कजली तीज व्रत व् पर्व पं. ब्रज किशोर भारद्वाज ब्रजवासी श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को हरियाली तीज या कजली तीज के नाम से जाना जाता है। यह व्रत व पर्व दोनों ही रूपों में प्रसिद्ध है। इसमें परविद्धा तृतीया ग्राह्य है। यदि इस तिथि को श्रवण नक्षत्र हो तो इसका महत्व और भी बढ़ जाता है। श्रवण नक्षत्र न भी हो तो भी भगवान विष्णु का पूजन करके व्रत करना श्रेयस्कर है। भगवान विष्णु की षोडशोपचार पूजा करें, उनकी दिव्य कथाओं एवं चरित्रों का श्रवण करते हुए विष्णु सहस्रनाम तथा ¬ नमो नारायणाय, ¬ विष्णवे नमः आदि मंत्रों का जप करें। व्रत में व्रतदेवता के मंत्र का उच्चारण करते हुए विशिष्ट हविद्रव्य से हवन करना चाहिए। विद्वान सदाचारी ब्राह्मण को ब्राह्मणी सहित भोजन करा कर दक्षिणा, द्रव्य एवं वस्त्राभूषणादि के साथ विदा करें। इस व्रत के प्रभाव से मानव के चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष की सहज प्राप्ति होती है। भगवान विष्णु की कृपा से असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मा अमृतगमय के मार्ग का साधन सुलभ हो जाता है। इस पावन दिन में गोदान, अन्नदान, वस्त्रदान, धनदान, विद्यादान इत्यादि करने से कल्याण होता है। सुख-संपत्ति, आयुष्य एवं सौभाग्य आदि की प्राप्ति होती है। इस तिथि को स्त्रियां भवानी पार्वती का भी पूजन करती हैं। भक्तजन संपूर्ण शिव परिवार का पूजन करके आनंदमग्न होते हैं। इस व्रत में तीन बातें त्याज्य हंै - पति से छल कपट, मिथ्याचार एवं दुव्र्यवहार तथा परनिंदा। इस पावन व्रत को करने के लिए प्रातः काल सूर्योदय से पूर्व ही दैनिक क्रियाओं से निवृत्त हो संकल्प लेकर ही भगवत् आराधना करें, क्योंकि संकल्प ही सिद्धियों का मूल है। समस्त उत्तर भारत में तीज पर्व बड़े उत्साह और धूमधाम से मनाया जाता है। बुंदेलखंड के जालौन, झांसी, दतिया महोबा, ओरछा आदि क्षेत्रों में इसे हरियाली के नाम से मनाते हैं। प्रातः काल उद्यानों से विभिन्न वृक्षों जैसे आम, पीपल, अशोक, कदंब आदि के पत्तों सहित टहनियां तथा पुष्प गुच्छ लाकर पूजा स्थान के पास स्थापित झूले को इनसे सजाते हैं और दिनभर उपवास रखकर भगवान श्रीकृष्ण के विग्रह को झूले में रखकर श्रद्धा से झुलाते हैं। ओरछा, दतिया और चरखारी का तीज पर्व श्रीकृष्ण के दोलारोहण के रूप में वृन्दावन जैसा दिव्य होता है। बनारस, जौनपुर आदि पूर्वांचल जनपदों में तीज पर्व ललनाओं के कजली गीतों से गुंजायमान होकर विशेष आनंद देता है। प्रायः विवाहित नवयुवतियां श्रावणी तीज अपने पीहर में मनाती हैं। इस पवित्र दिन सुंदर से सुंदर विभिन्न प्रकार के पकवान बनाकर बेटियों को भेजे जाते हंै। सुहागी सास के पांव छूकर उसे दिया जाता है। यदि सास न हो तो जेठानी या किसी वयोवृद्धा को देना शुभ होता है। इस तीज पर मेहंदी लगाने का विशेष महत्व है। स्त्रियों के पैरों में महावर की शोभा तो अनोखी होती है। नवीन परिधानों