शिरडी के सांईं बाबा पं. शरद त्रिपाठी जीवन की कहानी ग्रहों की जुबानी के अंतर्गत हम अभी तक कई प्रसिद्ध भारतीय व विदेषी कलाकारों, खिलाड़ियों, महत्वपूर्ण हस्तियों के जीवन का ज्योतिषीय विश्लेषण प्रस्तुत कर चुके हैं। इस बार हम साक्षात् देव अवतार महान संत श्री सांईं नाथ (सांईं बाबा) के जीवन से आपको परिचित कराने का प्रयास कर रहे हैं। यस्य स्मृत्या च नामोक्तया तपोदानक्रियादिषु। प्रयत्नस्सफलो भूयात् साई बंदे तमच्युतम्।। आज विश्वभर के विभिन्न धर्मों और संप्रदायों के लोग श्री शिरडी सांईं बाबा‘ के दिव्य नाम से परिचित हैं। सांईं विश्व की महान् आध्यात्मिक विभूति थे। इनका जन्म 18.05.1837 को सायं 20ः00 पर पथरी ग्राम, महाराष्ट्र में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था, किंतु इनका लालन-पालन एक मुस्लिम परिवार में हुआ। वह शेलू ग्राम के एक ब्राह्मण संत वेकुशा के आश्रम में 1842 से 1854 तक अर्थात् 12 वर्षों तक रहे। तत्पश्चात् गुरु का आदेश और आशीर्वाद प्राप्त कर वह शिरडी ग्राम पहुंचे। वहां दो माह तक रहने के बाद अचानक एक दिन गायब हो गए। पुनः तीन वर्षों के बाद 1854 में चांदभाई पाटिल (धूप खेड़ा के एक मुस्लिम जागीरदार) के भतीजे की बारात के साथ बैलगाड़ी में बैठकर शिरडी आए और फिर यहीं बस गए। वहां पर उन्होंने एक पुरानी मस्जिद, जो वीरान पड़ी थी, को अपना ठिकाना बनाया और उसे ‘द्वारका माई’ नाम दिया। आइए अब ज्योतिषीय आधारपर इन घटनाओं को जानने का प्रयास करते हैं। प्रस्तुत जन्मांक शिरडी के सांईं बाबा का है, जो साधारण घर-परिवार मंे पैदा हुए और अपने सत्कर्मों तथा आध्यात्मिक गुणों के कारण घर-घर देवता की तरह पूजे जाते हैं। प्रस्तुत जन्मांक वृश्चिक लग्न का है। लग्नेश मंगल दशम भाव में सूय की राशि सिंह में दिग्बली होकर स्थित है। लग्नेश मंगल जिस सूर्य राशि में स्थित है, वही सूर्य सप्तम में बैठकर लग्न भाव को पूर्ण दृष्टि से देख रहा है। लग्न पर लग्नेश की चतुर्थ दृष्टि के साथ-साथ सबसे तेज ग्रह सूर्य की दृष्टि होना भी बताता है कि व्यक्ति महान् प्रतापी, हठी व दृढ़ निश्चयी होगा। जन्म-पत्री को देखने से ज्ञात होता है कि जन्म के समय लगभग 8 वर्ष राहु की महादशा चली। राहु षष्ठ भाव में है तथा मेष राशि में 90-54’ का होने से केतु के नक्षत्र में है। राहु का केतु के नक्षत्र में होना ज्योतिष में अच्छा नहीं माना जाता। अतः बचपन में इन्हें काफी भटकाव देखना पड़ा। ज्योतिष में चतुर्थेश मां का तथा नवमेश पिता का कारक होता है। इस कुंडली में चतुर्थेश शनि तथा नवमेश चंद्र है और ये दोनों ही ग्रह युत होकर द्वादश भाव में स्थित हैं, अतः इन्हें अपने जन्म देने वाले माता-पिता का साथ नहीं मिल सका। बाबा नवयुवक संत के रूप में शिरडी में निवास करने लगे। यहां उन्हंे जनसमुदाय से जहां विशेष सहयोग मिला, वहीं कुछ लोगों के विरोध का भी सामना करना पड़ा। चंूकि बाबा पूजन भी करते थे और मस्जिद में नवाज भी पढ़ते थे, इसलिए लोगों को यह पता नहीं चल पाता था कि वे हिंदू हैं या मुसलमान। यह वह समय था जब बाबा ने तमाम आध्यात्मिक व आंतरिक