मदर टेरेसा
मदर टेरेसा

मदर टेरेसा  

व्यूस : 7668 | आगस्त 2008
मदर टेरेेसा पं. शरद त्रिपाठी मैकेडोनिया का एक छोटा सा खूबसूरत कस्बा है। जिसकी आबादी लगभग 100 साल पहले मात्र कुछ हजार थी। यहीं 26 अगस्त 1910 को 14 बजकर 25 मिनट पर निकोलस बोजास्क्यू और ड्रेनफाइल दंपति के घर उनकी सबसे छोटी पुत्री का जन्म हुआ और उसका नाम रखा गया एग्नेसबोजा बोजिस्क्यू। तब इनकी बड़ी बहन छह साल की और बड़ा भाई लार्जन 3 साल का था। एग्नेस जब मात्र 8 वर्ष की थी, तभी उसके पिता का निधन हो गया। बचपन मां के अंाचल के साये में गुजरा और अपनी मां को देखकर ही उसके जीवन में अध्यात्म का समावेश होता गया। ऐसे वातावरण के प्रभाव से ही एग्नेस (मदर टेरेसा) 8 वर्ष की नन्ही सी उम्र में नन बनने का सपना देखने लगी। उसके प्रारंभिक जीवन पर फादर जेबे्रकोविक का काफी आध्यात्मिक प्रभाव था जो मिशनरीज की एक संस्था सोलिडैरिटी से जुड़े थे। एग्नेस को मिशनरीज की बातें बहुत प्रेरणा देती थीं। 18 वर्ष की उम्र तक पहंुचते-पहुंचते उसकी धारण दृढ़ हो गई। दुःखी या रोगग्रस्त लोगों को देखकर ही वह (मदर टेरेसा) रो पड़ती थी। अपने अंदर ही अंदर वह सवाल करतीं कि आखिर मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है। और एक दिन उन्हें अपने सवाल का जवाब मिल गया। उन्होंने तय कर लिया कि दीन दुःखियों की सेवा में ही अपना जीवन होम करना है। फिर एग्नेस अपने जीवन के उद्देश्य को पूर्ण करने के लिए आयरलैंड के राजफारहैम के सिस्टर्स आॅफ लोरेटो मिशन के साथ जुड़ गईं। यहीं पर उन्होंने अंग्रेजी की शिक्षा प्राप्त की। यहीं उन्हें सेवा भाव और संगठन का प्रारंभिक प्रशिक्षण मिला, जो बाद में मिशनरीज आॅफ चैरिटी की स्थापना के समय उनके बेहद काम आया। वह यहां की नन के सेवाभाव को देखकर दंग रह गईं। यहां काफी समय तक उनका प्रशिक्षण चला। फिर उन्हें भारत भेजने का फैसला किया गया। लोरेटो मुख्यालय से शिक्षा पूर्ण कर वह सन् 1929 में कोलकाता पहंुच गईं। बाद में पुनः प्रशिक्षण के लिए दार्जिलिंग में रहीं। वहां दो वर्ष तक उन्होंने नैतिकता, आंग्ल भाषा, बंगाली भाषा आदि की शिक्षा प्राप्त की। सन् 1931 में महान् संत टेरेसा से प्रभावित होकर अपना नाम टेरेसा रख लिया। प्रशिक्षण के उपरांत उन्हें कोलकाता के सेंट मैरी स्कूल में भेजा गया। वहां वह 17 वर्ष तक भूगोल, इतिहास, धर्म आदि पढ़ाती रहीं। वहां स्कूल के बाद बच्चांे को नहलाती-धुलाती और पढ़ाई करवाती रहीं। सन् 1944 में स्कूल की प्रिंसिपल की जगह टेरेसा को दी गई, तब से वह मदर कही जाने लगीं। आइए इस घटना काल को ज्योतिषीय दृष्टि से देखते हैं। हम सबसे पहले विश्लेषण करते हैं कि यह एग्नेस इतनी महान संत कैसे बनी। जब किसी व्यक्ति को बिना किसी