वेल्लूरू से 7 किलोमीटर दूर थिरूमलाई कोडी में स्वर्ण से बना श्री लक्ष्मी नारायणी मंदिर श्रीपुरम् है। सोने से निर्मित इस मंदिर को बनने में 7 वर्षों का समय लगा जो हरी-भरी 100 एकड़ भूमि के मध्य 55000 स्क्वेयर फीट भूमि पर निर्मित है। 24 अगस्त 2007 को यह मंदिर दर्शन के लिए खोला गया। मंदिर के चारों ओर एक सितारे के आकार का रास्ता (पाथवे) बना है।
दर्शनार्थी मंदिर परिसर की दक्षिण दिशा से प्रवेश कर पाथवे से क्लाक वाईज घुमते हुए पूर्व दिशा तक आते है जहां से मंदिर के अंदर भगवान श्री लक्ष्मी नारायण के दर्शन करने के बाद पुनः पूर्व दिशा में आकर पाथवे से होते हुए दक्षिण दिशा से ही बाहर आ जाते हंै।
श्रीपुरम् का यह स्वर्ण जड़ित मंदिर और इसका परिसर इतना सुंदर है कि, मानो धरती पर स्वर्ग उतर आया हो। मंदिर को देखने वर्षभर सैलानियों की भारी भीड़ बनी रहती है। निश्चित ही मंदिर और इसका परिसर बहुत संुदर निर्मित किया गया है परंतु इसकी इस सुंदरता में निश्चित ही इसकी वास्तुनुकुलताओं के कारण चार चांद लग रहे हैं।
मंदिर के मध्य का भाग ऊंचा है जिसके चारों ओर ढलान है। मंदिर परिसर की भूमि की ऐसी भौगोलिक स्थिति को वास्तुशास्त्र में गजपृष्ठ भूमि कहते हैं। ऐसी भूमि पर भवन बनाकर रहने वाले का जीवन सुख-समृद्धि एवं एैष्वर्य से पूर्ण रहता है और ऐसे स्थान पर बना भवन भी चिर स्थायी होता है। मंदिर की उत्तर दिशा में तीखा ढलान है और साथ ही ईशान कोण में श्रीमंगल जलधारा है।
जहां ऊंचाई से पानी नीचे जमीन पर आता है। वहां छोटा सा तालाब भी है। जो कि, इस मंदिर की प्रसिद्धि को बढाने में और अत्यधिक सहायक हो रहा है। वास्तु सिद्धांत के अनुसार जहां भी उत्तर दिशा में ज्यादा मात्रा में पानी का संग्रह हो तो वह स्थान निश्चित प्रसिद्धि प्राप्त करता ही है जैसे, तिरूप्पती बालाजी तिरूपति, गुरूवायूर मंदिर त्रिशूर, वक्कडनाथ मंदिर त्रिशूर, पùनाभ स्वामी मंदिर त्रिरूअन्नतपुरम् इत्यादि।
मंदिर के गर्भगृह में भगवान विष्णु पूर्वमुखी होकर विराजमान है और मंदिर का प्रवेश द्वार भी पूर्व दिशा में ही है और मंदिर का विमान पश्चिम दिशा में है। इससे पश्चिम दिशा पूर्व दिशा की तुलना में ऊंची होकर भारी हो रही है। पूर्व और पश्चिम दिशा की यह वास्तुनुकुलताएं दर्शनार्थियों को आकर्षित करती हैं।
मंदिर परिसर की कम्पाऊण्ड वाॅल का प्रवेश द्वार दक्षिण आग्नेय में है। वास्तुशास्त्र के अनुसार दक्षिण आग्नेय का द्वार वैभव बढ़ाने में सहायक होता है। इन वास्तुनुकुलताओं के साथ-साथ स्वर्ण मंदिर श्रीपुरम् में कुछ वास्तुदोष भी हैं। हो सकता है कि, अद्भुत अद्वितीय वास्तु शक्ति वाले इस स्वर्ण मंदिर में वास्तुदोषों का प्रभाव खुले रूप में नजर नहीं आ रहा हो। किंतु वास्तुदोष अपना कुप्रभाव अवश्य ही देते हैं।
यह उसी प्रकार है जैसे कि, एक ग्लास पानी में चार चम्मच शक्कर डली हो उसमें यदि चुटकीभर नमक डाल दिया जाए तो वह पानी पीने पर नमक के स्वाद का पता नहीं लगेगा। परंतु इस घोल को पीने के बाद शक्कर और नमक अपनी-अपनी मात्रा के अनुसार शरीर पर अपना प्रभाव तो डालते ही है।
परिसर की कम्पाऊण्ड वाल उत्तर दिशा में थोड़ी अंदर की ओर दब गई है। वास्तुशास्त्र के अनुसार उत्तर दिशा का यह दोष इसकी प्रसिद्धि में कुछ अंश तक कमी ला रहा है। इसके लिए मंदिर प्रशासन को चाहिए कि, जहां से उत्तर दिशा में कम्पाऊण्ड वाल दबी है वहां से उसे वायव्य कोण तक दबा कर सीधा कर दिया जाए और उत्तर ईशान में यह बढ़ाव बना रहे। उत्तर ईशान का बढ़ाव प्रसिद्धि दिलाने में सहायक होता है। मंदिर परिसर का नैऋत्य कोण बढ़ा हुआ है। जहां पर जूतों का स्टैण्ड है। वास्तुशास्त्र में नैऋत्य कोण के बढ़ाव को भी शुभ नहीं माना जाता है।
यह बढ़ाव विभिन्न प्रकार की परेशानियां पैदा करता है अतः परिसर की चारदीवारी के नैऋत्य कोण को छोटा कर 90 डिग्री का करना चाहिए। यह तय है कि, स्वर्ण से बने श्रीपुरम् के इस मंदिर को जितना यश मिल रहा है। वह मंदिर की सुंदर बनावट के साथ-साथ निश्चित ही मंदिर परिसर की वास्तुनुकुल भौगोलिक स्थिति एवं बनावट के कारण ही है। यदि उपरोक्त वास्तुदोषों को दूर कर दिया जाए तो निश्चित ही यह परिवर्तन मंदिर की सुख-समृद्धि प्रसिद्धि बढ़ाने में सोने में सुहागे का काम करेगा।
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