वास्तु शास्त्र की उपयोगिता
वास्तु शास्त्र की उपयोगिता

वास्तु शास्त्र की उपयोगिता  

मनोज कुमार
व्यूस : 4962 | अप्रैल 2017

युग-युगांतर से मनुष्य अपना जीवन कष्टों से बिल्कुल मुक्त होकर जीना चाहता है। विज्ञान के सभी शाखाओं के सभी शोधें एवं आविष्कारों का एकमात्रा उद्देश्य आनंद की प्राप्ति है चाहे वह आध्यात्मिक हो अथवा सांसारिक। ऐसा प्रतीत होता है कि इस प्रक्रिया से ही मनुष्य वर्तमान स्तर तक पहुंचा है।

पूर्व के विद्वानों ने मनुष्य के उद्देश्यों के ऊपर चिंतन करके कुछ नियमों का प्रतिपादन किया है जो अब रीति-रिवाज बन गए हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आधुनिक मानव ने इन नियमों में छुपे हुए वैज्ञानिक सि(ांतों की अवहेलना कर दी है। आईए हम वास्तु पुरुष मंडल का परीक्षण कर किसी निर्माण अथवा भवन के स्वास्थ्य के विषय में पता लगाएं।

ऐसा पाया गया है कि जिस भवन का निर्माण वास्तु पुरुष मंडल के नियमों के अनुकूल हुआ है उस घर का स्वास्थ्य उत्तम रहता है तथा घर के निवासी भी पूर्ण रूप से संरक्षित रहते हैं।आज के परिप्रेक्ष्य में वास्तु पुरुष का तात्पर्य किसी स्थल की योजना से है।

वास्तु एक जैविक अवयव है तथा चर एवं स्थिर, पृथ्वी तथा इसका वायुमंडल पांच मौलिक तत्वों पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश से निर्मित है। ऐसा माना जाता है कि एक परमाणु में जो अवयव पाए जाते हैं संपूर्ण ब्रह्मांड में भी वे अवयव मौजूद होते हैं इसीलिए कहा गया है- यत् पिण्डे तत् ब्रह्माण्डे। इस कथन को सि( करने के लिए निम्नांकित तर्क दिए जा सकते हैं:

1. वास्तु पुरुष इस प्रकार से लेटे हुए हैं कि उनका चेहरा एवं पेट भूमि को स्पर्श कर रहे हैं। उनका सिर उत्तर-पूर्व एवं पैर दक्षिण-पश्चिम की ओर है। दबाव बिंदु अर्थात् मूलाधार चक्र पृथ्वी तत्व को निर्दिष्ट करता है। मूलाधर चक्र का आधर स्थिर होना चाहिए। वास्तु पुरुष की स्थिति के अनुसार यह दिशा दक्षिण-पश्चिम है।

अतः इसी कारण से ऐसा कहा गया है कि भवन के दक्षिण-पश्चिम भूभाग का निर्माण इस प्रकार से किया जाना चाहिए कि वह भारी वजन का भार सहने में सक्षम हो। वायुमंडलीय वृत्त के अनुसार भी दक्षिण-पश्चिम भूभाग सर्वाध्कि उष्मा प्राप्त करता है। इसी कारण से यह सलाह दी गयी है कि इस दिशा की दीवारें ज्यादा मोटी एवं ऊंची बनायी जानी चाहिए।

2. शरीर में स्वाध्ष्ठिान चक्र पेट के निचले हिस्से में दोनों किडनियों के समीप है। यह जल तत्व से संबंध्ति है। वास्तु पुरुष मंडल के अनुसार इस चक्र की स्थिति दक्षिण एवं पश्चिम में है। इसीलिए यह सलाह दी गयी है कि जलीय क्षेत्रा जैसे टाॅयलेट इत्यादि का निर्माण इन्हीं दिशाओं की ओर करना चाहिए। यह गंदे जल का क्षेत्रा है।

3. मणिपुर चक्र नाभि पर है। यह चक्र ऊर्जा अथवा अग्नि से संबंध्ति है। माता के गर्भ में भ्रूण को भोजन एवं ऊर्जा नाल के माध्यम से भोजन के सार एवं ऊर्जा के रूप में प्राप्त होता है जो कि नाभि से जुड़ा रहता है। वास्तु पुरुष मंडल नाभि के स्थान पर ब्रह्म को प्रदर्शित करता है। कमल ब्रह्म का आधर है अतः नाभि ब्रह्म को जीव से अथवा पिंड अथवा जीवन से जोड़ता है। अतः इसी कारण से इस स्थान को बिल्कुल खाली रखने की सलाह दी गयी है। इसीलिए किसी भवन के केंद्रीकृत वर्ग को बिल्कुल खाली एवं खुला छोड़ना चाहिए। ऐसा माना जाता है कि वास्तु पुरुष इसी खुले क्षेत्रा से श्वांस लेते हैं।

