भवन निर्माण में शल्य निष्कासन
भवन निर्माण में शल्य निष्कासन

भवन निर्माण में शल्य निष्कासन  

देशबंधु
व्यूस : 15940 | अकतूबर 2013

वेद सर्वविध ज्ञान और विज्ञान के प्राप्ति स्थान हैं। सभी प्रकार की विधाओं का उद्भव वेदों से ही हुआ है। वेद से अभिप्राय संपूर्ण वैदिक साहित्य से है। इसमें न केवल ऋक, यजु, साम और अथर्ववेद ही है अपितु शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरूक्त, छन्द और ज्योतिष आदि छः वेदांग, ब्राह्मण, अरण्यक, उपनिषद और सूत्र साहित्य की गणना भी है। भारतीय वास्तुविद्या के मूल में भी वेद ही है। वेदों के साथ वास्तुविद्या का दो प्रकार का संबंध है। एके तो अथर्ववेद का उपवेद स्थापत्यवेद वास्तुविद्या का मूल है और दूसरा छः वेदांगों में से कल्प और ज्योतिष वेदांग से भी वास्तुविद्या का संबंध है।

ज्योतिष वेदांग के संहिता स्कंध के अंतर्गत वास्तुविद्या का विचार किया जाता है। भारतीय वास्तुशास्त्र का संबंध भवननिर्माण कला से है। इसका मुख्य उद्देश्य मनुष्य के लिए ऐसे भवन का निर्माण करना है जिसमें मनुष्य आध्यात्मिक और भौतिक उन्नति करता हुआ सुख, शांति और समृद्धि को प्राप्त करे। अपने इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए वास्तुशास्त्र के आचार्यों ने भवन निर्माण के विभिन्न सिद्धांतों का उपदेश किया है उन्हीं सिद्धांतों में से एक है - शल्यशोधन सिद्धांत। शल्यशोधन सिद्धांत भूमि के शल्यदोष के निवारण की एक विधि है। भूमि की गुणवत्ता उसमें दोषों की न्यूनता होने पर बढ़ती है और भूमि के दोषों में से एक दोष शल्यदोष भी है। शल्य से युक्त भूमि पर भवन निर्माण सदैव अशुभ परिणामों को प्रदान करता है।

अतः भवन निर्माण से पूर्व शल्यशोधन विधि का प्रयोग अवश्य करना चाहिए। शल्यशोधन के विषय में वास्तुशास्त्रीय ग्रंथों में ‘शल्योद्धार’ के नाम से एक विधि का वर्णन किया गया है जिसके अनुसार शल्यशोध्न कर शल्यरहित भवन का निर्माण किया जा सकता है। शल्य शब्द का अर्थ गौ, घोड़ा, कुत्ता या किसी भी जीवन की अस्थि से है। इस अस्थि के भवन की भूमि में रहने पर उस भूमि को शल्ययुक्त माना जाता है। भस्म, वस्त्र, खप्पर, जली हुई लकड़ी, कोयला आदि को भी शल्य की श्रेणी में ही परिगणित किया जाता है। इन सब वस्तुओं का भवन की भूमि से निष्कासन ही शल्यशोधन के नाम से जाना जाता है। वास्तुशास्त्रीय ग्रंथों में शल्यशोधन की कई प्रक्रियाएं वर्णित हैं जैसे - प्रश्नचक्र से शल्यविचार। इसके अनुसार जिस भूमि पर भवन निर्माण करना हो उस भूखंड के नौ भाग किए जाते हैं। उन नौ भागों में क्रमशः ”अ -क - च- ट- ए - त- श- प“ वर्ग पूर्वादिक्रम से लिखे जाते हैं। मध्य में यवर्ग लिखा जाता है।


