श्री हनुमान जी और ॐ-कार
श्री हनुमान जी और ॐ-कार

श्री हनुमान जी और ॐ-कार  

व्यूस : 7691 | आगस्त 2013
श्री हनुमान जी और ¬कार-एक ही तत्व माने गए हैं। जिस प्रकार निराकार ब्रह्म का वाचक साकार रूप के अनुसार ¬कार है, उसी प्रकार श्री हनुमान जी नाम परोक्ष रूप से ब्रह्मा-विष्णु शिवात्मक ‘¬कार का प्रतीक है। तांत्रिक ‘वर्णबीज कोश’ के अनुसार- 1-ह आकाशबीज है, जो ओंकार के प्रथम भाग अकार से गृहीत है। कोशशास्त्र में आकाश द्रव्य को विष्णु तत्व कहा गया है। 2-नु उ कार है, जो शिवतत्व का द्योतक है। 3-नाम के तृतीय भाग मान् में ‘म’ एक भाग है जो बिन्दुनाद शून्य अनुस्वार का बोधक है। यह उपस्थ का बोधक है, जिसके देवता प्रजापति ब्रह्मा हैं। ‘नव’ का भाव है भवसागर से पार लगाने वाली नाव। एक और अर्थ है- ‘प्र’ प्रकर्षण, ‘न’ अर्थात ‘वः’ अर्थात प्रणव अपने उपासकों को मोक्ष तक पहुंचाने वाला है। हनुमन्नाम का शास्त्रीय आधार हन्$उन्=स्त्रीत्वपक्षे ऊँ-हन्$ऊड् =हन्$मतुय्= हनुमत् अथवा हनुमत = हनुमान या हनुमान्। ज्ञानिनाम् अग्रगण्यः - अग्रगन्ता यः स हनुमान। वाल्मीकि रामायण में हनुमन्नाम के दोनों रूप मिलते हैं- भृत्यकार्य हनुमता सुग्रीवस्य कृतं महत्। (वा.रा. 6/1/6) तभियोगे नियुक्तेन कृतं क्त्यं हनुमता। (वा.रा. 6/1/10) इस प्रकार समष्टिशक्ति रूप से ¬ ब्रह्मा-विष्णु-महेश इन तीनों ही आदि कारण तत्वों का प्रतीक है। निष्कर्ष यह कि ‘ह-अ, न्-उ, म-त्-हनुमान-‘ओम्’ एकतत्व हैं। अतः हनुमान जी की उपासना साक्षात ¬-तत्वोपासना होने से परब्रह्म की ही उपासना हुई। जन्म-मृत्यु तथा सांसारिक वासनाओं की मूलभूत माया का विनाश ब्रह्मोपासना के बिना संभव नहीं। उस अचिन्त्य वर्णनातीत ब्रह्म का ही तो स्वरूप ¬कार है। इसी को दर्शनशास्त्र में ‘प्रणव’ नाम दिया गया है। ‘प्र’ का अर्थ है कर्मक्षयपूर्वक, ‘नव’ का अर्थ है नूतन ज्ञान देने वाला। ‘सत्यं ज्ञानमनत्रं ब्रह्म’ आदि श्रुति वाक्यों में ज्ञान को ही ब्रह्म कहा गया है। ‘प्रणव’ का भाव निर्देश और भी है। ‘प्र’ का भाव है प्रकृति से पैदा होने वाला संसाररूपी महासागर, और श्री हनुमान-स्तुति श्री हनुमान जी की स्तुति जिसमें उनके बारह नामों का उल्लेख मिलता है इस प्रकार है: हनुमान×जनीसूनुर्वायुपुत्रो महाबलः। रामेष्टः फाल्गुनसखः पिङ्गाक्षोऽमितविक्रमः।। उदधिक्रमणश्चैव सीताशोकविनाशनः। लक्ष्मणप्राणदाता च दशग्रीवस्य दर्पहा।। एवं द्वादश नामानि कपीन्द्रस्य महात्मनः। स्वापकाले प्रबोधे च यात्राकाले च यः पठेत्।। तस्य सर्वभयं नास्ति रणे च विजयी भवेत्। (आनंद रामायण 8/3/8-11) उनका एक नाम तो हनुमान है ही, दूसरा अंजनी सूत, तीसरा वायुपुत्र, चैथा महाबल, पांचवां रामेष्ट (राम जी के प्रिय), छठा फाल्गुनसखा (अर्जुन के मित्र), सातवां पिंगाक्ष (भूरे नेत्र वाले) आठवां अमितविक्रम, नौवां उदधिक्रमण (समुद्र को लांघने वाले), दसवां सीताशोकविनाशन (सीताजी के शोक को नाश करने वाले), ग्यारहवां लक्ष्मणप्राणदाता (लक्ष्मण को संजीवनी बूटी द्वारा जीवित करने वाले) और बारहवां नाम है- दशग्रीवदर्पहा (रावण के घमंड को चूर करने वाले) ये बारह नाम श्री हनुमानजी के गुणों के द्योतक हैं। श्रीराम और सीता के प्रति जो सेवा कार्य उनके द्वारा हुए हैं, ये सभी नाम उनके परिचायक हैं और यही श्री हनुमान की स्तुति