प्रश्नः सूर्य ग्रहण और चंद्र ग्रहण का प्रभाव जातक की कुंडली पर किस प्रकार देखा जा सकता है? इस प्रकार की अवधि किस प्रकार निश्चित की जाती है? इसके दुष्प्रभावों से बचने के लिये क्या-क्या उपाय और कब किये जाने चाहिए? सूर्य ग्रहण तथा चंद्र ग्रहण का मानव जीवन पर पड़ने वाले शुभाशुभ प्रभावों का वैदिक काल से ही वर्णन प्राप्त होता है। पुराणों में इस विषय पर विस्तृत चर्चा मिलती है। महाभारत में भी युद्धकाल में हुए ग्रहणों तथा उनके अशुभ प्रभावोत्पादकता का विशद् वर्णन हुआ है। ग्रहण के कारण उत्पन्न अशुभ फलों के नाश के लिए सूर्य तथा चंद्र ग्रहण के समय स्नान, हवन, देव-पूजन तथा दानादि का विशेष महत्व बताया गया है।
कुंडली पर सूर्यग्रहण व चंद्रग्रहण का प्रभाव: ज्योतिष की दृष्टि में सूर्य व चंद्रमा का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है क्योंकि सूर्य को जगत की आत्मा व चंद्रमा को मन माना जाता है तथा ग्रहण के समय सूर्य व चंद्रमा राहु के दुष्प्रभाव में होने से दुर्बल स्थिति में होते हैं ग्रहण का प्रभाव पृथ्वी पर प्रत्येक जीव पर पड़ता है। ग्रहण के समय पूरे सौरमंडल में विकार उत्पन्न हो जाता है। सूर्य का प्रकाश ही पृथ्वी पर जीवन का कार्य करता है। अतः सूर्य की किरणों के अभाव में सभी व्यक्तियों को व्याकुलता प्रतीत होती है तथा हानिकारक तरंगे भी इस समय में निकलती हैं। चंद्रग्रहण में भी रात्रि में चंद्रमा की रोशनी के अभाव में मन व्याकुल होता है। निशाचर प्राणी इससे विशेष प्रभावित होते हैं। ज्योतिष की दृष्टि में ग्रहण एक अशुभ घटना तो है परंतु इसका दुष्प्रभाव किसी व्यक्ति पर अधिक किसी पर मध्यम व किसी पर सामान्य होता है। ग्रहण जिस राशि में व नक्षत्र में बनता है उस राशि के जातकों पर ग्रहण का विशेष प्रभाव पड़ता है अतः किसी हानि का सूचक हो सकता है। अन्य प्रभाव: दिन में चंद्रग्रहण हो रहा हो तो वह शुभफलद नहीं माना गया है।
इसी प्रकार रात्रि में हुआ सूर्यग्रहण भी निष्प्रभावी होता है- ‘‘दिवा चन्द्रगहो रात्रौ सूर्यपर्वं न पुण्यजम्। सन्धिस्थं पुण्यदं ज्ञेयं यावद्दर्शगोचरम्।।’’ जिस राशि में ग्रहण हो रहा है उसी के आधार पर मनुष्यों को शुभाशुभ फलों की प्राप्ति होती है। ज्योतिषशास्त्र के गोचर प्रकरण में इस विषय पर विशेष प्रकाश डाला गया है। जन्म की राशि का ग्रहण या जन्म राशि से दसवीं, ग्यारहवीं तथा छठी राशि का ग्रहण शुभ माना जाता है। जबकि जन्म राशि से पांचवी, सातवीं, दूसरी तथा नवीं राशि में हुआ ग्रहण मध्यम माना गया है। ग्रहण यदि जन्म राशि से बारहवीं, आठवीं तथा चैथी, राशि में हुआ हो तो यह ग्रहण नष्ट होता है। इसी संदर्भ में मुहूत्र्तचिंतामणि में कहा गया है
