वास्तु दोष एवं रोग
वास्तु दोष एवं रोग

वास्तु दोष एवं रोग  

डॉ. अरुण बंसल
व्यूस : 1156 | दिसम्बर 2018

ज्योतिष शास्त्र और वास्तु शास्त्र दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। प्रत्येक दिशा का वास्तु पुरूष के विभिन्न अं्रगों पर प्रभाव पड़ता है। जिस प्रकार जन्मपत्री के आधार पर हम किसी भी बीमारी का पता लगा लेते हैं उसी प्रकार वास्तु के अनुसार भी किसी भी दिशा में उत्पन्न दोषों के आधार पर हम जान सकते हैं कि घर में वास करने वाले का कौन सा अंग किस रोग से प्रभावित होगा। आज इस आलेख में हम आपको दिशा अनुसार वास्तु दोष के फलस्वरूप होने वाले रोगों की जानकारी और संबंधित उपाय की जानकारी दे रहे हैं -

पूर्व दिशा में वास्तु दोष होने पर

पूर्व दिशा का स्वामी सूर्य ग्रह है, इसके देवता इंद्र हैं, इस दिशा का शुभ रंग ताम्र है। यह स्थान कालपुरूष का सिर, दांत, मुंह एवं जीभ है।

  • यदि भवन में पूर्व दिशा का स्थान ऊँचा हो, तो व्यक्ति का सारा जीवन आर्थिक अभावों, परेशानियों में व्यतीत होता है। वह पेट और यकृत के रोगों से पीड़ित रहेगा और उसकी सन्तान अस्वस्थ, कमजोर स्मरणशक्ति वाली, पढ़ाई-लिखाई में कम रूचि लेगी।
  • यदि पूर्व दिशा में रिक्त स्थान न हो और बरामदे की ढलान पश्चिम दिशा की ओर हो, तो परिवार के मुखिया को आँखों की बीमारी, स्नायु अथवा हृदय रोग की स्मस्या का सामना करना पड़ता है।
  • घर के पूर्वी भाग में कूड़ा-कर्कट, गन्दगी एवं पत्थर, मिट्टी इत्यादि के ढेर हों, तो गृहस्वामिनी को गर्भहानि का सामना करना पड़ता है।
  • यदि पूर्व की दीवार पश्चिम दिशा की दीवार से अधिक ऊँची हो, तो संतान हानि का सामना करना पड़ता है।
  • गर पूर्व दिशा में शौचालय का निर्माण किया जाए, तो घर की बहू-बेटियाँ अस्वस्थ रहती हैं।
  • भवन के पश्चिम में नीचा या रिक्त स्थान हो, तो गृहस्वामी यकृत, गले, गाॅल ब्लैडर इत्यादि रोगों से पीड़ित हो सकता है।
  • बचाव के उपाय
  • पूर्व दिशा में पानी, पानी की टंकी, नल, हैंडपम्प इत्यादि लगवाना शुभ रहेगा।
  • पूर्वी दीवार पर ‘सूर्य यन्त्र’ स्थापित करें और छत पर इस दिशा में लाल रंग का ध्वज(झंडा) लगायें।
  • पूर्वी भाग को नीचा और साफ-सुथरा, खाली रखने से घर के लोग स्वस्थ रहेंगे। धन और वंश की वृद्धि होगी तथा समाज में मान-प्रतिष्ठा बढे़गी।

पश्चिम दिशा में वास्तु दोष होने पर

पश्चिम दिशा का प्रतिनिधि ग्रह शनि है। इस दिशा का शुभ रंग नीला/काला है। यह स्थान कालपुरूष का पेट, गुप्ताँग एवं प्रजनन अंग है।

  • यदि पश्चिम भाग के चबूतरे नीचे हों, तो परिवार में फेफडे़, मुख, छाती और चमड़ी इत्यादि के रोगों का सामना करना पडता है।
  • यदि भवन का पश्चिमी भाग नीचा होगा, तो पुरूष संतान के रोग-बीमारी पर व्यर्थ धन का व्यय होता रहेगा।
  • यदि घर के पश्चिम भाग का जल या वर्षा का जल पश्चिम से बहकर, बाहर जाए तो परिवार के पुरूष सदस्य दीर्घकालिक रोगों से पीड़ित हो सकते हैं।
  • यदि भवन का मुख्य द्वार पश्चिम दिशा की ओर हो, तो अकारण व्यर्थ में धन का अपव्यय होता रहेगा।
  • यदि पश्चिम दिशा में रसोईघर अथवा अन्य किसी प्रकार से अग्नि का स्थान हो, तो पारिवारिक सदस्यों को गर्मी, पित्त और फोडे़-फुन्सी, मस्से इत्यादि की शिकायत रहती है।
  • बचाव के उपाय-
  • ऐसी स्थिति में पश्चिमी दीवार पर ‘वरूण यन्त्र’ स्थापित करें।
  • परिवार का मुखिया 11 शनिवार लगातार उपवास रखे और गरीबों में काले चने वितरित करे।
  • पश्चिम की दीवार को थोड़ा ऊँचा रखें और इस दिशा में ढाल न रखें।
  • पश्चिम दिशा में अशोक का वृक्ष लगायें।