शक्तियां प्राप्त कीं। इस कुंडली में केतु, चंद्र और उच्च के शनि की युति द्वादश भाव अर्थात् तुला राशि में है। शनि संन्यास का, चंद मन और केतु अध्यात्म का कारक होता है। इन तीनों की द्वादश भाव में युति यह दर्शाती है कि जातक मन, वाणी और कर्म से धर्म मार्ग और अध्यात्म का पालन करेगा। कुंडली में उच्च का शनि का द्वादश भाव में होने के फलस्वरूप स्पष्ट है कि जातक जीवन भर दृढ़ इच्छा के साथ संन्यास मार्ग पर चलेगा। धीरे-धीरे शिरडी और आस-पास के क्षेत्रों में बाबा की ख्याति फैलती गई। लोग दूर-दराज से उनके दर्शन को आने लगे। वह भक्तों के साथ बैठकर बातें करते और समस्याओं का निराकरण करते थे। एक बार एक भक्त ने बाबा को भोजन पर बुलाया। बाबा ने भी आने की हामी भर दी और नियत समय पर कुŸो के रूप में भोजन करने पहुंचे। लेकिन गृह स्वामी ने कुŸो को जलती लकड़ी से मार कर भगा दिया। बाद में वह व्यक्ति उलाहना लेकर बाबा के पास पहुंचा तो बाबा ने कहा, ‘मैं तो गया था, पर तुमने जलती लकड़ी से मारकर भगा दिया।’ फिर बाबा ने अपनी पीठ पर पड़ा निशान भी दिखा दिया। वह व्यक्ति बड़ा लज्जित हुआ और क्षमा याचना करने लगा। ऐसे ही कई चमत्कार हैं जो सांईं बाबा ने किए। ज्योतिष की दृष्टि से देखें तो नवम भाव में उच्च का गुरु स्थित है और यही उच्च का गुरु लग्न को पंचम दृष्टि से तथा पंचम भाव को नवम दृष्टि से देख रहा है। कुंडली के मूल त्रिकोण भाव लग्न, पंचम व नवम, तीनों का संबंध उच्च के गुरु के साथ है तथा गुरु 190-23’ का है अर्थात् बुध के नक्षत्र में है। बुध अष्टमेश है और सप्तम में बैठकर लग्न को देख रहा है। उसकी स्थिति जातक को विशिष्ट आंतरिक व चमत्कारिक शक्तियों का स्वामी बनाता है। लिए नहीं करते थे, वह तो अपने भक्तों की रक्षा व सहायता हेतु ये क्रियाएं करते थे। बाबा ने आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन किया, प्रत्येक स्त्री को वह माई कह कर ही पुकारते थे। आइए इसे अब ज्योतिष की दृष्टि से जानें। सप्तम भाव में वृष राशि में सूर्य, सप्तमेश शुक्र तथा अष्टमेश बुध की युति है। इन तीनों ग्रहों का योग ज्योतिष के सिद्धांतों के अनुसार विवाह से विरक्ति देता है, अतः बाबा ने जीवन पर्यंत ब्रह्मचर्य का पालन किया। दैवी कृपा और अपने ज्ञान के बल पर वह जान चुके थे कि विवाह संस्था उनके लिए उचित नहीं है, अतः उन्होंने अविवाहित रहना उचित समझा। यों तो बाबा ज्यादा शिक्षित नहीं थे, परंतु उन्हें कई भाषाओं का ज्ञान था। सन् 1845 से 1861 तक 16 वर्ष की गुरु की महादशा रही। ज्ञान का कारक गुरु इनकी कुंडली में उच्च का है। इस 16 वर्ष की अवधि में उन्होंने गूढ़ आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त किया। सन् 1861 से 1880 तक 19 वर्ष की शनि की महादशा चली जो संन्यास का कारण बनी। इस अवधि में उन्होंने गरीबों, दबे-कुचले लोगों की सेवा सहायता की, क्योंकि शनि इन सबका कारक होता है। सन् 1880 से 1897 तक बुध की महादशा रही। बुध के अष्टमेश होने तथा लग्न पर इसकी दृष्टि के कारण इन्होंने अपने चमत्कारों से भक्तों को चमत्कृत किया, क्योंकि अष्टमेश व्यक्ति को रहस्यमय बनाता है और गुप्त शक्ति देता है। सन् 1897 से 1904 तक केतु की दशा थी जिसमें बाबा ने तमाम आध्यात्मिक तथा चमत्कारिक प्रयोग किए। सांईं बाबा ने समाधिस्थ होने से दो वर्ष पूर्व ही महानिर्वाण का संकेत दे दिया था। तात्या व रामचंद्र को जीवन देकर बाबा ने जीवन छोड़ा। 