राहु और केतु का ज्योतिष में महत्व ज्योतिष में राहु और केतु को छाया ग्रह माना गया है। ये राहु और केतु क्या हैं, और छाया ग्रह से क्या तात्पर्य है? राहु और केतु खगोलीय बिंुद हैं जो चंद्र के पृथ्वी के चारों ओर चक्कर लगाने से बनते हैं। क्योंकि ये केवल गणित के आधार पर बनते हैं, इसलिए काल्पनिक हैं और इनका कोई भौतिक अस्तित्व नहीं है। इसीलिए ये छाया ग्रह कहलाते हैं। छाया ग्रह का अर्थ किसी ग्रह की छाया से नहीं है अपितु ज्योतिष में वे सब बिंदु जिनका भौतिक अस्तित्व नहीं है, लेकिन ज्योतिषीय महत्व है, छाया ग्रह कहलाते हैं जैसे गुलिक, मांदी, यम, काल, मृत्यु, यमघंटक, अर्द्धप्रहर, धूम, व्यतिपात, परिवेष, इंद्रचाप व उपकेतु आदि। ये सभी छाया ग्रह की श्रेणी में आते हैं और इनकी गणना सूर्य व लग्न की गणना पर आधारित होती है। ज्योतिष में कई बार छाया ग्रह का महत्व अत्यधिक हो जाता है क्योंकि ये ग्रह अर्थात बिंदु मनुष्य के जीवन पर विषेष प्रभाव डालते हैं। पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा एक समतल में करती है। चंद्र भी पृथ्वी की परिक्रमा एक समतल में करता है। लेकिन यह पृथ्वी के समतल से एक कोण पर रहता है। दोनों समतल एक दूसरे को एक रेखा पर काटते हैं। एक बिंदु से चंद्र ऊपर और दूसरे से नीचे जाता है। इन्हीं बिंदुओं को राहु और केतु की संज्ञा दी गई है। सूर्य, चंद्र, राहु एवं केतु जब एक रेखा में आ जाते हैं, तो चंद्र और सूर्य ग्रहण लगते हैं। जब राहु और केतु की धुरी के एक ओर सभी ग्रह आ जाते हैं, तो काल सर्प योग की उत्पत्ति होती है। राहु और केतु का प्रभाव केवल मनुष्य पर ही नहीं बल्कि संपूर्ण भूमंडल पर महसूस किया जा सकता है। जब भी राहु या केतु के साथ सूर्य और चंद्र आ जाते हैं तो ग्रहण योग बनता है। ग्रहण के समय पूरी पृथ्वी पर कुछ अंधेरा छा जाता है एवं समुद्र में ज्वार उत्पन्न होते हैं। ज्योतिष में राहु और केतु के द्वारा अनेक योगों का निर्माण होता है। इनमें काल सर्प योग सर्वाधिक चर्चित है। राहु व केतु से बनने वाले कुछ मुख्य योग निम्नलिखित हैं। राहु और केतु के मध्य सभी ग्रहों के आ जाने से काल सर्प योग बनता है। काल सर्प योग की स्थिति में जिस भाव में राहु स्थित होता है उस भाव की हानि होती है। सूर्य और राहु की युति के कारण पितृ दोष का निमार्ण होता है, जिससे जातक के कुटुंब की हानि होती है या उसे विषेष कष्ट का सामना करना पड़ता है। चार ग्रह राहु से युत हों तो मालानानाप्रद योग का निर्माण होता है। इससे जातक को राजकीय वैभव और संपत्ति की प्राप्ति होती है। राहु व गुरु की युति से गुरु चांडाल योग बनता है जिसके फलस्वरूप जातक कपटी व अविष्वासी होता है। शुक्र व राहु की युति से अभोत्वक योग, बुध व राहु की युति से जड़त्व, शनि व राहु की युति से नंदी, मंगल व राहु की युति से अंगारक एवं सूर्य और चंद्र के साथ राहु या केतु की युति से ग्रहण योग का निर्माण होता है। शनि व राहु की युति नंदी योग का निर्माण करती है, जिससे जातक यष, सुख और समृद्धि का स्वामी होता है, लेकिन जिस भाव में यह युति होती है, उस भाव के कष्ट प्रदान करती है जैसे लग्न में रोग, द्वितीय में धन संकट, तृतीय में पराक्रम की हानि, चतुर्थ में माता को कष्ट, पंचम में संतान को कष्ट, सप्तम में जीवनसाथी को कष्ट, दषम में व्यवसाय में अस्थिरता आदि। बारहवें भाव में केतु मुक्ति प्रदान करता है। ग्यारहवें भाव में राहु शक्ति योग का निर्माण करता है, जिसके कारण जातक समाज में अत्यंत प्रभावषाली होता है। साथ ही पंचम केतु जातक को दैवज्ञता प्रदान करता है और ज्योतिष आदि में उसकी रुचि जगाता है। चंद्र और राहु लग्न में हों तो जातक को भूत-प्रेत जन्य बाधाओं का सामना करना पड़ता है। उसकी मनःस्थिति कमजोर रहती है। राहु अधिष्ठित भाव का स्वामी तीसरे भाव के स्वामी के साथ हो तो सर्प भय योग का निर्माण होता है। ऊपर वर्णित तथ्यों से यह स्पष्ट हो जाता है कि जातक के जीवन में राहु और केतु की भूमिका अहम होती है। दषा फल में भी राहु की 18 वर्ष की लंबी अवधि इसकी महत्ता को दर्षाती है। गोचर में इसकी गति 18 वर्ष होने के कारण शनि के बाद यह दूसरा सर्वाधिक महत्वपूर्ण ग्रह है। राहु और केतु का सीधा संबंध चंद्र से होने के कारण इनका महत्व प्रथम श्रेणी में आ जाता है क्योंकि चंद्र से पृथ्वी की दूरी अन्य सभी ग्रहों की तुलना में सबसे कम होने के कारण पृथ्वी पर इसका प्रभाव सबसे अधिक पड़ता है। अतः राहु को सदा अपने अनुकूल बनाए रखें और इसके लिए निम्नलिखित मंत्र का नियमित रूप से जप करें। ¬ अर्धकायं महावीर्यं चन्द्रादित्यविमर्दनम्। सिंहिकागर्भसम्भूतं तं राहुं प्रणमाम्यहम्।