ॐ गं गणपतये नमः गजाननं भूतगणादि सेवितं कपित्थजम्बुफलचारू भक्षणम् उमासुतं शोकविनाशकारकं नमामि विघ्नेश्वर पाद पंकजम्।।
अर्थात्
हे गज के सिर वाले, सभी गणों द्वारा पूजित कैथ और जामुन खाने वाले, शोक का विनाश करने वाले पार्वती पुत्र विघ्नेश्वर गणपति मैं आपके चरण कमलों में नमन करता हंू।
श्री गणेश नाम व्याख्या
गणपति शब्द दो शब्दों गण और पति से मिलकर बना है। महर्षि पाणिनी के अनुसार आठ वसुओं के समूह को गण कहते हैं। वसु का अभिप्राय दिशा स्वामी और दिक्पाल से है। अतः गणपति का अर्थ है दिशाओं के देवता। दूसरे देवता बिना गणपति की आज्ञा के पूजा स्थल पर नहीं पहुंचते इसीलिए किसी भी शुभकार्य या देवपूजन का आरम्भ गणपति की पूजा किए बिना नहीं किया जाता।
जब गणपति सभी दिशाओं की बाधाओं को दूर कर देते हैं तभी दूसरे उपास्य देव पूजा स्थल पर पहुंचते हैं। इसे महाद्वारपूजन या महागणपति पूजन भी कहते हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार ऊँ शब्द का अर्थ गणेश ही है। इसलिए प्रत्येक मंत्र के आरम्भ में ही गणपति का नाम आ जाता है। भगवान गणपति के नामों में गणेश, गणपति, विघ्नहर्ता और विनायक सर्वप्रमुख हैं।
पौराणिक कथाएं
पौराणिक कथाओं के अनुसार गणेश जी की ऋद्धि, सिद्धि और बुद्धि ये तीन पत्नियां मानी गई हैं तथा क्षेम (ऐश्वर्य) और लाभ दो पुत्र हैं। इनके पिता शिव, माता पार्वती तथा भाई कार्तिकेय माने गए हैं। पौराणिक मान्यताओं के मुताबिक भगवान गणेश का जन्म अर्बुद पर्वत (माउंट आबू) यानि अर्बुदारण्य पर हुआ था।
इसीलिए माउंट आबू को अर्धकाशी भी कहा जाता है। स्कंद पुराण के अर्बुद खण्ड में गणेश के प्रादुर्भाव की कथा इस प्रकार है। मां पार्वती ने भगवान शंकर से पुत्र प्राप्ति का वर मांगा। भगवान शंकर ने उन्हें पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया। 33 करोड़ देवी-देवताओं के साथ भगवान शंकर ने अर्बुदारण्य की परिक्रमा की।
ऋषि-मुनियों ने देवी-देवताओं के सहयोग से गोबर गणेश की प्रतिमा स्थापित की जो आज सिद्धिगणेश के नाम से जाना जाता है। इस मंदिर को लम्बोदर मंदिर, सिद्धिविनायक मंदिर, गोबर गणेश मंदिर या फिर सिद्धि गणेश मंदिर के नाम से जाना जाता है। भगवान शिव ने पूरे परिवार के साथ इस जगह पर वास किया इसलिए इसे वास्थान जी तीर्थ के नाम से भी जाना जाता है।
श्री गणेश जी का जन्म भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को अभिजित मुहूर्त में वृश्चिक लग्न में हुआ। उनका जन्मोत्सव विनायक चतुर्थी के नाम से विशेष हर्षोल्लास से मनाया जाता है। गणेश चतुर्थी का त्यौहार दस दिन पश्चात अनन्त चतुर्दशी के दिन इनकी मिट्टी से बनाई गई मूर्तियों को जल में विसर्जित करके सम्पन्न किया जाता है।
शिव पुराण में वर्णित कथा के अनुसार एक बार माता पार्वती जब स्नान के लिए जा रही थीं तो अंगरक्षकों की अनुपस्थिति के चलते उन्होंने हल्दी का एक बुत बनाया और उसमें जीवन डाल दिया और इस प्रकार से उन्होंने अपनी सुरक्षा हेतु भगवान श्री गणेश को जन्म दिया और पार्वती ने गणेश को आदेश दिया कि वह किसी को भी घर के अन्दर नहीं आने दंे और गणेश ने आज्ञाकारी बनकर मां के आदेश का पालन किया।
कुछ समय बाद जब भगवान शिव बाहर से घर लौटे तो गणेश ने उन्हें अन्दर जाने से रोका। भगवान शिव को इस बच्चे पर क्रोध आया। भगवान शिव ने गणेश का सिर त्रिशूल से काट दिया। जब माता पार्वती बाहर आयीं तो वे अपने पुत्र का मृत शरीर देखकर अत्यंत दुखी हुईं और उन्होंने भगवान शिव से आग्रह किया कि वह गणेश को पुनर्जीवित करें। तत्पश्चात भगवान शिव ने हाथी का सिर गणेश के धड़ में जोड़ दिया और गण्ेाश जी पुनर्जीवित हो गये।
अन्य पौराणिक कथाएं