28 सितंबर 1918 को बाबा को साधारण सा ज्वर आया जो दो-तीन दिन तक रहा। इसके बाद बाबा ने भोजन करना बिल्कुल बंद कर दिया। इससे उनका शरीर दिन-प्रतिदिन क्षीण व दुर्बल होने लगा और 17 दिनों के पश्चात् अर्थात् 15 अक्टूबर सन् 1918 को 2 बजकर 30 मिनट पर उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया। आइए इसे भी ज्योतिषीय दृष्टि से जानें: सांईं बाबा की जन्म कुंडली के अनुसार 1904 से शुक्र की 20 वर्ष की महादशा शुरू हुई। वृश्चिक लग्न में शुक्र मारकेश का कार्य करता है, क्योंकि द्वादश व सप्तम दो मारक भावों का स्वामी होता है। यह सप्तम में स्थित भी है। अतः शुक्र की दशा इनके जीवन की अंतिम दशा साबित हुई। बाबा ने 15 अक्टूबर 1918 को 2 बजकर 30 मिनट पर समाधि ली। 15 अक्टूबर 1918 को शुक्र में शनि में शुक्र का अंतर चल रहा था। शुक्र मारकेश है और शनि द्वादश भाव में स्थित है तथा अष्टम से अष्टम अर्थात् तृतीय भाव का भी स्वामी है। शनि उन दिनों गोचर में सिंह राशि में 20. 48’ का होकर विचरण कर रहा था अर्थात् केतु के नक्षत्र में था। गोचर में सिंह राशि में होने के फलस्वरूप शनि की तृतीय दृष्टि द्वादश भाव पर थी। कुंडली का दूसरा कष्टकारी ग्रह राहु गोचर और दशा-महादशा की दृष्टि से आयु के अनुकूल नहीं था। विशेष: यों तो बाबा के अनुयायी हमेशा से ही रहे हैं और शिरडी सहित सभी जगह उनकी पूजा होती है, पर इधर कुछ वर्षों से जन मानस की बाबा में आस्था अत्यधिक बढ़ी है। आइए इसे ज्योतिष की दृष्टि से देखते हैं:- सांईं बाबा की प्रसिद्धि का सबसे प्रमुख कारण रहा है उनकी कुंडली में लग्नेश का पूर्ण बली होकर लग्न को देखना। जब लग्नेश लग्न से ऐसा संबंध बनाता है तो जातक की ख्याति मृत्योपरांत भी दूर-दूर तक फैलती है। सांईं बाबा के महा परिनिर्वाण के समय की शुक्र महादशा (1904-1924) चल रही थी। यदि इस महादशा से विंशोŸारी ग्रह दशा क्रम को पुनः जोड़ें तो महादशाएं इस प्रकार आएंगी। 1904-1924 शुक्र की महादशा 1924-1930 सूर्य की महादशा 1930-1940 चंद्र की महादशा 1940-1947 मंगल की महादशा 1947-1965 राहु की महादशा 1965-1981 गुरु की महादशा 1981-2000 शनि की महादशा 2000-2017 बुध की महादशा यदि बाबा जीवित होते तो (उपरोक्त दशा के आलोक में) वर्तमान में उन पर बुध की महादशा चल रही होती। ज्योतिष में अष्टम भाव आयु का भाव माना जाता है। बाबा की कुंडली में अष्टमेश बुध है। अगर हम व्यक्ति के जन्म का। आकलन लग्न से करते हैं तो द्वितीय जन्म हेतु अष्टमेश को लेना होगा। इस दृष्टि से अष्टमेश बुध की वर्तमान दशा जब से प्रारंभ हुई तब से बाबा के अनुयायियों की संख्या तेजी से बढ़ती जा रही है। और हमारा मानना है कि बुध की 17 वर्षों की इसी महादशा में बाबा का पृथ्वी पर पुनर्जन्म होगा।