अपेंडीसाइटीस अवयव का त्रास आचार्य अविनाश सिंह अपेंेिंेिंडिक्स खोख्ेखली 3 से 5 इंचंचंच की नली शरीर के लिए न तो उपयोगेगेगी है औरैरैर न ही यह शरीर में ें कोइेइेई कार्य करती है।ै।ै। परंतंतंतु भयानक स्थिति तब पैदैदैदा होतेतेती है,ै, जब यह सूजूजूज कर बड़ी़ी हो जाती है।ै।ै। ऐसेसेसी गंभ्ंभ्ंभीर अवस्था में ें शल्य चिकित्सा करवाना ही एक मात्र विकल्प रह जाता है।ै।ै। इसलिए इस रोगेगेग के बारे में ें जितनी जानकारी हो सके,े, रखें।ें।ें। अपेंडिक्स, बड़ी आंत के निचले हिस्से में (दायीं ओर) स्थित एक छोटा सा नाजुक अवयव होता है। वास्तव में यह आंत का ही एक अतिरिक्त हिस्सा है, जो मानव शरीर में पाया जाता है और पेट के अंदर किसी भी दिशा में घूम सकता है। भोजन के रूप में जो भी कुछ खाया-पीया जाता है, वह अमाशय से हो कर मलाशय में जाता है। यदि भोजन का कोई अंश आंत के शुरू के हिस्से में अटक कर सतह में पहुंच जाता है, तो वह अपेंडिक्स के वाल्व को बंद कर देता है। इसका परिणाम यह होता है कि सामान्यतः अपेंडिक्स से जो एक विशेष प्रकार का स्राव होता है, उसके निकलने का मार्ग अवरुद्ध होने से वह बाहर नहीं निकल पाता और अंदर ही सड़ने लगता है, जिसके कारण अपेंडिक्स में सूजन आ जाती है। इस तरह जब अपेंडिक्स संक्रमण ग्रस्त हो जाता है,तो अपेंडिसाइटिस रोग कहलाता है। अपेंडिसाइटिस का यह रोग शाकाहारियों की अपेक्षा मांसाहारियों को अधिक होता है और उन पर उसका असर भी अधिक तीव्र और भयंकर होता है। अमरूद, नींबू, संतरा आदि फलों के बीज, या किसी अन्य बाहरी वस्तु का अपेंडिक्स में फंस या रुक जाना, संक्रमण पैदा करने वाले जीवाणुओं का उस जगह पर पहुंच जाना, अपेंडिक्स में कठोरता पैदा हो जाना, क्षय रोग में जीवाणुओं द्वारा अपेंडिक्स का संक्रमित हो कर उसमें ट्यूबर सृदश आकृतियां बन जाना, अपेंडिक्स में कैंसर या अन्य प्रकार की रसौली उत्पन्न हो जाना, अपेंडिक्स के स्थान पर चोट आदि लग जाना, पुराना कब्ज संकोचक, गरिष्ठ और दोषयुक्त आहार का सेवन करना, अपेंडिक्स सिकुड़ जाना, उसमें रुकावट उत्पन्न हो जाना अपेंडिसाइटस के कारण होते हैं। अपेंडिसाइटिस का रोग बचपन और वृद्धावस्था में अधिक होता है। किंतु किसी भी आयु के व्यक्ति इससे मुक्त नहीं हैं। चार सप्ताह के शिशुओं में भी अपेंडिसाइटिस का रोग पाया जाता है। सामान्यतः अपेंडिसाइटिस दो प्रकार का होता है:- 1. श्लेष्मिक 2. व्रणयुक्त श्लेष्मिक अपेंडिसाइटिस: अपेंडिक्स के संपूर्ण भाग और उसकी मांसपेशियों की दीवारें मोटी हो जाती हैं तथा तंतुयुक्त रचनाएं उत्पन्न हो सकती हैं। इसका भीतरी भाग दूषित, लेसदार श्लेष्मिक सदृश द्रव से भर जाता है। यदि यह पुराना हो जाए, तो उसके अंदर थैली के समान रसौली बन जाती है, जो अंत में किसी भी समय फट जाती है और भयानक प्रकार की जटिलता उत्पन्न कर देती है। व्रणयुक्त अपेंडिसाइटिस: श्लेष्मिक अपेंडिसाइटिस के सभी लक्षणों के अतिरिक्त इसमें घाव भी बन जाते हैं और मवाद पड़ जाती है, जो इस रोग की एक अत्यंत भयानक स्थिति होती है। रोग के लक्षण: रोगी की नाभि के चारों ओर दर्द उठता है, जो कभी तीव्र और कभी धीमा होता है। यह दर्द क्योंकि किसी एक स्थान पर न हो कर नाभि के चारों और फैल जाता है, इसलिए