स्वार्थ के सेवा करनी होती है तो उसके लिए सर्वप्रथम निश्छल मन के साथ सेवाभाव का होना बहुत जरूरी होता है। ज्योतिष में मन का कारक ग्रह चंद है और सेवाभाव का कारक शनि है। चंद और शनि के साथ पचंम भाव का संयोग हो तो जातक का मन एक बच्चे की तरह निर्मल भावनाओं से भरा होता है। प्रस्तुत कुंडली में पचंम भाव में चंद्र और शनि एक साथ मेष राशि में स्थित हैं। मेष में शनि नीच का होता है, इसलिए मदर टेरेसा की सेवा भावना गरीबों दीन-दुखियों रोगियों आदि के लिए थी। इस एक महान योग ने उन्हें महान सेवी संत बनाया। सन् 1917 से 1927 तक मदर की चंद्र की महादशा रही। चंद्र इनके पिता के भाव (नवम भाव) से द्वादश का स्वामी है अर्थात् नवम के व्ययेश चंद्र-चंद्र की दशा में पिता का निधन हुआ। पर, इसी अष्टमेश चंद्र ने इन्हंे इतने गंभीर निर्णय (नन बनने) के लिए पे्ररित किया। सन् 1927 से 1934 तक इनकी मंगल की महादशा चली। इस मंगल ने, जो पंचमेश होकर अपने से पचंम अर्थात् नवम भाव में नवमेश शुक्र के साथ स्थित है, इनहंे उच्च शिक्षा के प्रति प्रेरित किया। सन् 1929 में मंगल में गुरु चल रहा था। मंगल पंचमेश होने के साथ-साथ द्वादश भाव का भी स्वामी है, इसलिए वह विदेश यात्राएं भी करती रहीं और इसलिए वह अंततः मदर भारत वर्ष के कोलकाता शहर आ गईं। मिशनरीज आॅफ चैरिटी की स्थापना के पीछे की कहानी भी काफी अलग है। एक बार मदर को अध्ययन काल में ही दार्जिलिंग जाना पड़ा। यह सन् 1946 की बात है। उन्हें सफर के दौरान ट्रेन में ऐसा लगा, मानो कोई उन्हें पुकार-पुकार कर कह रहा हो कि अपने जीवन का उद्देश्य पूरा करो, दीन-दुखियों की सेवा करो। इस घटना के बाद उन्हें चैन नहीं मिला और लौटते ही वह फादर एक्सेम से मिलीं और अपना अनुभव बताया। फादर ने लोरेटो मुख्यालय से बात की और 1948 में मदर लोरेटो से मुक्त कर दी गईं। यहीं से उन्होंने पूर्ण रूप से भारतीय परिधान अपना लिया और नीली किनारी की सफेद साड़ी धारण करने लगीं। 9 दिसंबर 1948 को मदर कोलाकाता लौटीं, लेकिन अब एक नई समस्या से उनका सामना हुआ। वह कैसे अपना काम शुरू करें, क्योंकि तत्काल धन की कोई व्यवस्था नहीं थी। अस्तु, वह मोतीझील की गरीब बस्ती में बच्चों को पढ़ाने लगीं। प्रारंभ में 5 बच्चों के साथ पेड़ के नीचे कक्षा लगाई गई। फिर धीरे-धीरे धन की व्यवस्था होने पर बच्चों की संख्या भी बढ़ने लगी और 56 तक पहुंच गई। अब मदर का आत्मविश्वास बढ़ने लगा। अध्यापन के साथ-साथ ही वे गरीब मरीजों की सेवा भी करती थीं। स्कूल के बरामदे में ही एक छोटी सी डिस्पंेसरी बना दी गई थी। अब इस काल का ज्योतिषीय विश्लेषण करते हैं। सन् 1934 से 1952 तक राहु की महादशा रही। राहु छठे भाव में और सूर्य के नक्षत्र में है। राहु और सूर्य में