- ‘जन्मक्र्षे निधनं ग्रहे जनिभतो घातः क्षतिः श्री व्र्यथा चिन्ता सौख्यकलत्रदौस्थ्यमृतयः स्युर्माननाशः सुखम्। लाभोऽपाय इति क्रमात्तदशुभध्वस्त्यै जपः स्वर्णगो- दानं शान्तिरथो ग्रहं त्वशुभदं नो वीक्ष्यमाहुः परे।।’’ अर्थात् जन्मराशि में ग्रहण लगने से शरीर पीड़ा, दूसरी राशि में क्षति व द्रव्यनाश, तीसरी में लक्ष्मीलाभ, चैथी में शरीरपीड़ा, पांचवी में पुत्रादिकों की चिंता, छठी राशि में सुख प्राप्ति, सातवीं राशि में स्त्री-मरण, आठवीं में अपना मरण, नवम राशि में मन का नाश, दशम में सुख, एकादश राशि में लाभ और जन्म राशि से द्वादश राशि में ग्रहण होने पर मृत्यु होती है। इस विषय पर एक अन्य मत प्राप्त होता है। ‘‘ग्रासात्तृतीयेऽष्टमगश्चतुर्थस्त थायसङ्ख्याशुभदः स्वराशिः। सुताङ्कद्विग्द्वादशगश्च मध्या तथाधमश्चाद्यरिपुद्विसप्ता।।’’ अर्थात् जिस राशि में ग्रहण हो उससे 3, 8, 4, 11 में स्वराशि हो तो शुभफलद होता है। 5, 9, 10, 12 में स्वराशि के होने पर मध्यम और 1, 6, 2, 7 में अपनी राशि हो तो दूषित फलकारक होता है। स्पष्ट है कि ग्रहण संबंधी विभिन्न विद्वानों के मतों में काफी भिन्न्ता पाई जाती है। परंतु नक्षत्र संबंधी फलादेश में समस्त विद्वान एकमत हैं। सभी कहते हैं कि यदि जन्मनक्षत्र पर सूर्य या चंद्रग्रहण होता है तो निश्चित रूप से अनिष्ट फलप्रद होता है।
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जन्मनक्षत्र में हुआ ग्रहण जातक को रोग, भय, धनक्षय के साथ-साथ मृत्यु का भय भी उत्पन्न करता है। यस्य वै जन्मनक्षत्रे ग्रस्येते शशिभास्करौ। तस्य व्याधिभयं घोरं जन्मराशौ धनक्षयः।। -वशिष्ठ संहिता ग्रहण के प्रभाव की अवधि जब भी ग्रहण होता है तो ग्रहण के स्पर्श से पूर्व ही इसका प्रभाव प्रारंभ हो जाता है। इसे सूतक काल कहते हैं। चंद्र ग्रहण में स्पर्श से 9 घंटे पहले व सूर्य ग्रहण में 12 घंटे पहले सूतक प्रारंभ हो जाते हैं। ग्रहण के स्पर्श से मोक्ष तक के समय में भोजन बनाना, खाना, सोना, मूर्ति स्पर्श आदि वर्णित होता है तथा बिना किसी उपकरण के आकाश की ओर देखना भी हानिकारक होता है। ‘‘ग्रहण के समय जो व्यक्ति कुंडली के अनुसार ग्रहण के विशेष प्रभाव में आते हैं ऐसा आवश्यक नहीं के ग्रहण काल में ही उन्हें तत्काल दुष्परिणाम मिल जायें अग्रिम एक मास तक ग्रहण के प्रभाव से व्यक्ति प्रभावित होता है तथा कुछ मतों के अनुसार छः मास तक भी ग्रहण अपना फल दे सकता है। जब ग्रहण पूर्ण होता है अर्थात चंद्रमा यदि सूर्य की अपेक्षा पृथ्वी के नजदीक होता है और ग्रहण काल अधिक होता है तो उसका प्रभाव लंबे समय तक व्यक्ति को प्रभावित करता है। इसके विपरीत यदि चंद्रमा, पृथ्वी की तुलना में सूर्य के अधिक नजदीक होता है, तो सूर्य में पूर्ण ग्रहण के समय सूर्य एक वलय (रिंग) के रूप में दिखाई देता है, अर्थात पूर्ण ग्रहण नहीं होता है तो उसका प्रभाव कम समय तक रहता है।
