उत्तराखंड राज्य में ऐसी भीषण प्राकृतिक आपदा आयी जिससे लगभग पूरा राज्य ही त्रासदी की चपेट में आ गया और चारों ओर हाहाकार मच गया। केदारनाथ धाम यात्रा के लिए देश एवं विदेश के अलग-अलग हिस्सों से आए हुए श्रद्धालुओं को इस आपदा ने सदा के लिए अपनों से अलग कर दिया। ऐसी त्रासदी आज तक किसी ने अपनी आंखों से शायद ही देखी होगी। बचाव कार्य के लिए भारत की सेना एवं उत्तराखंड प्रशासन रात-दिन लगी हुई है कि जो श्रद्धालुगण बच गये हैं उन्हें सुरक्षित बाहर निकाला जा सके। जो लोग बच गये हैं वे ईश्वर को धन्यवाद दे रहे हैं। कहते हैं कि उस ईश्वर की ईच्छा के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता, तो इतनी बड़ी घटना के पीछे भी उनकी ही कोई ईच्छा रही होगी एवं उनके द्वारा संचालित ग्रहों नक्षत्रों के संयोग का भी कोई ना कोई कारण अवश्य रहा होगा। इस त्रासदी का अवलोकन ज्योतिष के नजर से करते हैं और देखते हैं कि इस त्रासदी की वजह क्या रही जिसके कारण उत्तराखंड में रह रहे लोगों का जीवन-अस्त व्यस्त हो गया। भारत के सबसे नवीनतम राज्यों में से उत्तराखण्ड भी एक राज्य है, जो कि उत्तरप्रदेश से ही अलग होकर बना है। उत्तराखण्ड का गठन 9 नवम्बर 2000 को अर्द्ध रात्रि में भारत के 27 वें राज्य के रूप में हुआ। तीर्थों के गढ़ माने जाने वाले उत्तराखण्ड की स्थिति जो आज है, उसे हम कभी भी शायद ही भुला पायें। इस वर्ष मानसून के पूर्वागमन से 14 जून से 17 जून के बीच जैसी भीषण वर्षा हुई, उससे उत्तराखण्ड के अनेक स्थान जिसमें विशेषकर मुख्यतः तीर्थ स्थानों को भारी मात्रा में नुकसान का सामना करना पड़ा। पहाड़ों में तेज बारिश के चलते अलकनन्दा का जो उफान आया उस उफान में बहुत धन-जन की हानि हुयी जिसकी भरपाई शायद ही हो सके। धन की हानि तो शायद पूरी भी हो जाये परन्तु जन सामान्य को जो नुकसान हुआ वह अपूरणीय है। अनेक परिवार जो तीर्थ यात्रा में गये थे लापता हो गये, घर के घर बह गये, किसी के परिवार के सदस्य का कोई पता नहीं तो कहीं पूरा का पूरा परिवार ही इस बाढ़ में बह गया, जिसका पता लगाना असम्भव सा लगता है। उस दृश्य को जो, कि हमने T.v एवं Media के माध्यम से देखा वो दृश्य भूले नहीं भूलता। इसे व्यक्तिगत कारण समझें या ईश्वरीय प्रकोप या प्रकृति की नाराजगी। इस घटना पर जब लोगों से चर्चा हुयी तो उनमें एक पर्वतारोही से बातचीत के दौरान ये पता चला कि उनके प्रशिक्षण के दौरान उन्हें ये बताया जाता था, कि हिमालय की शृंखला विश्व की सबसे नवीन शृंखला है, इसलिये पवर्तारोहण के दौरान उन्हें किसी भी प्रकार की ध्वनि या शोर के लिए मना किया जाता था, जिससे वहां का वातावरण न बिगड़े और वहां किसी प्रकार की ध्वनि के कारण कंपन ना हो। परन्तु आज के इस आधुनिक युग में इस बात का ध्यान बिल्कुल नहीं दिया जाता। बड़े-बड़े Fectories, Industries or helicopter सेवायें निरन्तर वहां चल रही हैं जिससे लगातार वहां का Ecological Balance बिगड़ रहा है और इस वजह से प्रकृति की नाराजगी हमें सहनी पड़ रही है। आइये देखें कि ग्रहों एवं नक्षत्रों का इस घटना से किस हद तक लेना देना है। जिस समय उत्तराखण्ड का विभाजन हुआ उस समय चन्द्रमा मीन राशि एवं उ.