उत्तर दिशा में वास्तु दोष होने पर-

उत्तर दिशा का प्रतिनिधि ग्रह बुध है। इस दिशा का शुभ रंग हरा है। भारतीय वास्तुशास्त्र में इस दिशा को कालपुरूष का हृदय स्थल, दिल, छाती और फेफड़े माना गया है। जन्मकुंडली का चतुर्थ सुख भाव इसका कारक स्थान है।

  • यदि उत्तर दिशा ऊँची हो और उसमें चबूतरे बने हों, तो घर में गुर्दे का रोग, कान का रोग, रक्त संबंधी बीमारियाँ, थकावट, आलस, घुटने इत्यादि की बीमारियाँ बनी रहेंगी।
  • यदि उत्तर दिशा अधिक उन्नत हो, तो परिवार की स्त्रियों को रूग्णता का शिकार होना पड़ सकता है।
  • बचाव के उपाय-
  • यदि उत्तर दिशा की ओर बरामदे की ढाल रखी जाये, तो पारिवारिक सदस्यों विशेषतः स्त्रियों का स्वास्थ्य उत्तम रहेगा। रोग पर अनावश्यक व्यय से बचे रहेंगे।
  • इस दिशा में दोष होने पर घर के पूजास्थल में ‘बुध यन्त्र’ स्थापित करें।
  • भवन के प्रवेशद्वार पर संगीतमय घंटियाँ लगायें।

दक्षिण दिशा में वास्तु दोष होने पर

दक्षिण दिशा का प्रतिनिधि ग्रह मंगल है, जो कि कालपुरूष का बायां सीना, फेफडे़ और गुर्दे का प्रतिनिधित्व करता है। जन्मकुंडली का दशम भाव इस दिशा का कारक स्थान होता है। इस दिशा का शुभ रंग लाल है।

  • यदि घर की दक्षिण दिशा में कुआँ, दरार, कचरा, कूडादान, कोई पुराना सामान इत्यादि हो, तो गृहस्वामी को हृदय रोग, जोडों का दर्द, खून की कमी, पीलिया, आँखों की बीमारी, कोलेस्ट्राॅल बढ़ जाना अथवा हाजमे की खराबी का सामना करना पड़ता है।
  • दक्षिण दिशा में उत्तरी दिशा से कम ऊँचा चबूतरा बनाया गया हो, तो परिवार की स्त्रियों को घबराहट, बेचैनी, ब्लडप्रेशर, मूच्र्छाजन्य रोगों से पीड़ा का कष्ट भोगना पड़ता है।
  • यदि दक्षिणी भाग नीचा हो, और उत्तर से अधिक रिक्त स्थान हो, तो परिवार के वृद्धजन सदैव अस्वस्थ रहेंगे। उन्हें उच्चरक्तचाप, पाचन क्रिया की गड़बड़ी, खून की कमी अथवा दुर्घटना का शिकार होना पडे़गा। दक्षिण पिशाच का निवास है, इसलिए इस तरफ थोड़ी जगह खाली छोड़कर ही भवन का निर्माण करवाना चाहिए।
  • यदि किसी का घर दक्षिणमुखी हो और प्रवेश द्वार नैर्ऋत्याभिमुख बनवा लिया जाए, तो ऐसा भवन दीर्घ व्याधियाँ एवं किसी पारिवारिक सदस्य को अकाल मृत्यु देने वाला होता है।
  • बचाव के उपाय
  • यदि दक्षिणी भाग ऊँचा हो, तो घर-परिवार के सभी सदस्य पूर्ण स्वास्थ्य एवं संपन्नता प्राप्त करेंगे। इस दिशा में किसी प्रकार का वास्तुजन्य दोष होने की स्थिति में छत पर लाल रक्तिम रंग का एक ध्वज अवश्य लगायें।
  • घर के पूजनस्थल में ‘श्री हनुमतयन्त्र’ स्थापित करें।
  • दक्षिणमुखी द्वार पर एक ताम्र धातु का ‘मंगलयन्त्र’ लगायें।
  • प्रवेशद्वार के अन्दर-बाहर दोनों तरफ दक्षिणावर्ती सूँड़ वाले गणपति जी की लघु प्रतिमा लगायें।

आग्नेय में वास्तु दोष होने पर

इस दिशा के स्वामी ‘गणेश’ है और प्रतिनिधि ग्रह ‘शुक्र’ हैं। इस दिशा का शुभ रंग सफेद है। इस दिशा से बायां नेत्र और बायीं भुजा का विचार किया जाता है।