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ब्राह्मण् के द्वारा स्वस्तिवाचन, पुण्याहवाग्नादि मांगलिक मंत्रों का उच्चारण करने के बाद स्थपति गृहपति को किसी देवता, फल या वृक्ष का नाम पूछता है। गृहपति के द्वरा उच्चारित शब्द का पहला अक्षर जिस कोष्ठक में हो, भूखण्ड की उसी दिशा में शल्य है। उस दिशा में खनन कर शल्य निकाल कर भवन का निर्माण करना चाहिए। तद्यथा- प्रश्नत्रयं चापि गृहाधिपेन देवस्य वृक्षस्य फलस्य चापि वाच्यं हि कोष्ठकेऽक्षरसंस्थिते च शल्यं विलोक्यं भवनेषुदृष्टयी। आ का चा टा ए ता शा पा य वर्गाः प्राच्यादिसंस्थे कोष्ठके शल्यमुक्तम्।। केशांगराः काष्ठलोहस्थिकाद्यास्तस्मात् कार्यं शोधनं भूमिकायाः। इसको एक तालिका के माध्यम से भी समझा जा सकता है। तद्यथा - अशुभ परिणामों का वर्णन भी वास्तु ग्रंथों में प्राप्त होता है। जैसे गौ का शल्य होने पर राजभय, अश्व का शल्य होने पर रोग, कुत्ते का शल्य होने पर क्लेश और गधे का शल्य होने पर संतान का नाश होता है।

तद्यथा - ”शल्यं गवां भूपभयं हयानां रुजं शुनोत्वोः कलहप्रणाशौ। श्वरोष्ट्रयोर्हानिमपत्यनाशं स्त्रीणामजस्याग्निभयं तनोति।। इसके अतिरिक्त शल्यज्ञान की एक और विधि के अनुसार गृहपति गृहनिर्माण या प्रवेश के समय अपने शरीर के जिस अंग पर खुजली करें, वास्तुपुरुष के शरीर के उसी अंग में शल्य होता है। एक अन्य विधि के अनुसार, ब्राह्मण स्वस्तिवाचन आदि कर निरीक्षण करे कि गृहपति अपने निर्मित या निर्माणाधीन भवन में आकर अपने शरीर के किस अंग का स्पर्श करता है।

यदि वह अपने सिर का स्पर्श करे तो उसी स्थान पर डेढ़ हाथ नीचे शल्य होता है। तद्यथा - कण्डूयते यदंग गृहभतुर्यत्र वाडमराहुत्याम्। अशुभं भवेन्निमित्तं विकृतेर्वाग्रः सशल्यं तत्।। एक अन्य विधि के अनुसार, स्थपति निरीक्षण करें कि गृह स्वामी अपने निर्मित या निर्माणाधीन भवन में प्रवेश कर संयोगवश अपने शरीर के किस अंग का स्पर्श करता है, जिस समय वह अपने किसी शरीरांग का स्पर्श करे, उसी समय दीप्त दिशा में यदि पक्षी शब्द करें तथा गृहपति भवन के जिस भाग पर खड़ा होता है, उसी भाग पर भूमि के नीचे शल्य होता है। दीप्त दिशा के विषय में कहा गया है

कि भुवनभास्कर सूर्य उदय होने के बाद पहले पहर में पूर्व, दूसरे पहर में आग्नेय, तीसरे पहर में दक्षिण, सायंकाल में नैर्ऋत्य में, पुनः रात्रि के प्रथम पहर में पश्चिम, दूसरे में वायव्य, तीसरे में उत्तर और चतुर्थ पहर में ईशान में रहते हैं। सूर्य जिस दिशा का भोग कर चुके हैं, वह अंगारिण् और जिस दिशा में है, वह दीप्तदिशा कहलाती है, इससे आगे घूमिता और शेष शान्ता दिशाएं कहलाती है। तद्यथा- अर्द्धनिचितं कृतं वा प्रविशन् स्थपतिर्गृहे निमित्तानि। अवलोक्येद्गृहपतिः क्क संस्थितः स्पृशति किंगंकम। रविदीप्तो यदि शकुनिस्तस्मिन् काले विरौति पुरुषरवम् संस्पृष्टांगमानं तस्मिन् देशेऽस्थि निर्देश्यम्।। इसी प्रकार से शकुन के माध्यम से शल्य ज्ञान का वर्णन करते हुए कहा गया है कि दीप्त दिशा के सम्मुख यदि हाथी अश्व आदि जीव शब्द करें तो भूमि में उसी जीवन का शल्य होता है और जीव के उसी अंग का शल्य होता है जिस अंग का स्पर्श गृहपति संयोगवश करता है।


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एक अन्य मत सूत्र्र प्रसारण काल से संबंधित है। सूत्र फैलाने के समय यदि गधा शब्द करें तो गृहपति भूखंड में जहां खड़ा हो उसी स्थान पर शल्य होता है। ‘वास्तुसौख्यम’ में भी यही प्रक्रिया वर्णित है। एक अन्य मत के अनुसार, सूत्र को फैलाते समय जो जीव उसे लांघता है, उसी जीव का शल्य भूमि में होता है। भवन निर्माण से पहले यदि शल्य को निकाला न गया हो तो भी गृहप्रवेश के समय यह जाना जा सकता है कि भूमि में शल्य है या नहीं। जिस भवन में रहने वाले लोगों को दफःस्वप्न, रोग और धन नाश जैसी समस्याएं रहती हो, उस भूमि के नीचे अवश्य शल्य होता है।

इसी प्रकार भवन निर्माण के बाद सात दिवस तक रात के समय यदि गौ शब्द करें अथवा कोई जंगली पशु शब्द करें तो भी भूमि में शल्य है। ‘वास्तुसारसंग्रह’ नामक ग्रंथ में शकुन के माध्यम से शल्य ज्ञान वर्णित है। ‘बृहद्वास्तुमाला’ में यह विषय शल्य अधिकार नाम से वर्णित है। ब्राह्मणादि वर्णों से पुष्पादि के नाम पूछ कर शल्यज्ञान का वर्णन है। अहिबलचक्र के माध्यम से भी शल्यज्ञान की प्रक्रिया वर्णित है। आठ सीधी और पांच टेढ़ी रेखाओं के माध्यम से अहिबलचक्र का निर्माण किया जाता है। अट्ठाईस कोष्ठकों में अट्ठाईस नक्षत्रों की स्थापना की जाती है।

इनमें चैदह नक्षत्र सूर्य के और चैदह चंद्रमा के होते हैं। जिस दिन शल्यज्ञान करना हो, उस दिन सूर्य-चंद्र की स्थिति अहिबलचक्र में देखी जाती है। यदि सूर्य-चंद्र दोनों चंद्रमा के नक्षत्र में हो तो भूमि में शल्य और यदि दोनों अपने-अपने नक्षत्रों में हो तो भूमि में न तो शल्य और न ही निधि होती है। तद्यथा - ऊध्र्वरेखाष्टकं लेख्यं तिर्यक्पंच तथैव च। अहिचक्रं भवत्येवमष्टाविंशतिकोष्ठकम्।। इस प्रकार शल्य का ज्ञान होने पर भूमि में खनन कर शल्य निकाल लेना चाहिए। खनन के विषय में वर्णन प्राप्त होता है कि शल्यशोधन हेतु होने वाला खनन जलान्त, प्रसरांत अथवा पुरुषान्त होना चाहिए। इसका अर्थ है कि खनन करते समय जब जल दिखाई दे, पत्थर दिखाई दें तो एक पुरुष की जितनी लंबाई हो, उतना ही खनन करना चाहिए। इससे आगे शल्य के होने पर भी वह अशुभ प्रभाव नहीं करता।

यथोक्तम्- जलान्तं प्रस्तरान्तं वा पुरुषान्तमथापि वा। क्षेत्रं संशोध्य चोदृत्य शल्यं सदनमारभेत्।। इस प्रकार से शल्य ज्ञान कर और उसका निष्कासन कर ही भूमि पर भवन निर्माण करना चाहिए। संदर्भ सूची 1. राजवल्लभवास्तुशास्त्र - 1/19 2. राजवल्लभवास्तुशास्त्र - 1/20 3. राजवल्लभवास्तुशास्त्र - 1/21 4. विश्वकर्मप्रकाश 12/2 5. विश्वकर्मप्रकाश 12/3-7 6. बृहत्संहिता - 53/59 7. बृहत्संहिता - 53/105-106 8. बृहत्संहिता - 53/107 9. बृहत्संहिता - 53/108 10. वास्तुसौख्यम - 3/48-53 11. विश्वकर्म प्रकाश 12/9 12. विश्वकर्म प्रकाश 12/15-32 13. वास्तुसारसंग्रह - 5/8-23 14. बृहद्वास्तुमाला 1/166 15. वास्तुरत्नाकर - 3/3 16. विश्वकर्म प्रकाश 12/12


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