उद्धवजी वृष्णिवंशियों में एक प्रधान पुरुष थे। वे साक्षात् बृहस्पति जी के शिष्य और परम बुद्धिमान थे। वे भगवान् श्रीकृष्ण के प्यारे सखा तथा मंत्री भी थे। एक दिन भगवान श्रीकृष्ण ने अपने प्रिय भक्त और एकान्तप्रेमी उद्धवजी का हाथ अपने हाथ में लेकर कहा। उद्ध व ! तुम व्रज में जाओ। वहां मेरे पिता-माता नंदबाबा और यशोदा मैया हैं, उन्हें आनन्दित करो; और गोपियां मेरे विरह की व्याधि से बहुत ही दुखी हो रही हैं, उन्हें मेरे संदेश सुनाकर उस वेदना से मुक्त करो। प्यारे उद्धव! गोपियों का मन नित्य-निरंतर मुझमें ही लगा रहता है।
उनके प्राण, उनका जीवन, उनका सर्वस्व मैं ही हूं। मेरे लिये उन्होंने अपने पति-पुत्र आदि सभी सगे-संबंधियों को छोड़ दिया है। उन्होंने बुद्धि से भी मुझको अपना प्यारा, अपना प्रियतम-नहीं, नहीं; अपनी आत्मा मान रखा है। मेरा यह व्रत है कि जो लोग मेरे लिये लौकिक और पारलौकिक धर्मों को छोड़ देते हैं, उनका भरण-पोषण मैं स्वयं करता हूं। मैं उन गोपियों का परम प्रियतम हूं। मेरे यहां चले आने से वे मुझे दूरस्थ मानती हैं और मेरा स्मरण करके अत्यंत मोहित हो रही हैं, बार-बार मूच्र्छित हो जाती हैं। वे मेरे विरह की व्यथा से विह्वल हो रही हैं, प्रति क्षण मेरे लिये उत्कंठित रहती हैं। जब भगवान श्रीकृष्ण ने यह बात कही, तब उद्धवजी बड़े आदर से अपने स्वामी का संदेश लेकर रथ पर सवार हुए और नंदगांव के लिये चल पड़े। जब भगवान श्रीकृष्ण के प्यारे अनुचर उद्धवजी व्रज में आये, तब उनसे मिलकर नंदबाबा बहुत ही प्रसन्न हुए। उन्होंने उद्ध वजी को गले लगाकर उनका वैसे ही सम्मान किया, मानो स्वयं भगवान श्रीकृष्ण आ गये हों। नंदबाबा का हृदय यों ही भगवान् श्रीकृष्ण के अनुराग-रंग में रंगा हुआ था।
जब इस प्रकार वे उनकी लीलाओं का एक-एक करके स्मरण करने लगे, तब तो उनमें प्रेम की बाढ़ ही आ गयी, वे विह्वल हो गये और मिलने की अत्यंत उत्कंठा होने के कारण उनका गला रूंध गया। वे चुप हो गये। यशोदा रानी भी वहीं बैठकर नंदबाबा की बातें सुन रही थीं, श्रीकृष्ण की एक-एक लीला सुनकर उनके नेत्रों से आंसू बह रहे थे। उद्ध वजी नंदबाबा और यशोदा रानी के हृदय में श्रीकृष्ण के प्रति कैसा अगाध अनुराग है- यह देखकर आनंदमग्न हो गये। गोपियां भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन के लिये अत्यंत उत्सुक-लालायित हो रही थीं, उनके लिये तड़प रही थीं।
उनकी बातें सुनकर उद्धवजी ने उन्हें उनके प्रियतम का संदेश सुनाकर सांत्वना देते हुए इस प्रकार कहा। उद्धवजी ने कहा - गोपियों ! तुम कृत-कृत्य हो। तुम्हारा जीवन सफल है। देवियों ! तुम सारे संसार के लिये पूजनीय हो; क्योंकि तुमलोगों ने भगवान् श्रीकृष्ण को अपना हृदय, अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया है।
दान, व्रत, तप, होम, जप, वेदाध्ययन, ध्यान, धारणा, समाधि और कल्याण के अन्य विविध साधनों के द्वारा भगवान की भक्ति प्राप्त हो, यही प्रयत्न किया जाता है। यह बड़े सौभाग्य की बात है कि तुमलोगों ने पवित्रकीर्ति भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति वही सर्वोत्तम प्रेमभक्ति प्राप्त की है और उसी का आदर्श स्थापित किया है, जो बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों के लिये भी अत्यंत दुर्लभ है।
महाभाग्यवती गोपियों! भगवान् श्रीकृष्ण के वियोग से तुमने उन इन्द्रियातीत परमात्मा के प्रति वह भाव प्राप्त कर लिया है, जो सभी वस्तुओं के रूप में उनका दर्शन कराता है। तुम्हारे प्रियतम भगवान् श्रीकृष्ण ने तुमलोगों को परम सुख देने के लिये यह प्रिय संदेश भेजा है।
कल्याणियों ! वही लेकर मैं तुमलोगों के पास आया हूं। इस प्रकार कई महीनों तक व्रज में रहकर उद्धवजी अब मथुरा जाने के लिये गोपियों से, नंदबाबा और यशोदा मैया से आज्ञा प्राप्त की। उद्धव जी मथुरापुरी लौट आये। वहां पहुंचकर उन्होंने भगवान् श्रीकृष्ण को प्रणाम किया और उन्हें व्रजवासियों की प्रेममयी भक्ति का जैसा उन्होंने देखा था, कह सुनाया।