  • इस दिशा के दोषपूर्ण रहने से व्यक्ति को क्रोधित स्वभाव वाला व चिड़चिड़ा बना देगा।
  • यदि भवन का यह कोण बढ़ा हुआ है तो यह संतान के लिए कष्टप्रद होता है।
  • दक्षिण-पूर्व का विस्तार या सोने से या द्वार होने से मानसिक तनाव, अशांत चित्त, उच्च रक्तचाप आदि रोग होते हैं। इस दिशा में भूमिगत जलस्रोत होने से निर्जलीकरण, हैजा, संतान पीड़ा, किसी किडनी में तकलीफ, मानसिक अशांति इत्यादि रोग होते हैं।

नैर्ऋत्य में वास्तु दोष होने पर

इस दिशा का स्वामी ग्रह ‘राक्षस’ है और प्रतिनिधि ग्रह ‘राहु’ है। शुभ रंग नीला है। इस दिशा से किडनी, घुटने, बायां पैर और बाह्य जननेन्द्रियों का विचार किया जाता है।

यदि भवन का यह कोण दूषित होगा तो उस भवन के सदस्यों का चरित्र प्रायः कलुषित होगा और शत्रु भय बना रहेगा।


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  • इस कोण के दूषित होने से आकस्मिक दुर्घटना के योग बनते हैं।
  • यदि घर में इस कोण में खाली जगह है, गड्ढा है, भूत है या कांटेदार वृक्ष हंै तो गृह स्वामी बीमार, शत्रुओं से पीड़ित एवं सम्पन्नता से दूर रहेगा।
  • दक्षिण-पश्चिम कोण में कुआँ, जल, बोरिंग या भूमिगत पानी का स्थान मधुमेह बढ़ाता है।

वायव्य में वास्तु दोष होने पर

वायव्य दिशा का स्वामी चंद्रमा ग्रह है, इसके देवता वायु देव हैं, इस दिशा का शुभ रंग सफेद है। यह स्थान काल पुरूष के पेट का ऊपरी भाग, आंतें, घुटने, पित्ताशय, प्रसूति, दायां पैर, बड़ी आंत और गर्भाशय है।

  • यह दिशा गृह स्वामी को शांति, स्वास्थ्य एवं दीर्घायु प्रदान करती है।
  • भवन में यदि इस कोण में दोष हो तो शत्रुओं से परेशानी रहती है।
  • यदि वायव्य घर में सबसे बड़ा या ज्यादा गोलाकार है तो गृहस्वामी को गुप्त रोग सताएंगे।
  • वायव्य कोण अर्थात उत्तर-पश्चिम में निरंतर सोने या बैठने से व्याकुलता एवं मन उच्चाटन प्रवृत्ति का होना, वायु विकार आदि रोग होते हैं। इस कोण में भूमिगत जल मानसिक पीड़ा, अनिद्रा, बच्चे कम उम्र में प्रौढ़ दिखते हैं तथा इस दिशा में द्वार होने से दुर्घटनाएं होती हैं।

ईशान में वास्तु दोष होने पर

ईशान दिशा का स्वामी गुरु ग्रह है, इसके देवता भगवान शिव हैं, इस दिशा का शुभ रंग पीला है। यह स्थान काल पुरूष का दायां नेत्र, दायीं भुजा और गर्दन है।

  • यदि यह दिशा दूषित होगी तो भवन में प्रायः कलह व विभिन्न कष्टों को प्रदान करने के साथ व्यक्ति की बुद्धि भ्रष्ट होती है और प्रायः कन्या संतान प्राप्त होती है।
  • एकाग्रता लाने के लिए विद्यार्थियों के कमरे की पूर्व दीवार पीले अथवा गुलाबी रंग की होनी चाहिये।
  • बचाव के उपाय
  • लगातार शारीरिक कष्ट बने रहने की स्थिति को दूर करने के लिए घर के सामने अशोक के पेड़ लगायें।
  • घर के सामने लैंप पोस्ट कुछ इस तरह से लगायें कि उसका प्रकाश घर के ऊपर आये।
  • सिरदर्द अथवा माइग्रेन जैसे रोग को दूर करने के लिये बेड के उत्तर-पश्चिम कोने में सफेद माला जिसका किनारा भूरे रंग का हो, दबा कर रखने से समस्या का हल हो जाता है।
  • इसके अलावा बेड कवर सफेद अथवा हल्के रंग का प्रयोग में लायें।
  • इसके अतिरिक्त सफेद मूंगा के धारण करने से भी इसे नियंत्रित किया जा सकता है।

ब्रह्म स्थान में वास्तु दोष होने पर

घर के मध्य भाग में निर्माण, भूमिगत जल स्रोत एवं अग्नि की स्थापना से विनाशकारी रोग, दिग्भ्रम, पेट में पीड़ा, अनिद्रा, मानसिक रोग होते हैं।


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