रंग और उमंग का पर्व है होली नंद किशोर पुरोहित होली का पर्व फाल्गुन शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को मनाया जाता है। यह दो भागों में विभक्त है। पूर्णिमा को होली का पूजन व होलिका दहन किया जाता है तथा फाल्गुन कृष्ण प्रतिपदा को लोग एक-दूसरे को रंग-गुलाल आदि लगाते हैं। इस तिथि को भद्रा के मुख का त्याग कर निशा मुख में होली का पूजन करना चाहिए। होली का पर्व व्यक्ति के जीवन में हर्षोल्लास लाता है। होली दहन के साथ-साथ नवान्नेष्टि यज्ञ भी किया जाता है। इस परंपरा से ‘धर्मध्वज’ राजाओं के यहां फाल्गुन की पूर्णिमा के प्रभात में मनुष्य गाजे-बाजे सहित नगर से बाहर वन में जा कर सूखे तृण की टहनियां आदि लाते हैं और गंध, अक्षतादि से उनकी पूजा कर नगर या गांव से बाहर पश्चिम दिशा में एक स्थान पर संग्रह कर लेते हैं। इसे होली दंड या प्रह्लाद कहते हैं। इसे ‘नवान्नेष्टि’ का यज्ञ स्तंभ माना जाता है। होली के समय किसानों की फसल भी कटकर आ जाती है तथा सभी किसान एक बड़ा अलाव (होली) जलाकर अपनी खुशहाली-समृद्धि के लिए अग्नि को अपनी फसल का पहला हिस्सा अर्पित करते हैं। किसान धान की परख भी इसी अलाव (होली) से करते हैं। इस कारण होली का महत्व बड़ा है। होली के दूसरे दिन धुलेंडी होती है। इस दिन लोग धूलि क्रीड़ा करते हैं। शहर में कम, किंतु गांवों में यह क्रीड़ा विशेष रूप से होती है। इस समय धूल का यह खेल ऋतु परिवर्तन के कारण होने वाले कष्ट से शरीर की रक्षा के उद्देश्य से खेला जाता है। होलिका के विषय में कई कथाएं हैं। इनमें सर्वाधिक प्रसिद्ध है हिरण्यकशिपु की बहन होलिका का प्रह्लाद को को मारने के लिए उसे गोद में लेकर आग में बैठना। दूसरी कथा के अनुसार, भगवान कृष्ण द्वारा पूतना का वध इसी दिन किया गया था। तीसरी कथा के अनुसार, भगवान शिव ने कामदेव को इसी दिन शाप देकर भस्म कर दिया था। होलिका पूजन के समय बहन मंूज में आक की लकड़ी डालकर और उस पर गोबर लगाकर उसे अपने भाई के सिर से उतारकर होलिका में डाल देती है। यह क्रिया वह अपने भाई की सारे कष्टों से रक्षा की कामना से करती है। ऐसा करते हुए वह प्रार्थना करती है कि जिस तरह ईश्वर ने होलिका से प्रह्लाद की रक्षा की थी, उसी तरह संकटों से उसके भाई की रक्षा करे। इसी दिन पूतना राक्षसी भगवान श्री कृष्ण को मारने के लिए आई थी, और भगवान ने पूतना का वध किया था। इसीलिए नव दम्पति तथा एक वर्ष से कम आयु के बालकों से होलिका की पूजा कराई जाती है। कई स्थानों पर होली के पूजन के समय कामाग्नि जगाने वाले शब्दों का प्रयोग किया जाता है। कहा जाता है कि इसी दिन भगवान शिव ने कामदेव को भस्म किया था। कामदेव को जागृत करने के लिए भी ऐसे शब्दों के प्रयोग की परंपरा है। जीवन में उमंग, आशा, उत्साह आदि के संचार के लिए और नए मौसम के दुष्प्रभाव से बचाव के लिए इन दिनों लोग पानी, रंग, अच्छे खान-पान, गीत-संगीत आदि का आनंद उठाते हैं। होलिका में स्वांग रचने की परंपरा है। यह परंपरा भगवान कृष्ण के समय से चलती आ रही है। गर्ग संहिता के अनुसार भगवान श्री कृष्ण राधाजी के विशेष आग्रह पर होली खेलने के लिए गए। भगवन को इस समय मजाक करने तथा वातावरण को हास्यप्रद बनाने की सूझी, इसलिए वह स्त्री वेश धारण कर राधाजी से मिलने गए। राधाजी को जब पता चला, तो उन्होंने भगवान को कोड़े लगाए। कहा जाता है कि इसी कारण लट्ठ मार होली की परंपरा शुरू हुई। इस अवसर पर रंग या गुलाल का इस्तेमाल कलर थेरेपी का काम करता है जिससे शरीर की विभिन्न कष्टों से रक्षा होती है। सभी लोग हर प्रकार की शत्रुता भुलाकर होली खेलते हैं। होलिका दहन के समय डफली बजाने की परंपरा भी काफी पुरानी है। वस्तुतः खेतों में पके अनाज को पक्षियों से बचाने के लिए डफली बजाई जाती है। कुछ लोग कहते हैं कि खेतों में काम करने वाले किसानों के मनोरंजन के लिए गीत-संगीत, डफली आदि का प्रयोग किया जाता है।