एक दूसरी कथा के अनुसार एक गजासुर नामक दैत्य ने तपस्या करके भगवान शिव से यह वर मांगा कि भगवान शिव उनके पेट में निवास करें। भगवान शिव ने तथास्तु कहा और वह गजासुर के पेट में कैद हो गये। माता पार्वती ने भगवान विष्णु से शिव का पता पूछा तो उन्होंने बताया कि वह गजासुर के पेट में हैं।
उन्होंने नन्दी बैल को गजासुर के सामने नृत्य करने को भेजा और स्वयं बांसुरी बजाने लगे। इससे प्रसन्न होकर गजासुर ने बांसुरी बजाने वाले को प्रसन्न होकर कहा कि वह क्या चाहता है, इस पर बांसुरी वादक (विष्णु) ने कहा कि अपने पेट में कैद भगवान शिव को मुक्त करो। गजासुर समझ गया कि बांसुरी वादक और कोई नहीं अपितु स्वयं विष्णु हैं।
वह भगवान श्री हरि के चरणों में गिर पड़ा और उसने शिव को मुक्त करके शिव से कहा कि मेरी अन्तिम इच्छा यह है कि मेरे मरने के बाद भी सभी लोग मुझे याद करें और मेरे सिर की पूजा करें। उसके ऐसा कहने पर भगवान शिव अपने पुत्र को लेकर आ गये और उन्होंने गजासुर के सर को काटकर अपने पुत्र को लगा दिया। ब्रह्मवैवर्त पुराण में वर्णित एक अन्य कथा के मुताबिक शिव के निर्देशानुसार शनि ने जैसे ही पार्वती पुत्र गणेश के जन्म अवसर पर दृष्टि डाली उसी क्षण इस बालक का सिर धड़ से अलग हो गया।
शिव और पार्वती को शोक-संतप्त देख भगवान विष्णु ने एक छोटे हाथी का मस्तक इस बालक के धड़ पर जोड़ कर उसे पुनर्जीवित कर दिया इस बालक का नाम इसीलिए गणेश पड़ा और सभी देवताओं ने इन्हें शक्ति और समृद्धि का आशीर्वाद दिया।
ऐसा कहा जाता है कि महर्षि व्यास ने गणेश से महाभारत लिखने की विनती की थी। तब गणेश ने इस शर्त पर कि यदि महर्षि व्यास बोलते हुए रूकेंगे नहीं तो उन्हें उनका यह आग्रह स्वीकार्य होगा। तत्पश्चात् महर्षि व्यास बिना रुके अनवरत बोलते गये और गणेश जी लिखते गये। लिखते-लिखते अचानक उनकी कलम टूट गई तो उन्होंने शीघ्रता से अपना एक दांत तोड़कर उसे कलम के रूप में प्रयोग करके लिखना जारी रखा। तभी से वे एकदंत नाम से प्रसिद्ध हुए।
एक दिन विष्णु के अवतार भगवान परशुराम भगवान शिव से मिलने के लिए गये तो मार्ग में गणेश ने उन्हें रोक लिया। परशुराम ने जब फरसे से गणेश पर प्रहार किया तो शिव द्वारा प्रदत्त इस फरसे को सम्मान देने हेतु गणेश जी आगे से नहीं हटे और इस प्रक्रिया में इन्होंने अपना दांत खो दिया।
एक बार देवताओं में गणों के मुखिया का निर्णय करने हेतु प्रतियोगिता हुई। इस प्रतियोगिता में गणों को पूरे ब्रह्माण्ड की परिेक्रमा करके शीघ्रातिशीघ्र वापस भगवान शिव के चरणों में पहुंचना था। सभी देवता अपना-अपना वाहन लेकर इस प्रतियोगिता में कूद पड़े। गणेश जी ने ब्रह्मांड की परिक्रमा करने की अपेक्षा भगवान शिव की ही परिक्रमा कर ली और यह कहा कि शिव की परिक्रमा ब्रह्मांड की परिक्रमा है।
भगवान शिव गणेश के इस उत्तर से संतुष्ट हुए और उन्होंने गणेश को विजेता घोषित करके गणपति के पद पर नियुक्त कर दिया। तब से ही प्रत्येक कार्य के शुभारम्भ जैसे देवपूजा, व्यापार का आरम्भ, प्रार्थना, जन्मकुण्डली रचना, विवाह, गृह प्रवेश, शिक्षारम्भ, यज्ञोपवीत, कर्णवेद्ध इत्यादि सभी शुभ अवसरों पर गणपति की पूजा करना परमावश्यक है।
श्री गणेशजी की पूजन सामग्री
उन्हें प्रसन्न करने हेतु लड्डू, लाल चन्दन, लाल पुष्प, दूर्वा आदि अर्पित किए जाते हैं। उन्हें लड्डू और जामुन विशेष रूप से प्रिय हैं।
गणेश की आराधना के लिए प्रयोग किये जाने वाले गणपति सहस्त्रनाम के प्रत्येक नाम का अलग अभिप्राय है और यह भगवान के भिन्न-भिन्न रूपों को प्रकट करता है।
विघ्ननाशक श्री गणेश मंत्र
आदि पूज्य गणपति की वन्दना में लिखा गया निम्नांकित श्लोक सब ही कार्यों में आने वाले विघ्नों को दूर करता है।
वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटि समप्रभः।
निर्विघ्नम् कुरुमे देव सर्वकार्येषु सर्वदा।।