व आभूषणों से सुसज्जित नारियों का सौंदर्य अति मनोहर होता है। वैसे इस उत्सव को भारत वर्ष के विभिन्न प्रांतों में मनाया जाता है, परंतु राजस्थान में इसका अपना ही महत्व है। यहां प्रचलित लोक कथा के अनुसार, इसी दिन गौरा विरहाग्नि में तपकर शिव से मिली थीं। इस दिन जयपुर में राजपूत लाल रंग के कपड़े पहनते हैं और श्री पार्वतीजी की सवारी बड़ी धूम-धाम से निकाली जाती है। राजस्थान में तीज पर्व ऋतु उत्सव के रूप में सानंद मनाया जाता है। सावन में सुरम्य हरियाली तथा मेघ को देखकर लोग हर्षोल्लास के साथ यह पर्व मनाते हंै। इस दिन आसमान में घुमड़ती काली घटाओं के कारण इस पर्व को कजली तीज अथवा धरती पर हरियाली होने के कारण हरियाली तीज के नाम से पुकारते हैं। श्रावण शुक्ल तृतीया को बालिकाएं एवं नवविवाहिताएं इस पर्व को मनाने के लिए एक दिन पूर्व अपने हाथों तथा पांवों में कलात्मक ढंग से मेहंदी लगाती हैं जिसे मेहंदी-मांडणा के नाम से जाना जाता है। दूसरे दिन वे प्रसन्नता से अपने पिता के घर जाती हैं, जहां उन्हें नई पोशाकें, गहने आदि दिए जाते हैं तथा भोजन-पकवान आदि से तृप्त किया जाता है। राजस्थानी लोकगीतों के अध्ययन से पता चलता है कि नवविवाहिता दूरदेश गए अपने पति के तीज पर्व पर आने की कामना करती है। तीज पर्व संबंधी अन्य लोकगीतों में नारीमन की मार्मिक मनोभावना इस प्रकार सुंदर रूप में व्यक्त हुई है- सावोणी री कजली तीज, साजन प्यारा पावणां जी। नीमडली .. ।। साहिवा जी हिवडा न आस घड़ाय दलडी तो महंगा मोल की जी। नीमडली .. ।। कजली तीज पर इस कुलकामिनी की कामना निम्नलिखित लोकगीत में इस रूप में भी व्यक्त होती है- मारा माथा न मेमद लाय, मारा अनजा मारु यही हो रहो जी। यहीं ही रहो जी, लखपतिया ढोला यही हो रहो जी। इस उमंग पर्व के बुहविध भावों में एक भाव यह भी द्रष्टव्य है- राज म्हारी नाव घटा पर कजली तीज, तीजा जो पधारो जी म्हाका सिरधार राज म्हारा माथा न में मदल्याय रखड़ी मुलाओ जी। राज म्हारी नाव’’।। तीज पर्व का उत्कृष्ट स्वरूप एवं लोक जीवन में महत्व इस गीत में इस प्रकार व्यक्त हुआ है- पगल्या न पायल लाय जो ढोला, साहिबा जी घूंगरा रतन जड़ायें मुकनगढ़ हो जी किशनगढ़ चाकरी, ढोला साहिबा जी, तीज सुण्यां घर आय। तीजा तो तीजा करा ढोला, तीजा को बड़ो है त्यौहार।। तीजा तो तीजा पे करो गोरी, म्हारीं जैरण होई छ बनास। थाकों तो दुकाना रो बैठबो, ढोला म्हाकों गली को निकास।। इस तीज-त्योहार के अवसर पर राजस्थान में झूले लगते हैं और नदियों या सरोवरों के तटों पर मेलों का सुंदर आयोजन होता है। इस त्योहार के आस-पास खेतो में खरीफ फसलों की बोआई भी शुरू हो जाती है। अतः लोकगीतों में इस अवसर को सुखद, सुरम्य और सुहावने रूप में गाया जाता है। मोठ, बाजरा, फली आदि की बोआई के लिए कृषक तीज पर्व पर वर्षा की महिमा मार्मिक रूप में व्यक्त करते हैं। प्रकृति एवं मानव हृदय की गहरी भावना की अभिव्यक्ति तीज पर्व में निहित है।