षष्ठी देवी व्रत (30 दिसंबर 2011) पं. ब्रजकिशोर शर्मा ब्रजवासी षष्ठी देवी का व्रत प्रत्येक मास में षष्ठी तिथि के अवसर पर यत्नपूर्वक करने व मनाने का विधान है। बालकों के प्रसव गृह में छठे दिन, इक्कीसवें दिन तथा अन्नप्राशन के मांगलिक अवसर पर भी षष्ठी देवी व्रत का विधान देवी भागवत में वर्णित है। भगवती षष्ठी मूल प्रकृति के छठे अंश से प्रकट होने के कारण ‘षष्ठी’ देवी नाम से प्रसिद्ध है। देवर्षि नारद जी के पूछने पर भगवान् नारायण ने स्वयं श्रीमुख से धर्मदेव के मुख से वर्णित उपाख्यान को नारद जी को सुनाया। उपाख्यान व पूजा विधि प्रियव्रत नामके एक राजा हो चुके हैं। उनके पिता का नाम था - स्वायम्भुव मनु।
प्रियव्रत योगिराज होने के कारण विवाह करना नहीं चाहते थे। तपस्या में उनकी विशेष रूचि थी। परंतु ब्रह्माजी की आज्ञा तथा सत्प्रयत्न के प्रभाव से उन्होंने विवाह कर लिया। मुने ! विवाह के बाद सुदीर्घ कालतक उन्हें कोई संतान नहीं हो सकी। तब कश्यपजी ने उनसे पुत्रेष्टियज्ञ कराया। राजा की प्रेयसी भार्याका नाम मालिनी था। मुनि ने उन्हें चरू प्रदान किया। चरुभक्षण करने के पश्चात रानी मालिनी गर्भवती हो गयीं। तत्पश्चात् सुवर्ण के समान प्रतिभावाले एक कुमार की उत्पत्ति हुई; परंतु संपूर्ण अंगों से संपन्न वह कुमार मरा हुआ था। उसकी आंखें उलट चुकी थीं। उसे देखकर समस्त नारियां तथा बांधवों की स्त्रियां भी रो पड़ीं। पुत्र के असहाय शोक के कारण माता को मूच्र्छा आ गयी। मुने !
राजा प्रियव्रत उस मृत बालक को लेकर श्मशान में गये। उस एकांतभूमि में पुत्र को छाती से चिपकाकर आंखों से आंसुआंे की धारा बहाने लगे। इतने में उन्हें वहां एक दिव्य विमान दिखाई पड़ा। शुद्ध स्फटिक मणि के समान चमकने वाला वह विमान अमूल्य रत्नों से बना था। तेज से जगमगाते हुए उस विमान की रेशमी वस्त्रों से अनुपम शोभा हो रही थी! अनेक प्रकार के अद्भुत चित्रों से वह विभूषित था। पुष्पों की माला से वह सुसज्जित था। उसी पर बैठी हुई मन को मुग्ध करने वाली एक परम सुंदरी देवी को राजा प्रियव्रत ने देखा। श्वेत चम्पा के फूल के समान उनका उज्जवल वर्ण था। सदा सुस्थिर तारुण्य से शोभा पाने वाली वे देवी मुस्करा रही थीं। उनके मुख पर प्रसन्नता छायी थी। रत्नमय भूषण उनकी छवि बढ़ाये हुए थे। योगशास्त्र में पारंगत वे देवी भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये आतुर थीं। ऐसा जान पड़ता था वे मानो मूर्तिमती कृपा हों। उन्हें सामने विराजमान देखकर राजाने बालक को भूमि पर रख दिया और बड़े आदर के साथ उनकी पूजा और स्तुति की। नारद ! उस समय स्कन्द की प्रिया देवी षष्ठी अपने तेज से देदीप्यमान थीं। उनका शांत विग्रह ग्रीष्मकालीन सूर्य के समान चमचमा रहा था। उन्हें प्रसन्न देखकर राजा ने पूछा।