ग्रहण जन्य अनिष्ट फल कब ग्रहण के कारण जिन अनिष्ट अथवा शुभ फलों की उत्पत्ति होती है, उन शुभाशुभ फलों की प्राप्ति ग्रहण से छः मास पर्यन्त तक हो जाता हैं ‘‘घातं हानिमथ श्रियं जननभाद्ध्वस्ंित च चिंती क्रमात्सौख्यं दारवियोजनं च कुरूते व्याधिं च मानक्षयम्। सिद्धिं लाभमपायमर्कशशिनोः षण्मासमध्ये ग्रहः।।’’ -दैवज्ञमनोहर ग्रहणजन्य अरिष्टनाशक उपाय: ग्रहण के कारण उत्पन्न अशुभ फलों के नाश हेतु विभिन्न उपाय बताए गए हैं। इसके अतिरिक्त ग्रहण काल में स्नान, जप, दान, तथा श्राद्ध का विशिष्ट महत्व है- ‘‘यस्मिन् राशौ तपनशशिनोः सिंहिकासूनुमर्दः तद्राश्यानां भवति नियतं ग्रामपुंसां विनाशः। तस्यामाच्छन्तिं मुनिभिरुदिता तत्पटालोकपूर्वं कुर्यादानादिभिरह नृणां नाशमायात्यरिष्टम्।।’’
1. स्नान: सूर्य अथवा चंद्र ग्रहण होने से समस्त वर्ण के लोगों को सूतक होता है अतः सूतक से निवृत होेने के लिए स्नान आवश्यक होता है। ‘‘सर्वेषामेव वर्णानां सूतकं राहुदर्शने। सचैल तु भवेत्स्नानां सूतकान्नं विवर्जयेत्।।’’ स्नान हेतु तीर्थों के जल का विशिष्ट महत्व होता है। गंगासागर संगम पर किया गया स्नान अनेक जन्मों के पापों का नाशक होता है। ग्रहण काल के प्रारंभ होते ही स्नान कर लेना चाहिए। जब तक ग्रहण काल रहे तब तक पूजा-पाठ, दान आदि करना चाहिए। ग्रहण काल में औषधि स्नान का भी विशिष्ट महत्व है।
2. पूजन: ग्रहण काल में पूजा हेतु-विशेष दूषित ग्रहण शांति उपाय करने चाहिए। इसके लिए सर्वप्रथम चार ब्रह्म घंटों की स्थापना करके उनमें चारों समुद्रों की भावना करनी चाहिए। सप्तमृत्तिका को कलश में छोड़कर पुनः पंचगव्य, शुद्ध मोती, रोचना, कमल, शंख, पंचरत्न, शष्ठिक, सफेद चंदन, तीर्थ जल और पंच पल्लवों को घड़े में छोड़कर निम्नलिखित मंत्र पढ़ें। ‘‘सर्वे समुद्राः सरितस्तीर्थानि जलदानदाः। आयान्तु मम शान्त्यर्थं दुरितक्षयकारकाः।।’’ फिर व्याहृति से एक हजार आठ (1008) आहुति तिल से हवन करके पुनः ग्रहणदोष नाशक स्तुति का पाठ करके स्नान कार्य करना चाहिए। इसके बाद भी ग्रहण के समय को बिताकर पूर्व मुख होकर अपने इष्ट देवता का ध्यान पूजन व नमस्कार करके चंद्र अथवा सूर्य ग्रहण के निवृत्त होने पर स्नान दानादि से पवित्र होकर ब्राह्मण को सामथ्र्यानुसार दक्षिणा देकर संतुष्ट करें।