परस्पर शत्रुता भी है, इसलिए इस महादशा के 18 वर्षों के दौरान राहु ने इनसे कठिन श्रम व संघर्ष करवाया, पर इसी राहु ने प्रसिद्धि भी दिलवाई। सन् 1948 में राहु में शुक्र का अंतर चल रहा था। शुक्र अष्टम में कर्क राशि में स्थित है तथा षष्ठेश और लाभेश भी है, इसलिए इन्हें अपने मुख्यालय से पृथक किया गया, क्योंकि राहु पृथकतावादी ग्रह है। पृथक होने के बाद लाभ भी मिला क्योंकि शुक्र लाभेश भी है। सन् 1949 में मदर को कोलकाता म्यूनिसिपल बोर्ड ने दक्षिणेश्वर काली मंदिर के पास एक जगह दे दी, जहां वे रोगियों की सेवा कर सकती थीं। वहां पर मंदिर के पुजारियों ने इसका कड़ा विरोध किया। लेकिन जब लोगों ने इन्हें एक मां असहायों, गरीबों की सेवा की तरह करते देखा तो पुजारियों का विरोध नरम पड़ने लगा। 17 अक्टूबर 1950 को वेटिकन की अनुमति से एक महान् मिशन की शुरुआत हुई, जिसे ‘मिशनरीज आॅफ चैरिटी’ का नाम दिया गया। विश्व मानवता के एक प्रमुख केंद्र के रूप में 54 ए, लोअर सकुर्लर रोड, कोलकाता का प्रमुख स्थान है। इसे भले ही मिशनरीज आॅफ चैरिटी का केंद्र कहा जाता हो, पर आम लोग इसे ‘मदर हाउस’ ही कहते हैं। आज 131 देशों में इसके 700 से ज्यादा केंद्र हैं और 4500 से अधिक सिस्टर्स सेवा कार्य में लगी हैं। मदर के सेवा भाव के आधार पर भारत सरकार ने उन्हें 1962 में पद्मश्री सम्मान प्रदान किया। इसके बाद सन् 1979 मंे स्वीडन के स्टाकहोम में उन्हें विश्व के सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार ‘नोबेल पुरस्कार’ से नवाजा गया। वैसे, उन्हें ‘संत’ की उपाधि मिलने में काफी समय लग गया। मदर कब भारत आईं, कब यहां की मिट्टी में रच-बस गईं, लोगों को पता ही नहीं चला। वे भले भारत में नहीं जन्मीं, पर यहां के दीन-दुखियों में उनकी आत्मा बसती है। इसे सारी घटनाओं अब हम ज्योतिष की दृष्टि से देखते हैं। शुक्र के षष्ठेश होने के कारण राहु-शुक्र के अंतर में मदर को कोलकाता में पुजारियों के विरोध का सामना करना पड़ा, लेकिन मार्च 1949 के बाद जैसे ही राहु-सूर्य अर्थात् भाग्येश सूर्य का अंतर प्रारंभ हुआ, वैसे ही विरोध समाप्त होने लगा, लोगों का सहयोग मिलने लगा तथा ‘मिशनरीज आॅफ चैरिटी’ का शुभारंभ हुआ। 26 जनवरी 1962 को इनका गुरु का अंतर चल रहा था और उस समय गुरु मकर राशि पर भ्रमण कर रहा था, इसलिए इनका जन्माकालीन लग्नेश व गुरु का आपस में नवम् और पंचम दृष्टि संबंध बन रहा था। इस समय गुरु की महादशा और प्रत्यंतर के साथ-साथ लाभेश शुक्र की अंतर्दशा थी। इस तरह महादशा और गोचर के योग ने राष्ट्रपति से इन्हें पद्मश्री सम्मान दिलाया। सन् 1979 से उनका शनि-सूर्य का अंतर चल रहा था। उसी वर्ष भाग्येश सूर्य ने इन्हें ‘नोबल शांति पुरस्कार’ दिलाया। शनि और