सफल वैवाहिक जीवन और शुभ मुहूर्त
सफल वैवाहिक जीवन और शुभ मुहूर्त

सफल वैवाहिक जीवन और शुभ मुहूर्त  

व्यूस : 8241 | आगस्त 2009
सफल वैवाहिक जीवन और शुभ मुहूर्त पं. सुनील जोशी जुन्नरकर सुंदर और सुशील स्त्री धर्म, अर्थ और काम (त्रिवर्ग) का साधन होती है। कोई लड़की अच्छी जीवन संगिनी तभी बन पाती है जब शुभ लग्न में विवाह हो। इसीलिए विवाह का मुहूर्त गंभीरता विश्लेषण कर ही निकालना चाहिए। यह बहुत आश्यक है क्योंकि समस्त धर्म, कर्म एवं सांसारिक शुभ फलों की प्राप्ति विवाह लग्न के अधीन है। विवाह एक प्रमुख संस्कार है। जीवन को सुखमय बनाने के लिए वैवाहिक जीवन का सुखमय होना जरूरी है। इस हेतु प्रकृति ने स्त्री और पुरुष की रचना की है। आज का तथाकथित विकसित और प्रगतिशील समाज इसका भले ही विरोध करे, पर इसका अपना महत्व है। यही कारण है कि जहां कहीं भी इसका विरोध होता है, वहां उच्छृंखलता आती है और जीवन दुखमय हो जाता है। इस उच्छृंखलता से मानव समाज को बचाने के लिए ही ऋषि मुनियों ने विवाह का प्रावधान किया। सफल वैवाहिक जीवन के लिए जन्म कुंडली एवं नक्षत्र मिलान तथा शुभ मुहूर्त और शुभ लग्न पर गंभीरता से विचार करना आवश्यक है। यही इस आलेख का अभीष्ट भी है। विवाह मास विवाह हेतु चांद्र मास माघ, फाल्गुन, वैशाख तथा ज्येष्ठ शुभ हैं। कार्तिक व मार्गशीर्ष मध्यम हैं। चैत्र, पौष व आषाढ़ मास में विवाह वज्र्य है। चांद्र मासों में भी विवाह तभी करना चाहिए जब सूर्य मेष, वृष, मिथुन, वृश्चिक, मकर या कुंभ में हो। सामान्यतः उत्तरायण सूर्य में मीनार्क चैत्र को छोड़कर आषाढ़ शुक्ल दशमी तक विवाह सर्वत्र मान्य है। मिथुन का सूर्य हो तो आषाढ़ शुक्ल दशमी तक विवाह शुभ है। यदि पौष में सूर्य मकर का, चैत्र में मेष का और कार्तिक में वृश्चिक का हो तो विवाह शास्त्रसम्मत होता है। कार्तिक में देवोत्थान एकादशी से पूर्णिमा तक पांच दिन की अवधि विवाह के लिए शुभ होती है। इसमें तुला के सूर्य का दोष नहीं होता। ज्येष्ठ मास व ज्येष्ठा नक्षत्र में उत्पन्न ज्येष्ठा संतानों का विवाह ज्येष्ठ मास में नहीं करना चाहिए क्योंकि तीन ज्येष्ठ मिलने से त्रिज्येष्ठ नामक दोष होता है। बड़ा लड़का, बड़ी लड़की और ज्येष्ठ मास अशुभ और दो ज्येष्ठ मध्यम होते हंै। त्रिबल शुद्धि विचार इसमें वर व कन्या की जन्म राशि से सूर्य, चंद्र व गुरु के गोचर का विचार किया जाता है। विवाह मुहूर्त के दिनों में जिस दिन त्रिबलशुद्धि हो वह शुभ होता है। कन्या के लिए गुरुबल व वर के लिए सूर्यबल का विचार और चंद्रबल का विचार दोनों के लिए करना चाहिए। वरस्य भास्कर बलं विवाह के समय वर के लिए सूर्य का बलवान और शुभ होना अति आवश्यक है। सूर्य के बलवान होने से दाम्पत्य जीवन में पति का पत्नी पर प्रभाव व नियंत्रण रहता है। दोनों में वैचारिक सामंजस्य रहता है एवं जीवन के कठिन समय में संघर्ष करने की क्षमता प्राप्त होती है। सूर्य की शुभता से संपूर्ण वैवाहिक जीवन सुखमय हो जाता है। विवाह के समय वर की जन्म राशि से भाव 3, 6, 10 या 11 में सूर्य का गोचर श्रेष्ठ है। भाव 4, 8 या 12 में इस गोचर के अनिष्ट होने के कारण त्याज्य है। यदि सूर्य भाव 1, 2, 5, 7 या 9 में हो तो विवाह