3. दान: ग्रहण काल में किए गए दान का विशिष्ट महत्त्व होता है। ग्रहण काल में दिए गए दान का पुण्य कभी क्षीण नहीं होता है - ‘‘चन्द्रसूर्यग्रहे चैव मरणे पुत्रजन्मनि। मलमासेऽपि देयंस्वाद्दत्तमक्षयकारकम्।।’’ महाभारत में भी कहा गया है कि ग्रहण काल में भूमि, गांव, सोना, धान्य और अभीष्टित समस्त वस्तुओं का स्वकल्याण हेतु दान देना चाहिए। ग्रहणकाल में गाय के दान से सूर्यलोक प्राप्ति, बैल के दान से शिवलोक की, सुवर्ण दान से ऐश्वर्यता की, सर्प के दान से भूमि शासक, घोड़े के दान से बैकुंठ लोक की, पुनः सर्प से ब्रह्मलोक की, भूमि दान से राजपद की ओर अन्न दान करने से समस्त सुखों की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार वस्त्र दान से यश की, चांदी के दान से सुंदर स्वरूप की, फलदान से पुत्रप्राप्ति की, घृत के दान से सौभाग्य की, नमक के दान से शत्रुनाश की तथा हाथी के दान से भूमि के स्वामित्व की प्राप्ति होती है। सूर्य-चंद्र ग्रहण से संबंधित शास्त्रानुमोदित कथन: ग्रहण में चूड़ामणि योग: रविवारे सूर्यग्रहश्चन्द्रवारे चंद्रग्रहः। चूड़ामणि संज्ञस्तत्र दानादिक मनन्त फलम्।। अर्थात रविवार को सूर्यग्रहण और सोमवार को चंद्रग्रहण हो, तो वह चूड़ामणि योग होता है, उसमें दान आदि का अनन्त फल होता है।
ग्रहणस्पर्शकाले स्नान मध्ये होमः सुरार्चनम्। श्राद्धं च मुच्यमाने दानं मुक्ते स्नानमिति क्रमः। अर्थात ग्रहण में स्पर्श के समय स्नान, मध्य में होम और देवपूजन और ग्रहण मोक्ष के समय में श्राद्ध और अन्न, वस्त्र, धनादि का दान और सर्वमुक्त होने पर स्नान करें- यह क्रम है। तीर्थादि जल स्नान का महत्व तत्र स्नान जलेषु तारतम्यम्।। शीतमुष्णोदकात्पुण्यमपारक्यं परोदकात्। भूमिष्ठमुद्धृतात्पुण्यं ततः प्रस्रवणोदकम्।। ततोऽपि सारसं पुण्यं ततः पुण्यं नदीजलम्। ततस्तीर्थनदी गंगा पुण्यात्पुण्यस्ततोऽम्बुधिः’’ इति।। स्नान के जलों में तारतम्य (न्यूनाधिक भावे) है कि ऊष्ण जल से शीतजल पवित्र हैं, पराये जल से अपना जल कूप (कुआं) वापी आदि से निकाले हुए जल से भूमि में स्थित जल श्रेष्ठ होता है और उससे झरने का जल श्रेष्ठ है, उससे भी तालाब का पवित्र है और उससे नदी का जल तथा नदी का जल तथा नदी के जल से तीर्थ की नदी गंगाजल पवित्र हैं एवं उससे भी समुद्र जल पवित्र हैं, ग्रहण में कपड़े पहने-पहने स्नान करें।। सर्वेषामेव वर्णनां सूतकं राहु दर्शने अर्थात ग्रहण में सब वर्णों को सूतक होता है।
तेन ग्रहणकाले स्पष्ट वस्त्रादेः क्षालतादिना शुद्धिः कार्या ।। ग्रहण के समय धारण किये हुए वस्त्र आदि को ग्रहण के प्रश्चात प्रक्षालन (धोकर) एवं शुद्ध करके धारण करें। सुपात्र को दान: सत्पात्रे दानात्पुण्यतिशयः । तपोविधोभय युक्तं मुख्यं दानपात्रम।। दानं द्विगुणं ब्राह्मणबुवे।। श्रोत्रिये शतसाहस्र पात्रे त्वानन्त्यमश्नुते।। अर्थात सुपात्र को दान देने से अधिक पुण्य होता है। तप और विद्या दोनों से जो युक्त है, वह दान का