रोगी के लिए यह बताना मुश्किल होता है कि दर्द किस स्थान पर हो रहा है। यह दर्द कुछ घंटों के उपरांत पेट के दाहिने हिस्से में नीचे की तरफ आ कर रुक जाता है। ऐसी स्थिति में रोगी को बुखार आ जाता है। उसे उल्टियां भी हो सकती हैं। उसकी भूख गायब हो जाती है। उसे खाने के प्रति अरुचि हो जाती है और आंतों में जलन महसूस होती है। अपेंडिक्स के संक्रमणग्रस्त हो जाने पर धीरे-धीरे यह नाजुक और छोटा सा अवयव सूज कर लाल हो जाता है। इस कारण जब डाॅक्टर रोगी के पेट के दाहिने भाग में नीचे की ओर हाथ रख कर दबाता है, तो रोगी तीव्र पीड़ा महसूस करता है। जब यह पीड़ा तीव्र होती है, तो डाॅक्टर इसे ‘एक्यूट अपेंडिसाइटिस’ कहते हैं और जब यह पीड़ा रुक-रुक कर हल्की-हल्की होती है, तो इसे ‘क्राॅनिक अपेंडिसाइटिस’ के नाम से पुकारते हैं। उपचार अपेंडिसाइटिस का एक मात्र स्थायी उपचार शल्य चिकित्सा है। परंतु यह जरूरी है कि शल्य चिकित्सा दर्द का दौरा पड़ने के 5 से 7 घंटे के भीतर हो जाए और यदि किन्हीं कारणों से अपेंडिसाइटिस का शल्य क्रिया निर्धारित समय में नहीं हुआ, तो फिर शल्य क्रिया के लगभग दो माह के उपरांत सूजन समाप्त होने पर करते हैं। इस दौरान रोगी को सूजन और संक्रमण दूर करने के लिए दवाएं दी जाती हैं। लेकिन जब एक बार अपेंडिसाइटिस का पता चल जाए, तो किसी भी स्थिति में शल्य क्रिया करवा ही लेनी चाहिए, क्योंकि घर के बाहर सफर करते हुए भी अपेंडिक्स में दर्द का दौरा कभी भी दुबारा उत्पन्न हो कर रोगी को बड़ी मुश्किल में डाल सकता है और सही समय पर उपचार न होने के कारण अपेंडिक्स फट भी सकता है। इस रोग में अपेंडिक्स को काट कर अलग किया जाता है। शल्य क्रिया के दूसरे दिन से रोगी को तरल भोजन, जैसे फलों का रस, दूध आदि दिया जाता है। 3-4 दिन बाद से पूरा भोजन दे सकते हैं। इसके अतिरिक्त प्राकृतिक चिकित्सा से रोगी का इलाज किया जाता है। मनुष्य के लिए प्रकृति द्वारा बनाया गया उपवास एक ऐसा सरल, सुरक्षित और सस्ता उपचार है, जो रोग की जड़ पर ही चोट करता है। परंतु यह इलाज तुरंत शुरू कर देना चाहिए। रोगी को लिटा कर रखना चाहिए और सिर्फ घूंट-घूंट कर के पानी पिलाते रहना चाहिए। गर्म पानी में तौलिया डुबो कर और उसे निचोड़ कर दर्द वाले स्थान पर रखना चाहिए। गर्म पानी का एनीमा तीन-चार दिन लगातार देना चाहिए। अगर एनीमा लेने में कष्ट हो, तो पहले दर्द कम होने का इंतजार करें। फिर एनीमा लें। एनीमा से नीचे की आंतें साफ होती हंै। चैथे दिन तक तबियत काफी सुधर जाएगी। तब पूरा एनीमा दें; अर्थात् एक लीटर से डेढ़ लीटर तक। पूरा एनीमा तब तक देते रहें, जब तक सूजन और दर्द पूरी तरह न चले जाएं। चैथे दिन से तीन बार फलों का रस, संतरा, अंगूर और अनानास आदि दें। चार बार पानी भी देना शुरू कर सकते हैं। इससे अधिक कुछ करने की जरूरत नही है। जैसे ही स्वास्थ्य लाभ हो और फलाहार खाने लगें, तो इस बात का ध्यान रखें कि उपवास एक दो-दिन अधिक किया जाए, तो कोई नुकसान नहीं, लेकिन कम करने से लाभ कम होगा। सप्ताह भर तबियत ठीक रहने पर धीरे-धीरे संतुलित भोजन देना शुरू करें और पूरी तरह स्वस्थ होने पर नियमित भोजन ले सकते हैं। पर उसमें गरिष्ठ भोजन तथा मांस, तले हुए खाद्य पदार्थ आदि