है। इन नामों का जो रात्रि में सोने के समय या प्रातःकाल उठने पर अथवा यात्रारम्भ के समय पाठ करता है, उस व्यक्ति के सभी भय दूर हो जाते हैं। ‘चम्पू रामायण’ में हन्कृत हनुमान के हनुमंग की कथा मिलती है। हनुमान जी ने विद्या से सूर्य का शिष्यत्व और जन्म से पवन का पुत्रत्व प्राप्त किया। वह इंद्र के वज्र-प्रहार से हनुभंग रूप चिह्न से युक्त हैं, और उन्हें रावण के यशरूप चंद्रमा का शरीरधारी कृष्णपक्ष कहते हैं। परंतु ‘पद्मपुराण’ में हनुमान नाम के विषय में विचित्र कल्पना मिलती है- ‘हनुसह’ नामक नगर में बालक ने जन्म-संस्कार प्राप्त किया, इसीलिए वह ‘हनुमान’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। हनुमान जी के विभिन्न विशेषण अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्। सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं रघुपतिप्रियभक्त वातजातं नमामि।। (मानस 5/श्लोक-3) श्री हनुमान का वास्तविक स्वरूप क्या है, इसका परिचय ऊपर वर्णित श्लोक में मिलता है। अतुलितबलधामम् अर्थात श्री हनुमान जी स्वयं तो बलवान हैं ही, दूसरों को बल प्रदान करने में भी समर्थ हैं। हेमशैलाभदेहम् का अर्थ है कि उनकी देह स्वर्णिम शैल की आभा के सदृश है। इसका भावार्थ है कि यदि व्यक्ति अपने शरीर तथा उसकी कांति को स्वर्णिम बनाना चाहता है तो उसे अपने आपको कठिनाइयों के ताप में तपाना चाहिए। दनुजवनकृशानुम् का अर्थ है राक्षसकुलरूपी वन के लिए अग्नि के समान। वह दनुजवत आचरण करने वालों को बिना विचार किए धूल में मिला देते हैं। ज्ञानिनामग्रगण्यम् अर्थात ज्ञानियों में सर्वप्रथम गिनने योग्य। भावार्थ यह कि वही व्यक्ति भगवान के चिर-कृपा-प्रसाद का अधिकारी हो सकता है जो निज विवेक-बल से अपने मार्ग में आने वाले विघ्नों को न केवल पराभूत करे, अपितु- उन्हें इस प्रकार विवश कर दे कि वे उसके बुद्धि-वैभव के आगे नतमस्तक हो उसे हृदय से आशीर्वाद दें। उसकी सफलता के लिए सकलगुणनिधानम् अर्थात संपूर्ण गुणों के आगार, विशिष्ट अर्थ है दुष्ट के साथ दुष्टता और सज्जन के साथ सज्जनता का व्यवहार करने में प्रवीण। वानराणामधीशम् अर्थात वानरों के प्रभु। रघुतिप्रियभक्तम् अर्थात् भगवान श्री राम के प्रिय भक्त। वातजातम् अर्थात वायुपुत्र। भावार्थ यह कि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में वही व्यक्ति सफल हो सकता है जो वायु की भांति सतत गतिशील रहे, रुके नहीं। मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम। वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये।। (श्री रामरक्षास्तोत्र 33) इस श्लोक में आए हुए तीन विशेषणों बुद्धिमतां वरिष्ठम्/वानरयूथमुख्यम्। तथा वातात्मजम् की व्याख्या ज्ञानिनामग्रणण्यम्/वानराणामधीशम् तथा वातजातम् के जैसी है। मनोजवम् अर्थात् मन के समान गति वाले। मारुत तुल्यवेगम् अर्थात् वायु के समान गति वाले। एक विशेषण है- श्रीरामदूतम्। भावार्थ यह कि प्रत्येक क्रिया में वे मन की सी गति से अग्रसर होते हैं, तथापि यह तीव्रगामिता केवल परहित-साधन अथवा स्वामी-हित-साधन तक ही सीमित है। वे मन के अधीन होकर ऐसा कोई कार्य नहीं करते जो उनकी महत्ता का विघातक हो, इसीलिए उनको जितेन्द्रियम् भी कहा गया है।



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