मुख्य पात्र होता हैं। इसके अलावा ब्राह्मण को दिया दान द्विगुणा होता है। वेदपाठी ब्राह्मण को दान लक्षगुणा होता है। सुपात्र को दिया गया दान अनन्त फल देता हैं। ग्रहण में श्राद्धादि का विचार: सूर्य-चंद्र ग्रहण के समय स्नान, दान, जप एवं शिव पूजन तथा माता-पिता का श्राद्ध अवश्य करना चाहिये। जो व्यक्ति जान-बूझकर श्राद्ध कार्य नहीं करता, वह अपने कत्र्तव्य से पतित होकर पाप का भागी होता है।
चंद्रसूर्य ग्रहे यस्तु स्नानं दानं शिवार्चनम्। न करोति पितुः श्राद्धं स नरः पतितो भवेत्।। सर्व भूमिसमं दानं सर्वे ब्रह्म समा द्विजाः। सर्व गंगासमं तोयं ग्रहणे नात्रसशंय।। अर्थात ग्रहणकाल में दिया गया दान भूमिदान के समान फल करता है। सभी द्विज ब्राह्मण समान हो जाते हैं तथा सब जल गंगाजल के समान पवित्र करने वाले हो जाते हैं। ग्रहण दिने पित्रादेः वार्षिक श्राद्ध प्राप्तौ सति सम्भवेऽन्नै कार्यम्। ब्राह्मणाद्यलाभेनासम्भवे त्वामेन हेम्ना वा कार्यम्।। - अर्थात ग्रहण के दिन अथवा ग्रहण सूतक में पिता आदि का वार्षिक श्राद्ध प्राप्त हो जाये, तो उस स्थिति में संभव हो, तो पकाये गये अन्न से ही श्राद्ध करें। यदि ब्राह्मण आदि न मिलने के कारण न हो सके, तो फिर अपक्व अन्न (आटा, चावल, दाल घी) फल, वस्त्र, धनादि से एवं सुवर्णादि के दान से श्राद्ध कार्य करें। संपन्न व्यक्ति तुला दान आदि भी कर सकते हैं। सामान्यतः ग्रहण एवं ग्रहण के सूतक काल में पका हुआ अन्न त्याज्य माना गया है।
वेधकाले ग्रहणे पक्वमन्नं त्याज्यम्। सूतक में, मृत्युकाल में, सूर्य-चंद्र ग्रहणकाल में जो व्यक्ति भोजन करता है, उसकी अगले जन्म में पुरुष योनि नहीं होती - अर्थात् वह निकृष्ट योनि प्राप्त करता है। सूतके मृतके भुक्ते गृहीते शशि भास्करे। छायायां हस्तिनश्चैव न भूयः पुरुषो भवेत्।। कुछ विशेष उपाय: ग्रहण काल में स्पर्श प्रारंभ होते ही स्नान, सूर्य-चंद्र के पूर्ण ग्रसित होने पर हवन, मोक्ष की तरफ बढ़ने पर दान और ग्रहण से मोक्ष हो जाने पर पुनः स्नान करना चाहिए। महर्षि गर्ग ने इसका समर्थन करते हुए कहा है- ‘‘स्पर्शे स्नानं भवेद्धोमो ग्रस्तयोर्मुच्यमानयोः। दानं स्यान्मुक्तये स्नानं ग्रहे चन्द्रार्कयोर्विधिः।।’’ ग्रहण काल में स्नान के लिए प्रयुक्त जल में भूमिस्थ जल से झरना, झरना से सरोवर, सरोवर से नदी का जल, नदी से तीर्थ का जल, तीर्थ जल से यमुना जल, यमुना के जल से गंगा और गंगा जल से समुद्र संगम का जल विशेष पुण्य देने वाला होता है। मत्स्यपुराणा में कहा गया है कि गंगा और समुद्र के संगम में स्नान से दस जन्म का किया हुआ पाप नष्ट हो जाता है। जबकि सूर्य अथवा चंद्र ग्रहण के साथ गंगासागर में किए गए स्नान से हजारों जन्मों से समुपार्जित पाप नष्ट हो जाते हैं।- ‘‘दशजन्मकृतं पापं गंगासागरसङ्गमे। जन्मान्तरसहस्त्रेषु यत्पापं समुपार्जितम्।। तत्तन्नश्येत्सन्निहत्यां राहुग्रस्ते दिवाकरे।’’ ग्रहण काल में औषधि स्नान का भी विशेष महत्व है।