से पहले उसकी पूजा व लालदान करने से विवाह शुभ होता है। इनमें 1, 7 वें स्थान का सूर्य वर द्वारा विशेष पूज्य माना गया है। सुखी दाम्पत्य जीवन के लिए सूर्य के उत्तरायण होने के दिनों में शुक्ल पक्ष व दिवा लग्न में विवाह करना चाहिए। दिवालग्न में भी अभिजित मुहूर्त सर्वश्रेष्ठ है। सूर्य जिस राशि में हो उससे चतुर्थ राशि का लग्न अभिजित लग्न कहलाता है। यह स्थानीय सूर्योदय के मध्याह्न काल में पड़ता है। स्थानीय समयानुसार दिन के 12 बजने से 24 मिनट पूर्व व 24 मिनट पश्चात तक 48 मिनट का अभिजित मुहूर्त होता है। ब्राह्मणों व क्षत्रियों के लिए यह विवाह लग्न श्रेष्ठ माना जाता है। दक्षिण भारतीय ब्राह्मण अभिजित लग्न में ही विवाह करते हैं, यही कारण है कि उत्तर भारतीयों की अपेक्षा उनका वैवाहिक जीवन अधिक सफल रहता है। जन्मगत जाति के आधार पर ही नहीं बल्कि जन्म नक्षत्र के अनुसार यदि वर का वर्ण ब्राह्मण या क्षत्रिय हो तो भी अभिजित लग्न में ही विवाह करना शुभफलदायी होता है। विवाह लग्न में सूर्य यदि एकादश भाव में हो तो यह सोने में सुहागा होता है। विवाह हेतु अन्य लग्न शुद्धि न मिले तो अभिजित मुहूर्त/लग्न में विवाह सभी वर्गों के लिए शुभ है। कन्यायं गुरौ बलं कन्या के दाम्पत्य सुख व पति भाव का कारक गुरु है, इसलिए गुरु की शुद्धि में कन्या का विवाह शुभ होता है। कन्या की जन्मराशि से भाव 2, 5, 7, 9 या 11 में स्थित गुरु विवाह हेतु शुभ माना जाता है, क्योंकि इन स्थानों में गुरु बलवान होता है। भाव 1, 3, 6 या 10 में स्थित गुरु मध्यम होता है। इस स्थिति के गुरु की पूजा से वह शुभ हो जाता है। कन्या से पीला दान कराके विवाह करना चाहिए। भाव 4, 8 या 12 में स्थित गुरु अशुभ होता है, यह पूजा से भी शुभ नहीं होता। अतः कन्या की जन्म राशि से भाव 4, 8 या 12 में स्थित गुरु विवाह हेतु वर्जित है। मिथुन या कन्या राशिस्थ गुरु कन्या के लिए हानिकारक और कर्क या मकर राशि मंे हो तो कन्या के लिए दुःखदायी होता है। किंतु यदि उक्त स्थानों में स्वराशिस्थ या परमोच्च हो तो शुभ होता है। गुरु सिंह राशि के नवांश में हो तो विवाह नहीं करना चाहिए। कन्या के विवाह हेतु गुरु शुद्धि का इतना गहन विचार तो उस समय किया जाता था जब उसका विवाह दस वर्ष या इससे भी कम की आयु में होता था। आजकल तो लड़की का विवाह अठारह वर्ष के बाद ही होता है। इस उम्र तक वह कन्या नहीं रहती, वह तो रजस्वला होकर युवती हो जाती है। इसलिए गुरुबल की शुद्धि न होने की स्थिति में भी पूजा कर लड़की का विवाह करना शास्त्रसम्मत है। ऐसे में विवाह लग्न शुद्धि के लिए चंद्रबल देखना ही अनिवार्य है। विवाहे चंद्रबलं श्री बादरायण के अनुसार गुरु और शुक्र के बाल्य दोष में कन्या का और वृद्धत्व दोष में पुरुष का विनाश होता है। गुरु अस्त हो तो पति का, शुक्रास्त में कन्या का तथा चन्द्रास्त में दोनों का अनिष्ट होता है। अतः विवाह के समय दोनों के लिए चंद्रबल की शुद्धि आवश्यक है। दोनों की जन्मराशि से चंद्र का गोचर भाव 3, 6, 7, 10 या 11 में शुभ (उत्तम) होता है। चंद्र भाव 1, 2, 5, 9 या 12 में स्थित हो तो उसकी पूजा करनी चाहिए। भाव 4, 8 या 12 में स्थित चंद्र दोनों के लिए अशुभ है। एकार्गलादि विवाह संबंधी दोष चंद्र एवं सूर्य के बलयुक्त होने के कारण नष्ट हो जाते हैं, अर्थात दोनों उच्चस्थ या मित्रक्षेत्रीय होकर विवाह लग्न में स्थित हों तो सारे दोष नष्ट हो जाते हैं। बुध के साथ चंद्र शुभ और गुरु के साथ सुखदायक होता है। विवाह लग्न में चंद्र के निम्नोक्त स्थितियां दोषपूर्ण होती हंै, इनका त्याग करना चाहिए। सूर्य और चंद्र की युति में विवाह हो तो दम्पति को दारिद्र्य का सामना करना पड़ता है। मंगल के साथ युति में होने पर मृत्युतुल्य पीड़ा होती है। शुक्र के साथ में विवाह हो तो पत्नी को सौतन का दुख झेलना पड़ता है। शनि की युति वैराग्य देती है। राहु से युत चंद्र कलहकारी और केतु से युत कष्टकारी होता है। यदि विवाह लग्न में चंद्र दो पाप ग्रहों से युत हो तो मृत्युकारक होता है। विवाह नक्षत्र रोहिणी, मृगशिरा, मघा, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढा़, उत्तराभाद्रपद हस्त, स्वाति, अनुराधा, मूल और रेवती नक्षत्र विवाह हेतु शुभ हंै। इन नक्षत्रों के पापग्रहों से वेधित न होने पर विवाह हेतु श्रेष्ठ, किंतु वेधित होने पर वर्जित होते हैं। जन्म नक्षत्र, कर्म नक्षत्र (जन्म से 10वां), सांघातिक (16वां), वैनाशिक (23 वां), निधन तारा (7, 12 या 25 वां नक्षत्र) आदि निषिद्ध हैं। नक्षत्र वेध पंचशलाका चक्र में एक रेखा पर पड़ने वाले निम्नोक्त नक्षत्रों में ग्रह होने से नक्षत्रों का परस्पर वेध हो जाता है। रोहिणी-अभिजित, भरणी-अनुराधा, उत्तराषाढ़ा-मृगशिरा, श्रवण-मघा, हस्त-उत्तराभाद्रपद, स्वाति-शतभिषा मूल-पुनर्वसु, रेवती-उत्तराफाल्गुनी, चित्रा-पूर्वाभाद्रपद, ज्येष्ठा-पुष्य, पूर्वाषाढ़-आद्र्रा धनिष्ठा-अश्लेषा, अश्विनी-पूर्वाफाल्गुनी, विशाखा-कृत्तिका का आपस में वेध होता है। यदि विवाह नक्षत्र में शुभग्रह का वेध हो तो ‘पाद वेध’ होता है। पादवेध में पूरा नक्षत्र दूषित नहीं होता, सिर्फ चरण दूषित होता है। यदि नक्षत्र के चतुर्थ चरण पर ग्रह हो तो सामने वाले नक्षत्र के प्रथम चरण पर वेध होगा। यदि ग्रह द्वितीय चरण पर हो तो सामने वाले नक्षत्र के तृतीय चरण पर वेध होगा। विवाह मुहूर्त में पादवेध के काल का ही त्याग करें, संपूर्ण नक्षत्र का नहीं। वेध दोष कोई भी नक्षत्र पाप ग्रहों से वेधित या भुक्त हो तो वह नक्षत्र दूषित (अशुभ) हो जाता है, जिसे वेधदोष कहते हैं। पापग्रहों द्वारा भोगकर छोड़े हुए नक्षत्र को यदि चंद्र भोग ले तो नक्षत्र शुद्ध हो जाता है। ‘रवि वेधे च वैधकं, पुत्रशोको भवेत कुजे।’ अर्थात सूर्य के वेध में विवाह करने से कन्या विधवा हो जाती है और मंगल वेध से पुत्र शोक प्राप्त होता है। शनि के वेध से मृतसंतान उत्पन्न होती है, राहु के वेध से स्त्री कुलटा हो जाती है और केतु का वेध सर्वनाश करने वाला होता है। नक्षत्र वेध दोष विवाह मुहूर्त में सर्वाधिक विचारणीय है। इस दोष की सार्वभौमिक मान्यता है, अतः विवाह लग्न में इसका परित्याग अवश्य ही करना चाहिए। विवाह में विशेष दोष विवाह लग्न में मुख्यरूप से 10 दोष वर्जित हैं- 1. लता (लात) 2. पात 3. युति, 4. वेध, 5. जामित्र, 6. वाणपंचक 7. एकर्गल (खार्जूर), 8. उपग्रह, 9. क्रांतिसाम्य, और 10. दग्धा। इनमें भी वेध व