भा. नक्षत्र में गोचर कर रहा था। साथ ही लग्न में कर्क राशि थी। लग्नेश होकर चन्द्रमा नवम स्थान में बृहस्पति की राशि में है, जो इस क्षेत्र की पवित्रता एवं धार्मिक आस्था एवं मान्यता को दर्शाता है साथ ही चन्द्रमा का अष्टमेश शनि के नक्षत्र में होना राज्य के लिये प्राकृतिक आपदाओं से पीड़ित होने को दर्शाता है। लग्न से केन्द्र में चतुर्थ भाव जो कि प्रजा एवं राज्य के सुख समृद्धि का द्योतक है, वहां सूर्य का नीच का होना तथा बुध जो कि द्वादशेश (हानि) है, उसके साथ युति में रहना किसी प्रकार से सुख शांति में कमी तथा राज्य के लोगों में भय दर्शाता है। सुखेश शुक्र की छठे भाव में स्थिति और केतु की युति भी प्रजा में रोग एवं प्राकृतिक दुर्बलताओं को दिखाता है। लग्न से एकादश में शनि जो कि अष्टमेश है, वक्री होकर एकादश में बैठा है। क्योंकि कोई भी पाप ग्रह वक्री होने पर अधिक पाप फल देते हैं, इसलिये यहां शनि का वक्री होना भी एक मुख्य कारण रहा। 14 जून से 17 जून तक उत्तराखण्ड में भीषण वर्षा के चलते यह बाढ़ की स्थिति बनी। अतः उस दिन सूर्य एवं गुरु एक ही नक्षत्र में थे एवं एक ही नाड़ी में। मेदनीय ज्योतिष के अन्तर्गत त्रिनाड़ी चक्रानुसार जब गुरु एवं सूर्य एक ही नाड़ी में हो और यदि बृहस्पति उदय या अस्त हो रहा हो तो अतिवृष्टि कारक होते हैं। साथ ही जिस दिन उत्तराखण्ड में बाढ़ से धन-जन की हानि हुयी उस दिन 16 जून, दिन रविवार था एवं उस समय उत्तराखण्ड की कुण्डली के अनुसार बुध की महादशा चल रही थी, जो कि द्वादशेश एवं तृतीयेश है, एवं गोचर में भी द्वादश भाव (मिथुन राशि) में गोचर कर रहा था। अन्तर्दशा स्वामी चन्द्रमा जो कि एक जलीय ग्रह है, एवं जन्म लग्न में भी जलीय राशि में है, लग्नेश होकर तृतीय भाव (कन्या राशि) से गोचर कर रहा था। इसलिये तीसरा भाव चतुर्थ से व्यय होने के कारण यह प्रजा मे भय को इंगित करता है। अन्तर्दशा स्वामी बुध था, जो कि पुनः द्वादशेश की भूमिका में आर्थिक एवं शारीरिक हानि का सूचक है। बुध महादशा एवं अन्तर्दशा स्वामी होने के कारण हानि अत्यधिक हुयी। उस दिन सूक्ष्म दशा में शनि की दशा थी। शनि अष्टमेश है जो कि प्राकृतिक आपदाओं को दर्शाता है, तथा गोचर में चतुर्थ भाव से तुला राशि में वक्री होकर गोचर कर रहा था। किसी भी पापग्रह का चतुर्थ से गोचर करना एवं बली होना हानिकारक होता है, जिसकी वजह से यह घटना उत्तराखण्ड के लिए अमिट छाप छोड़ गयी। साथ ही शनि उस समय राहु के नक्षत्र में था जो कि लग्न में द्वादश में है, और गोचर में भी राहु का चतुर्थ से गोचर करना धन-जन की हानि एवं प्रजा में मानसिक चिन्ता एवं भय का सूचक है। यदि कुछ मुख्य ग्रहों के गोचर की बात करें तो उस दिन बृहस्पति जो कि धर्म के कारक ग्रह हैं, तथा उत्तराखण्ड की कुण्डली में नवमेश भी हैं गोचर में मिथुन में थे एवं अस्त थे। यही कारण है कि इस घटना से तीर्थ यात्री एवं तीर्थ स्थानों की अत्यधिक क्षति हुयी। सूयभी उस दिन मिथुन में प्रवेश कर रहे थे तो यह संभावना अधिक प्रबल हो गयी। साथ ही धनेश सूर्य का द्वादश से गोचर करना भी धन की हानि का द्योतक है। सुखेश शुक्र जो प्रजा का कारक है, द्वादश में गोचर करने से जन की हानि हुयी अर्थात चार ग्रहों का द्वादश भावों से गोचर करना उत्तराखण्ड के लिये अत्यधिक हानिकारक रहा। हम परमात्मा से यही प्रार्थना करते हैं कि ऐसी विनाश लीला दोबारा कभी न देखने को मिले एवं जिनके परिजन बिछड़ गये, उन्हें वापस मिलंे तथा दिवंगतो की आत्मा को शांति प्रदान करें।