4. अनाहत चक्र हृदय के समीप है। यह वायुमंडल अथवा वायु से संबंध्ति है। वायु का परिगमन शरीर में पफेपफड़ों के द्वारा संचालित होता है।

5. विशु(ि चक्र गले में होता है। गले में खोखलापन आकाश तत्व को निर्दिष्ट करता है। ¬ शब्द का उच्चारण गले से ही किया जाता है। किसी भी उच्चारण की प्रतिध्वनि सिर के खोखले भाग से एवं मस्तिष्क के रिक्त स्थान से उत्पन्न होती है। वास्तु पुरुष का सिर उत्तर-पूर्व में है, यह दिशा अंतरिक्ष से संबंध्ति है। वायुमंडलीय स्थिति से यह भूभाग ठंडा होता है। इसीलिए इस दिशा में पूजा घर के निर्माण की सलाह दी गयी है।

उपर्युक्त के अतिरिक्त वास्तु पुरुष का लिंब भी भवन निर्माण से संबंध्ति है। पाचन के लिए लीवर एक महत्वपूर्ण अंग है। लीवर शरीर के दक्षिण-पूर्व भाग में स्थित होता है। अतः स्थापतियों को इस दिशा में रसोई घर के निर्माण की सलाह देनी चाहिए क्योंकि यह अग्नि से संबंध्ति है तथा सूर्य सर्वप्रथम इसी दिशा में पहुंचता है।

रात में संग्रहित प्रदूषण सूर्य की किरणों के द्वारा प्रवाहित हो जाता है। यही कारण है कि रसोई घर के निर्माण की सलाह इसी पहलू को दृष्टिगत रखकर दक्षिण-पूर्व में करने की दी जाती है। उत्तर-पश्चिम क्षेत्रा के अध्पिति वायु हैं। वास्तु पुरुष के पेट, तिल्ली एवं मलाशय इस दिशा में होते हैं। इस दिशा में स्टोर रूम बनाने की सलाह दी जाती है।

चिकित्सा शास्त्रा के अनुसार तिल्ली शरीर में रक्त को जमा करने तथा उसका प्रवाह सुचारू रूप से बनाये रखने में मदद करता है। जड़ी-बूटियों के पौध्े उत्तर-पश्चिम में लगाने की सलाह दी जाती है। ऐसी सलाह देने का तात्पर्य यह है कि गृह के निवासियों को इन जड़ी-बूटियों के सुगंध् हवा के द्वारा मिलते रहें।

मत्स्य पुराण के अनुसार वास्तु पुरुष मंडल में वास्तु पुरुष के विभिन्न अंगों के स्थान के लिए खास देवता होते हैं। ऐसा कहा जाता है कि उत्तर-पूर्व में बृहस्पति ग्रह एवं ईश्वर का निवास होता है। अतः इस क्षेत्रा में मानसिक कार्य करने के लिए कमरे एवं पूजा घर निर्मित किए जा सकते हैं। दक्षिण-पूर्व में शुक्र ग्रह एवं देवी पार्वती का निवास होता है। ऐसा माना जाता है कि शुक्र भोग-विलास का द्योतक है तथा पार्वती संकेतात्मक रूप से मन की माता हैं। चंचलता मस्तिष्क का स्वभाव है।

यदि पार्वती घर को संभालने वाली बन जाती हैं तो उनका स्थान इस दिशा में गृहिणी की तरह स्थित होगा। इसी कारण से इस दिशा में रसोई घर बनाने की सलाह दी गई है। दक्षिण-पश्चिम राहु एवं काम के द्वारा नियंत्रित होता है। अतः इस दिशा में शयन कक्ष स्थित होना चाहिए। राहु को अपूर्ण माना जाता है। इसलिए जीवन में पूर्णता लाने के लिए इस क्षेत्रा को वैवाहिक जीवन के उद्देश्य से चुना गया है।

जैसा कि पूर्व में कहा गया है कि वास्तु पुरुष का पीठ ऊपर की ओर होता है। इस सि(ांत का तात्पर्य यह है कि बोझ हमेशा पीठ पर ही उठाया जाता है। यह नियम है कि किसी भी स्तंभ का निर्माण वास्तु पुरुष के संवेदनशील बिंदु पर नहीं किया जाना चाहिए। शारीरिक शास्त्रा के अनुसार संवेदनशील बिंदु प्रवेश एवं निकास द्वार हैं। ऐसा माना जाता है कि यदि प्रवेश एवं निकास द्वार अवरु( हो जाएगा तो वास्तु पुरुष का दम घुट जाएगा।

संवेदनशील बिंदु बांह एवं पैर के जोड़ों पर भी होते हैं। यदि इन स्थानों पर स्तंभ का निर्माण होगा तो इसे उपयुक्त आधर एवं बल नहीं प्राप्त होगा। इसीलिए इन बिंदुओं को स्तंभ बनाने के लिए उपयुक्त नहीं माना गया है। दक्षिण पश्चिम को भारी रखने तथा उत्तर पूर्व का हल्का रखने की बात कही गयी है। ऐशान्य आकाश तत्व का स्थान है अतः यहां पर देवी-देवताओं को स्थापित करना चाहिए।