राजा प्रियव्रत ने पूछा - शुशोभने ! कान्ते ! सुव्रते ! वरारोहे ! तुम कौन हो, तुम्हारे पतिदेव कौन हैं और तुम किसकी कन्या हो? तुम स्त्रियों में धन्यवाद एवं आदर की पात्र हो। नारद ! जगत को मंगल प्रदान करने में प्रवीण तथा देवताओं के रणमें सहायता पहुंचाने वाली वे भगवती ‘देवसेना’ थी। पूर्व समय में देवता दैत्यों से ग्रस्त हो चुके थे। इन देवी ने स्वयं सेना बनकर देवताओं का पक्ष ले युद्ध किया था। इनकी कृपा से देवता विजयी हो गये थे। अतएव इनका नाम ‘देवसेना’ पड़ गया। महाराज प्रियव्रत की बात सुनकर ये उनसे कहने लगीं। भगवती
देवसेना ने कहा - राजन्! मैं ब्रह्माकी मानसी कन्या हूं। जगतपर शासन करने वाली मुझ देवी का नाम ‘देवसेना’ है। विधाता ने मुझे उत्पन्न करके स्वामी कार्तिकेय को सौंप दिया है। मैं संपूर्ण मातृकाओं में प्रसिद्ध हूं। स्कंदकी पतिव्रता भार्या होने का गौरव मुझे प्राप्त है। भगवती मूल प्रकृतिके छठे अंश से प्रकट होने के कारण विश्व में देवी ‘षष्ठी’ नामसे मेरी प्रसिद्धि है। मेरे प्रसाद से पुत्रहीन व्यक्ति सुयोग्य पुत्र, प्रियाहीन जन प्रिया, दरिद्री धन तथा कर्मशील पुरुष कर्मों के उत्तम फल प्राप्त कर लेते हैं। राजन ! सुख, दुख, भय, शोक, हर्ष, मंगल, संपत्ति और विपत्ति - ये सब कर्म के अनुसार होते हैं। अपने ही कर्म के प्रभाव से पुरुष अनेक पुत्रों का पिता होता है और कुछ लोग पुत्रहीन भी होते हैं। किसी को मरा हुआ पुत्र होता है और किसी को दीर्घजीवी - यह कर्म का ही फल है। गुणी, अंगहीन, अनेक पत्नियों का स्वामी, भार्यारहित, रूपवान, रोगी और धर्मी होने में मुख्य कारण अपना कर्म ही है। कर्म के अनुसार ही व्याधि होती है और पुरुष आरोग्यवान् भी हो जाता है। अतएव राजन् ! कर्म सबसे बलवान है- यह बात श्रुति में कही गयी है। मुने ! इस प्रकार कहकर देवी षष्ठी ने उस बालक को उठा लिया और अपने महान् ज्ञान के प्रभाव से खेल-खेल में ही उसे पुनः जीवित कर दिया।
अब राजा ने देखा तो सुवर्ण के समान प्रतिभावाला वह बालक हंस रहा था। अभी महाराज प्रियव्रत उस बालक की ओर देख ही रहे थे कि देवी देवसेना उनसे अनुमति ले चलने को तैयार हो गयीं। ब्रह्मन् ! उस समय देवी ने राजा से कर्मनिर्मित वेदोक्त वचन कहा। देवी ने कहा- तुम स्वायम्भुव मनुके पुत्र हो। त्रिलोकी में तुम्हारा शासन चलता है। तुम सर्वत्र मेरी पूजा कराओ और स्वयं भी करो। तब मैं तुम्हें कमल के समान मुखवाला मनोहर पुत्र प्रदान करूंगी। उसका नाम सुव्रत होगा। उसमें सभी गुण और विवेकशक्ति विद्यमान रहेगी। वह भगवान् नारायण का कलावतार तथा प्रधान योगी होगा। उसे पूर्वजन्म की बातें याद रहेंगी। क्षत्रियों में श्रेष्ठ व बालक सौ अश्वमेध यज्ञ करेगा। सभी उसका सम्मान करेंगे। उत्तम बल से संपन्न होने के कारण वह ऐसी शोभा पायेगा, जैसे लाखों हाथियों में सिंह। वह धनी, गुणी, शुद्ध, विद्वानों का प्रेमभाजन तथा योगियों, ज्ञानियों एवं तपस्वियों का सिद्ध रूप होगा। त्रिलोकी में उसकी कीर्ति फैल जायेगी। वह सबको सब संपत्ति प्रदान कर सकेगा। इस प्रकार राजा प्रियव्रत से कहने के पश्चात् भगवती देवसेना उन्हें पुत्र प्रदान करने के लिये तत्पर हो गयीं।