क्रांतिसाम्य बड़े हंै, अतः विवाह लग्न में इनका अवश्य विचार करें, हर जगह व हर समय इनका त्याग करना चाहिए। क्रांतिसाम्य जब स्पष्ट चन्द्रक्रांति सूर्यक्रांति के बिल्कुल समान हो तब क्रांतिसाम्य दोष होता है। एक ही अयन में स्पष्ट चंद्र व सूर्य का योग 360 अंश पर क्रांतिसाम्य होने पर वैधृति नामक महापात होता है तथा विभिन्न अयनों में स्पष्ट चंद्र व सूर्य का योग 180 अंश पर क्रांतिसाम्य होने पर यह व्यतिपात संज्ञक होता है। क्रांतिसाम्य का निर्धारण गणित विधि से सिद्धान्तोक्त पाताध्यायों के अनुसार किया जाता है। साधारण तौर पर मेष-सिंह, वृष-मकर, तुला-कुंभ, कन्या-मीन, कर्क-वृश्चिक और धनु-मिथुन इन राशि युग्मों में एक में सूर्य व एक में चंद्र हो तो क्रांतिसाम्य दोष हो सकता है। क्रांतिसाम्य दोष शुभकार्यों में सभी शुभ गुणों को नष्ट कर देता है। विवाह पटल के अनुसार शस्त्र से कटकर, अग्नि में जलकर या सर्प के दंश से पीड़ित व्यक्ति तो जीवित बच सकता है, किंतु क्रांतिसाम्य में विवाह करने पर दोनों (वर-वधू) ही जीवित नहीं रह पाते। अतः लग्न शुभ (शुद्ध) होने पर भी उक्त दोषांे (क्रांतिसाम्य, वेधदोष) में विवाह नहीं करना चाहिए। किस लग्न में करें विवाह? लग्न का अर्थ है लगा रहना। सूर्य जिस राशि में स्थित रहता है, वहीं सूर्योदय कालीन लग्न उदित होता है। उदयकालीन लग्न में उसके बाद के लग्न के भोग्यकाल को जोड़कर, उसके आगे का लग्न ज्ञात कर सकते हैं। लगभग 2 घंटे एक राशि का लग्न रहता है। इस प्रकार दिन-रात के 24 घंटों में 12 राशियों के 12 लग्न होते है। सभी मुहूर्तो में लग्न की सर्वाधिक प्रमुख होता है। विवाह आदि शुभकार्यां में लग्न का शोधन गंभीरता से किया जाता है। वृष, मिथुन, कन्या, तुला और धनु लग्नों में विवाह उत्तम फलदायी होता है। लग्न शुद्धि विवाह लग्न में शुभ ग्रह केंद्र, त्रिकोण या द्वितीय और द्वादश में हों और पाप ग्रह भाव 3, 6 और 11 में हांे तो शुभफल देते हैं। लग्न (प्रथम भाव) से षष्ठ में शुक्र व अष्टम में मंगल अशुभ होता है। सप्तम भाव ग्रह रहित हो और विवाह लग्न से चंद्र भाव 6, 8 या 12 में न हो तो लग्न शुभ होता है। लग्न भंग मुहूर्त चिंतामणि के अनुसार- जिस लग्न के व्यय भाव में शनि हो, उसमें विवाह नहीं करना चाहिए। दशम में मंगल, तृतीय में शुक्र, लग्न में चंद्र या पाप ग्रह हो या लग्नेश, सूर्य, चंद्र छठे स्थान में हांे अथवा चंद्र, लग्न के स्वामी का कोई शुभ ग्रह आठवें स्थान में हो अथवा सप्तम स्थान में कोई भी ग्रह हो तो लग्न भंग कहा जाता है। इसमें विवाह करना अशुभ होता है। नवांश शुद्धि विवाह लग्न में कन्या, मिथुन, तुला और धनु का पूर्वार्ध नवांश शुभ होता है, बशर्ते ये अंतिम नवांश न हों। उक्त राशियों का नवांश हो तो दम्पति को पुत्र, धन व सौभाग्य की प्राप्ति होती है। दम्पति की जन्म राशि या लग्न से अष्टम या द्वादश भाव का नवांश यदि अनेक गुणों से युक्त हो तो भी त्याज्य है। श्री रामदैवज्ञ के अनुसार लग्न का स्वामी लग्न में स्थित हो या उसे देखता हो, अथवा नवांश का स्वामी नवांश में स्थित हो या उसे देखता हो तो वह वर को शुभफल प्रदान करता है। इसी प्रकार नवांश का सप्तमेश सप्तम भाव को देखता