंकार श्रीकृष्ण में है, श्री लक्ष्मी जी का अहंकार श्री विष्णु में है यही सर्वश्रेष्ठता का दर्शन है। दृष्टांत एक संत का पदार्पण धन-संपत्ति ऐश्वर्य से संपन्न लाला के घर अचानक हुआ। संत के आगमन से परिवार के सभी सदस्य आनंद का अनुभव करते हुए स्वागत परंपराओं से युक्त हो संतजी को अपने-अपने अहंकार का दिक्दर्शन कराने लगे। गृहस्वामिनी उन्हें अपने रसोईघर की व्यवस्थाओं का, विद्याध्ययन में लीन बालक अध्ययन कक्ष का, बहूरानी बेडरूम, बेटा कार्यालय, बिटिया बाग बगीचों व सुंदर सरोवर यानी परिवार के अन्य सदस्यों ने भी विभिन्न-विभिन्न, अपनी-अपनी पसंदीदा वस्तुओं का संतजी के समक्ष प्रदर्शन किया। परंतु यह सभी लौकिक जगत के प्रति था। सच्चा अहंकार तो बस केवल और केवल इस गृह के स्वामी मालिक लाला के जीवन में ही था, जिसने संतजी को एक सुंदर, दिव्य अनुपम, रूप सौंदर्य से युक्त भवन (देव मंदिर) में प्रवेश कराया और कहा भगवन् मेरा अहंकार तो नंद यशोदा के दुलारे, वसुदेव-देवकी के प्राण प्यारे, ब्रजगोपियों के आंख के तारे, श्री राधारानी के हृदयेश्वर-प्राणेश्वर, करोड़ों-करोड़ों कामदेव की छवि को धूमिल करने वाले, कोटि-कोटि सूर्य की प्रभा से भी प्रभावान भगवान् श्रीकृष्ण मुरली मनोहर में ही है। संतजी आनंदविभोर हो गए, लाला जी का मानव जीवन धन्य हो गया। लाला का अहंकार ही सर्वोत्कृष्ट अहंकार सिद्ध हो गया। अतः भागवत जी में प्रवेश करते हुए प्रेमी भक्त अपने-अपने अहंकार को जगत् की वस्तुओं से हटाकर श्रीकृष्ण चरणारविन्दों में समर्पित करें। श्रीमद् भागवत माहात्म्य सच्चिदानंदरूपायविश्वोत्पन्त्यादिहेतवे। तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुमः।। (माहात्म्य 1-1) माहात्म्य के प्रथम श्लोक में परमात्मा के स्वरूप का वर्णन करते हुए नमस्कार की अद्भुत विलक्षणता है। भगवान् सच्चिदानंदस्वरूप हैं। उनके सद्रूप, चिद्रूप और आनंदरूप तीनों लक्षणों में सृष्टि-स्थिति प्रलय का समन्वय है। इसी प्रकार सत्-चित्-आनंद इन तीनों का सृष्टि स्थिति प्रलय में समन्वय है। सत्- जो परमात्मा सत्य रूप से सर्वत्र विद्यमान हैं। भूत-वत्र्तमान-भविष्य तथा जड़ चेतन में जिनकी सत्य या सत् रूप से सत्ता है। जीव स्वयं अनुभव करे तो ज्ञान हो जायेगा - ज्यों तिल माही तेल है ज्यों चकमक में आग। चित्त् जो ज्ञान शक्ति से संपन्न हैं। उनसे परे कोई ज्ञान ही नहीं है। ज्ञान के अगाध समुद्र हैं प्रभु। उनके ही किंचित् ज्ञान से जीव-जगत में डाॅक्टर, वकील, इन्जीनियर, एकाउन्टेंट, व्यापारी बन जाते हैं और अपने अहंकार में निमग्न हो तिरस्कारपूर्ण दृष्टि धारण कर लेते हैं। ज्ञान का मूल उद्देश्य तो उसी मार्ग में है, जिस मार्ग के द्व ारा ईश्वर को प्राप्त किया जा सके। पशु-पक्षियों में भी ज्ञान होता है। परंतु उनका ज्ञान खाने-पीने तक ही सीमित है। मानव का चित् (ज्ञान) विवेकपूर्ण होता है। अतः चित् को धन अर्जित करने का साधन मत बनाना प्रभु श्रीकृष्ण की प्राप्ति का साधन बना लेना ही श्रेयस्कर है। आनंद आनंद ही तो परमात्मा का तृतीय दिव्य स्वरूप है। आनंद को हर जीव प्राप्त करना चाहता है, पर वह प्राप्त कर पाता है? भागवत में आनंद ही आनंद है क्योंकि श्रीकृष्ण पूर्ण आनंद स्वरूप हैं। संतों ने दो प्रकार के आनंद बताए- 1. साधन जन्य आनंद जो साधन से प्राप्त हो वह साधन जन्य आनंद कहलाता है। जैसे किसी को रसमलाई खाने में आनंद आता है तो किसी को नहीं। ठीक इसी प्रकार संसार की सभी वस्तुओं में अलग-अलग व्यक्ति के लिए समय-समय पर कम अधिक आनंद प्राप्त होता रहता है। किसी को बड़े जोर की भूख लगी हो, उसे रसगुल्ले खाने को दिए जायें तो पहले रसगुल्ले की अपेक्षा उत्तरोत्तर आनंद का ह्रास होता चला जाता है और एक समय पूर्णता की स्थिति को प्राप्त हो व्यक्ति रसगुल्लों से मोह त्याग देता है। कहने का भाव यह है कि हर वस्तु में हर समय हर मानव को एक जैसा आनंद प्राप्त नहीं होता और प्राप्त होने वाले आनंद में स्थायित्व भी नहीं होता है। 2. स्वयं सिद्ध आनंद यह आनंद बड़ा ही विलक्षण आनंद है। इस आनंद में वस्तु का अभाव होता है तो भी आनंद प्राप्त होता है, विपरीत परिस्थितियों में भी आनंद प्राप्त होता है। श्री शुकदेव बाबा के पास कुछ भी नहीं था फिर भी आनंद में निमग्न रहते थे। एक संत विपरीत स्थिति में कांटों की सेज पर भी आनंद का अनुभव करता है तथा साधनों के अभाव में भी निरंतर आनंद प्राप्त करता रहता है। परंतु परिपूर्ण आनंद तो श्रीकृष्ण दर्शन से ही मिलती है। प्रभु मिलन के उपाय क्या हैं? 1. योगमार्ग (कर्म मार्ग) 2. ज्ञान मार्ग 3. भक्ति मार्ग। जिसमें कर्म मार्ग के द्वारा भगवान से मिलन नहीं हो सकता। कभी नल में पानी का अभाव रहेगा तो कभी बिजली नहीं आयेगी तो कभी शरीर अस्वस्थ हो जायेगा। प्रत्येक कर्म में मंत्र निहित है। मंत्रहीन कर्म सार्थक नहीं होगा तो भगवान् दर्शन नहीं और दर्शन नहीं तो मिलन नहीं। ज्ञान मार्ग से भी भगवत् दर्शन सहज नहीं क्योंकि ज्ञानी को ज्ञान का अहंकार हो जाता है, अतः अहंकार प्रभु मिलन में बाधक है। भक्ति मार्ग ही ऐसा एक दिव्य मार्ग है जिस मार्ग के द्वारा प्रभु से सहज ही मिलन हो जाता है। भक्त ध्रुव, प्रह्लाद आदि के चरित्र अनुकरणीय हैं।