सूर्य में पिता पुत्र का संबंध है और दोनों ही पंचम व नवम अर्थात् त्रिकोण में स्थित हंै। धीरे-धीरे इस करुणा की मूर्ति पर देश ने भी अपना प्यार न्योछावर किया और उन्हें भारत वर्ष का सर्वोच्च पुरस्कार ‘भारत रत्न’ प्रदान किया गया। ये पहली गैर भारतीय थीं, जिन्हें यह पुरस्कार दिया गया। मदर ने एक बार कहा था, ‘मुझे हमेशा सपने में दिखाई देता है कि मैं स्वर्ग के द्वार पर खड़ी हूं और सेंट पीटर द्वार पर ही खड़े होकर कह रहे हैं कि वापस जाओ। यहां गरीबों, असहायों की कोई बस्ती नहीं है।’ मदर 58 वर्षों तक सेवा कार्य में जुटी रहीं। सन् 1989 में इन्हें पेसमेकर लगाया गया और डाॅक्टरों ने उन्हें काम कम करने की सलाह दी, पर वे अपने कार्यों में लगी रहीं। उनका कहना था कि ईश्वर हमारे दिल में है, मुस्कराहटों में है। गरीबों, दुखियों को जीवन में यही मुस्कराट बांटती हुई, दिनांक 5 सितंबर 1997 को वह चिर निद्रा में लीन हो गईं। आइये इस जन्म पत्रिका के कुछ और ज्योतिषीय कारण जानें। ऊपर वर्णित कारणों के अलावा अन्य कई ग्रहों की स्थितियां इस कंुडली में पड़ी हैं जिन्होंने मदर को ख्याति के शिखर पर पहुंचाया। जैसे दशम भाव में बुध गुरु स्थित हंै अर्थात्लग्नेश गुरु और दशमेश बुध उच्च का है। बुध 6 अंश का होने के कारण सूर्य के नक्षत्र में है। सूर्य भाग्येश है। लग्नेश गुरु चंद्र के नक्षत्र में है। ज्योतिष में सूर्य और चंद्र पिता और माता के स्थिर कारक हैं, अतः इस योग के फलस्वरूप इस जातका ने अपने कार्य क्षेत्र में माता और पिता की भांति सारे कार्य संपादित किए। वैसे भी गुरु दान का कारक है। गुरु जिस भाव में होता है व्यक्ति उसी के अनुरूप दान करता है। गुरु इनके दशम भाव में है, इसलिए इन्होंने अपने कार्य क्षेत्र को ही सेवा भाव का दान प्रदान किया। 8 फरवरी 1997 से इनकी बुध-राहु की अंतर्दशा प्रारंभ हो गई थी। बुध वक्री होकर मारकेश भी है। सन् 1997 में लग्नेश गुरु मकर राशि अर्थात् द्वितीय भाव (मारक स्थान) में चल रहा था। राहु सिंह राशि में चल रहा था और अपनी पचंम दृष्टि से लग्न स्थान को देख रहा था। फलतः इनकी मृत्यु हुई। शारीरिक रूप से यह महान संत भले ही दीन-दुखियों के बीच अब नहीं रहीं, लेकिन उनका स्थान सबके दिलों में बरकरार है। मानव सेवा के इतिहास में उनका नाम अमर रहेगा।



Ask a Question?

Some problems are too personal to share via a written consultation! No matter what kind of predicament it is that you face, the Talk to an Astrologer service at Future Point aims to get you out of all your misery at once.

SHARE YOUR PROBLEM, GET SOLUTIONS

  • Health

  • Family

  • Marriage

  • Career

  • Finance

  • Business


.