हो या उसमें स्थित हो, अथवा लग्नेश लग्न से सप्तम भाव को देखता हो तो वधू के लिए शुभफलदायक होता है। कर्तरी दोष और उसका परिहार विवाह लग्न से भाव 2 या 12 में यदि पाप ग्रह हो तो कर्तरी दोष होता है। यह कैंची की तरह दोनों ओर से लग्न की शुभता को काटता है। लग्न से द्वितीय स्थान में प्रापग्रह वक्री और द्वादश में पापग्रह मार्गी हो तो यह दोष महाकर्तरी होता है। दम्पति के जीवन को काटने वाला होने के कारण यह त्याज्य है। लग्न में बलवान शुभग्रह हो तो कर्तरी दोष भंग हो जाता है। केंद्र या त्रिकोण में गुरु, शुक्र या बुध हो, या कर्तरीकारक ग्रह नीचगत अथवा शत्रुक्षेत्री हो तो कर्तरी दोष का कुप्रभाव कम हो जाता है। पंगु, अंध और बधिर लग्न तुला और वृश्चिक दिन में तथा धनु एवं मकर लग्न रात्रि में बधिर (बहरी) होते हंै। बधिर लग्न में विवाह करने से दाम्पत्य दुखमय होता है। मेष, वृष और सिंह दिन में और मिथुन, कर्क तथा कन्या लग्न रात्रि में अंधे होते हैं। कुंभ दिन में एवं मीन रात्रि में पंगु (विकलांग) होता है। पंगु लग्न में विवाह होने पर धन का नाश होता है। दिवा अंध लग्न में कन्या विधवा हो जाती है और रात्रि अंध लग्न संतान के लिए मृत्युकारक होता है। इसलिए इन दोषपूर्ण लग्नों से बचना चाहिए। हां, यदि लग्न का स्वामी या गुरु लग्न को देखता हो तो पंगु, बधिर आदि लग्न दोष नहीं होते। गोधूलि लग्न सूर्य राशि उदयकालीन लग्न से सप्तम लग्न गोधूलि कहलाता है। सूर्यास्त से 15 पल पूर्व और 15 पल बाद आधी घटी (12 मिनट) का का काल गोधूलि काल होता है। यद्यपि कुछ विद्वान संपूर्ण एक घटी (24 मिनट) को गोधूलि मानते हैं। अर्थात सूर्यास्त से पूर्व आधी घटी (12 मिनट) तथा सूर्यास्त के पश्चात आधी घटी (12 मिनट) गोधूलि बेला मानते हैं। यह एक प्रशस्त मुहूर्त है। गोधूलि लग्न में नक्षत्र, तिथि, करण, लग्न एवं जामित्र दोष स्वतः ही दूर हो जाते हैं, इनकी शुद्धि की आवश्यकता नहीं रहती है। किंतु गोधूलि में कुलिक, क्रांतिसाम्य और भाव 1, 6 अथवा 8 में स्थित चंद्र त्याज्य है। लग्न से प्रथम, षष्ठ या अष्टम में चंद्र हो तो कन्या का नाश होता है। भाव 2, 3 या 11 में चंद्र हो तो दाम्पत्य जीवन के लिए सुखद होता है। गुरुवार को सूर्यास्त के बाद एवं शनिवार को सूर्यास्त से पूर्व की गोधूलि बेला शुभ होती है। यदि शुद्ध लग्न मिलता हो तो उसका त्यागकर गोधूलि में विवाह विशेष शुभ नहीं है। लग्न शुद्धि प्राप्त न हो तो गोधूलि में विवाह करना प्रशस्त है। गोधूलि लग्न शूद्रों व वैश्यों के लिए शुभ है, ब्राह्मण आदि उच्चवर्ग के लिए नहीं। वंशानुगत जाति के अलावा यदि नात्र के आधार पर वर की जाति ब्राह्मण या क्षत्रिय हो तब भी गोधूलि लग्न में विवाह नहीं करना चाहिए। उत्तम लग्न मिलना तो सौभाग्य की बात है। 21 महादोषों और गुणों को गणित द्वारा निश्चित करके जिस लग्न में दोष कम व गुण अधिक हांे, उसमें विवाह आदि मंगल कार्य करें। विवाह की रस्में (सप्तपदी, फेरे और पाणिग्रहण संस्कार) ज्योतिषी द्वारा सुझाए गए मुहूर्त व लग्न में ही पूरी कर लेनी चाहिए, अन्यथा विवाह मुहूर्त निकलवाने का कोई औचित्य नहीं रह जाता है।



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