यह प्राकृतिक नियम है कि आधार हमेशा भारी होना चाहिए तथा सिर पर बोझ नहीं डालना चाहिए। पहाड़ी, पर्वत एवं वृक्ष भी ऐसा ही निर्देशित करते हैं। प्रकृति ने हमें पांच इंद्रियां प्रदान की हैं। ये प्रमुख अंग हैं - आंख दृष्टि के लिए, कान श्रवण के लिए, नाक सूंघने के लिए तथा मुंह स्वाद लेने के लिए, ये सभी शरीर में सिर के भाग में स्थित हैं। वास्तु पुरुष का सिर ऐशान्य में है। सिर को हमेशा सुरक्षित रहना चाहिए।

इसीलिए उत्तर-पूर्व को हमेशा भारी निर्माण से मुक्त रखना चाहिए तथा यहां स्तंभ आदि का निर्माण नहीं करना चाहिए। हमारा स्वास्थ्य तभी ठीक रहता है जब हम प्रकृति के नियम के अनुसार अपने खान-पान का ध्यान रखते हैं। ठीक इसी प्रकार से किसी भी भवन का स्वास्थ्य अथवा वास्तु तभी ठीक रहेगा जब निर्माण प्रकृति के सि(ांतों को सम्मान देते हुए किया जाएगा। शरीर के विभिन्न अंग अपने नियत स्थान पर होना आवश्यक है।

इसी प्रकार से घर के कमरे भी उपयुक्त स्थान पर बनाया जाना चाहिए। इससे घर का स्वास्थ्य अच्छा रहेगा तथा घर में रहने वाले लोग खुश रहेंगे। यदि किसी की आंखें कंध्े पर स्थित हों तो यह असामान्य प्रतीत होगा। यही बात किसी भवन के मामले में भी लागू होती है। ब्रह्मांड का नियम है कि सूर्य केंद्र में है तथा पृथ्वी एवं दूसरे ग्रह सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाते हैं।

वास्तु शास्त्रा में समान नियम लागू होते हैं। सभी घरेलू कार्य जैसे पूजा, अध्ययन अथवा भोजन बनाने का काम पूर्व एवं उससे लगी हुई दिशाओं जैसे उत्तर-पूर्व एवं दक्षिण-पूर्व में संपादित किये जाते हैं। सूर्य दोपहर में मध्य आकाश में स्थित होता है इसीलिए गृह का मध्य भाग भोजन कक्ष एवं कार्य स्थल के रूप में निर्मित किया जाता है। सूर्यास्त के पश्चात् पश्चिम से लगे हुए आसमान अर्थात् दक्षिण-पश्चिम एवं उत्तर-पश्चिम शयन कक्ष एवं भंडार गृह से ढंक जाते हैं।

अमेरिका आदि देशों के सर्वशक्तिमान होने के पीछे वास्तु कारण यहां यह ध्यान देना कापफी रुचिकर है कि वास्तु के सि(ांत दो देशों की सीमाओं पर भी लागू किए जा सकते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका के भौतिक मानचित्रा के अध्ययन से यह देखा जा सकता है कि पश्चिम में राॅकी पर्वत ;13000 पफीटद्ध के पूर्व में स्थित अप्लेशियन पर्वत ;3000 पफीटद्ध से अध्कि ऊंचाई है तथा उत्तर-पूर्व में विस्तार के अतिरिक्त इसके पांच झील तथा उत्तर-पूर्व की ओर प्रवाहित होने वाली सेन्ट लाॅरेन्स नदी ने इसे विश्व के सबसे शक्तिशाली देश की स्थिति प्रदान की है।

पूर्व में माउंट ब्लैंक ;15771 पफीटद्ध, जूरा पर्वत, वाॅस्जेस एवं आल्प्स स्थित होने के कारण प्रफांस कभी भी शिखर पर नहीं पहुंच पाया। नेपोलियन के साम्राज्य के दक्षिण-पूर्व में दो विस्तार थे जिसके परिणामस्वरूप उसके साम्राज्य का विभाजन हो गया।

ब्रिटनी के पठार, पश्चिम में समुद्र तल से ऊंचाई, उत्तर-पूर्व कटा हुआ, उत्तर-पश्चिम एवं दक्षिण-पश्चिम में थोड़ी वृ(ि ने प्रफांस को भविष्य के आक्रमण एवं यु(ों के लिए संवेदनशील बना दिया है। जर्मनी के उत्तरी भाग में ‘नाॅर्थ जर्मन प्लेन’ है तथा इसका दक्षिणी क्षेत्रा पर्वतों से घिरा हुआ है जिसके कारण जर्मनी शक्तिशाली हुआ तथा इसका एकीकरण भी हुआ।

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