तथा डिब्बा बंद तैयार पदार्थों के सेवन पर नियंत्रण रखें। हरी सब्जियंा, रेशेदार फलों का अधिक सेवन करें, जो कब्ज और अपच जैसे रोगों से भी बचाते हैं। लेकिन इतने से ही यह नही समझ लेना चाहिए कि अपेंडिसाइटिस से बच जाएंगे, क्योंकि कभी-कभी खान-पान में छोटी सी भूल भी इसका कारण बन सकती है और अंगूर, टमाटर, अनार आदि का छोटा सा दाना बड़ी आंत के प्रारंभिक भाग में अटक कर उसकी तह में पहुंच जाता है। इसलिए भोजन को सावधानीपूर्वक चबा-चबा कर खाना चाहिए। ज्योतिषीय दृष्टिकोण: ज्योतिषीय आधार पर अपेंडिक्स का कारक ग्रह शुक्र है। जब शुक्र दुष्ट ग्रहों के प्रभाव में रहता है, तो अपेंडिसाइटिस होता है। षष्ठ भाव शरीर के आंतों का स्थान है और अपेंडिक्स आंत का ही एक छोटा सा भाग होता है। इसलिए अपेंडिक्स को षष्ठ भाव से ही समझना होगा। लग्न, षष्ठ भाव, शुक्र ग्रह अगर सूर्य, मंगल, शनि, राहु, केतु के प्रभाव में हों, तो इनकी दशा-अतर्दशा में अपेंडिक्स का आक्रमण होता है। विभिन्न लग्नों में अपेंडिसाइटिस: मंगल षष्ठ भाव में शनि से युक्त हो और शुक्र अष्टम भाव में शनि से दृष्ट हो तथा सूर्य सप्तम भाव में राहु-केतु से युक्त या दृष्ट हो। वृष लग्न: शुक्र बारहवें भाव में केतु से युक्त हो, शनि तृतीय भाव में सूर्य से अस्त हो, मंगल षष्ठ भाव में हो, तो अपेंडिसाइटिस की शल्य चिकित्सा होती है। मिथुन लग्न: मंगल षष्ठ भाव से केतु के संग युति बनाए, शुक्र सप्तम भाव में गुरु से युक्त हो और शनि नवम भाव में अस्त हो। कर्क लग्न: मंगल तृतीय स्थान में बुध के साथ हो और राहु या केतु से दृष्ट हो, चंद्र-शुक्र षष्ठ भाव में शनि से युक्त या दृष्ट हों, तो अपेंडिसाइटिस का आक्रमण होता है। सिंह लग्न: लग्न में बुध, शुक्र, मंगल, षष्ठ भाव में शनि, चतुर्थ भाव में सूर्य राहु-केतु से दृष्ट या युक्त हो। कन्या लग्न: शुक्र षष्ठ भाव में मंगल से दृष्ट या युक्त हो, बुध अष्टम और सूर्य सप्तम भाव में गुरु के साथ रहे, तो अपेंडिसाइटिस रोग होता है। तुला लग्न: शुक्र अष्टम भाव में सूर्य से अस्त और मंगल ग्यारहवें भाव में केतु से युक्त हो, गुरु षष्ठ भाव में हो, तो भी अपेंडिसाइटिस होता है। वृश्चिक लग्न: शुक्र षष्ठ भाव में मंगल से दृष्ट हो, मंगल ग्यारहवें भाव में, शनि लग्न में और बुध षष्ठ भाव में अस्त हो। धनु लग्न: शुक्र लग्न में शनि से युक्त और दृष्ट हो और सूर्य बारहवें भाव में केतु से युक्त हो तथा मंगल ग्यारहवें भाव में हो। मकर लग्न: शुक्र लग्न में मंगल से युक्त और सूर्य से अस्त हो, शनि षष्ठ भाव में हो और केतु से युक्त हो तथा गुरु द्वितीय भाव में हो। कुंभ लग्न: लग्नेश शनि और शुक्र दोनों अस्त हो कर षष्ठ भाव, अष्टम भाव हो और मंगल से दृष्ट हो, गुरु षष्ठ भाव में केतु के साथ हो। मीन लग्न: गुरु-बुध षष्ठ भाव में मंगल से दृष्ट हों और शुक्र सप्तम भाव में सूर्य से अस्त हो तथा शत्रु लग्न में सप्तम हो, तो अपेंडिसाइटिस का आक्रमण होता है। उपर्युक्त सभी ग्रह स्थितियां चलित पर आधारित हैं और इन्हीं ग्रहों की दशा-अंतर्दशा में रोग की उत्पत्ति गोचर ग्रह के अनुसार माननी चाहिए एवं जब तक दशा-अंतर्दशा और गोचर प्रतिकूल रहेंगे, रोग भी रहेगा। तत्पश्चात रोग से छुटकारा मिल जाएगा।