औषधि स्नान हेतु दूर्वा, खस, शिलाजीत, सिद्धार्थ, सर्वोषधि, दारू, लोध्र आदि औषधियों को जल में डालकर, पुनः उससे स्नान करने से ग्रहणजन्य अनिष्ट का नाश होता है। स्नानोपरांत निम्नलिखित स्तोत्र का 11 बार पाठ करना चाहिए- योऽसौ वज्रधरो देव आदित्यानां प्रयत्नतः। सहस्रनयनः शक्रो ग्रहपीड़ां व्यपोहतु।। चतुः शृङ्गः सप्तहस्तः त्रिपादो मेषवाहनः। अग्निश्चन्द्रोपरागोत्थां ग्रहपीड़ां व्यपोहतु।। यः कर्मसाक्षी लोकानां धर्मो महिषवाहनः। यमश्चन्द्रोपरागोत्थां ग्रहपीड़ां व्यपोहतु।। रक्षोगणाधिपः साक्षात्प्रलयानलसन्निभः। खड्गचर्मातिकायश्च रक्षःपीडां व्यपोहतु।। नागपाशधरो देवः सदा मकरवाहनः। वरूणोम्बुपतिः साक्षाद्ग्रहपीड़ां व्यपोहतु।। प्राणरूपो हि लोकानां चारूकृष्णमृगप्रियः। वायुश्चन्द्रोपरागोत्थग्रहपीड़ां व्यपोहतु।। योऽसौ निधिपतिर्देवः खड्गशूलगदाधरः। चन्द्रोपरागकलुषं धनदोऽत्र व्यपोहतु।। योऽसौविन्दुधरो देवः पिनाकी वृषवाहनः। चन्द्रोपरागजां पीड़ां स नाशयतु शंकरः।। तैलोक्ये यानि भूतानि स्थावराणि चराणि च। ब्रह्माविष्ण्वर्कयुक्तानि तानि पापं दहन्तु मे।। आमन्त्रणे लेखने चाप्येते पूजनमन्त्रकाः। अर्चयित्वा पितृन्देवान् गोभूस्वर्णवरादिभिः।। अनेन विधिना यस्तु ग्रहस्नानं समाचरेत्। न तस्य ग्रहपीड़ा स्याद्यानबन्धुधनक्षयः।। परमा सिद्धिमाप्नोति पुनरावृत्तिदुर्लभाम्। सूर्यग्रहेप्येवमेव सूर्यनाम्ना विधीयते।। यह स्तोत्र ग्रहणजन्य समस्त अरिष्टों का सहज ही नाश कर देता है। इसके अलावा कांसे के बर्तन में दही, शहद, रस तथा चांदी के चंद्रमा को ढककर एक हजार सफेद फूलों से पूजन करना चाहिए।
जबकि सूर्य ग्रहण के समय तांबे के पात्र में दही, घी और शहद भरकर पुनः उसमें सोने का बना सूर्य बिंब डालककर एक हजार लाल पुष्पों से सूर्य का पूजन करना चाहिए। दान करने योग्य वस्तुओं में गाय, भूमि, बैल, स्वर्ण, अन्न, वस्त्र, घी इत्यादि प्रशस्त हैं। इन वस्तुओं के दान से पृथक्-पृथक शुभ फलों की प्राप्ति होती है। परंतु ग्रहण काल में स्वर्ण का दान तो विशेष रूप से करना चाहिए-
‘‘गोदानं भूमिदानं च स्वर्णदानं विशेषतः। ग्रहणेक्लेशनाशाय दैवज्ञाय निवेदयेत्।।’’ निम्नलिखित मंत्र के उच्चारण के साथ अपने सामथ्र्य के अनुसार सोने या चांदी का सर्प ज्योतिषी को दान में देना चाहिए- ‘‘तपोमय महाभीम सोमसूर्य विमर्दन। हेमनागप्रदानेन मम शान्ति प्रदोभव।।’’ ग्रहण काल में सत्पात्रों को दान देकर राहुजन्य दोषों से भी मुक्ति पाई जा सकती है।