राजा प्रियव्रत ने पूजा की सभी बातें स्वीकार कर लीं। यों भगवती देवसेना ने उन्हें उत्तम वर दे स्वर्ग के लिये प्रस्थान किया। राजा भी प्रसन्न होकर मंत्रियों के साथ अपने घर लौट आये। आकर पुत्रविष्ज्ञयक वृत्तांत सबसे कह सुनाया। नारद ! यह प्रिय वचन सुनकर स्त्री और पुरुष सब-के-सब परम संतुष्ट हो गये। राजा ने सर्वत्र पुत्र-प्राप्ति के उपलक्ष्य में मांगलिक कार्य आरंभ करा दिया। भगवती की पूजा की। ब्राह्मणों को बहुत-सा धन दान किया। तबसे प्रत्येक मास में शुक्लपक्ष की षष्ठी तिथि के अवसर पर भगवती षष्ठी का महोत्सव यत्नपूर्वक मनाया जाने लगा। बालकों के प्रसवगृह में छठे दिन, इक्कीसवें दिन तथा अन्नप्राशनके शुभ समयपर यत्नपूर्वक देवी की पूजा होने लगी। सर्वत्र इसका पूरा प्रचार हो गया। स्वयं राजा प्रियव्रत भी पूजा करते थे। उपचार अर्पण करने के पूर्व ‘ऊँ ह्रीं षष्ठीदेव्यै स्वाहा’ इस मंत्र का उच्चारण करना विहित है। पूजक पुरुषको चाहिये कि यथाशक्ति इस अष्टाक्षर महामंत्र का जप भी करें।
तदनन्तर मनको शांत करके भक्तिपूर्वक स्तुति करने के पश्चात देवी को प्रणाम करे। फल प्रदान करने वाला यह उत्तम स्तोत्र सामवेद में वर्णित है। जो पुरुष देवी के उपर्युक्त अष्टाक्षर महामंत्र का एक लाख जप करता है, उसे अवश्य ही उत्तम पुत्र की प्राप्ति होती है। जो पुरुष भगवती षष्ठी के इस स्तोत्र को एक वर्ष तक श्रवण करता है, यह यदि अपुत्री हो तो दीर्घजीवी सुंदर पुत्र प्राप्त कर लेता है।
जो एक वर्ष तक भक्तिपूर्वक देवी की पूजा करके इनका यह स्तोत्र सुनता है, उसके संपूर्ण पाप विलीन हो जाते हैं। महान् वंध्या भी इसके प्रसाद से संतान सुख करने की योग्यता प्राप्त कर लेती है। वह भगवती देवसेना की कृपा से गुणी, विद्वान, यशस्वी, दीर्घायु एवं श्रेष्ठ पुत्र की जननी होती है। काकवन्ध्या अथवा मृतवत्सा नारी एक वर्ष तक इसका श्रवण करने के फलस्वरूप भगवती षष्ठी के प्रभाव से पुत्रवती हो जाती है। यदि बालक को रोग हो जाये तो उसक माता-पिता एक मास तक इस स्तोत्र का श्रवण करें तो षष्ठी देवी की कृपा से उस बालक की व्याधि शांत हो जाती है। इस व्रत में प्रातःकाल ही नित्य नैमित्तिक कर्मों से निवृत्त होकर विधिवत् संकल्प लें कि आज मैं अमुक कामना सिद्धि के लिए मां षष्ठी देवी के व्रत का पालन करूंगा।
इस प्रकार संपूर्ण दिन षष्ठी देवी के मंत्र का स्मरण करता हुआ षोडशोपचार पूजन सूर्यास्त से प्रारंभ कर मां की आराधना व स्तोत्रादि का पाठ करें और पुनः मां को अर्पित नैवेद्य में से बालक बालिकाओं व ब्राह्मणों को दक्षिणा सहित नैवेद्य अर्पण कर स्वयं भी प्रसाद ग्रहण करंे, तो निश्चित ही मां की अनुपम कृपा होती है। रात्रि में जागरण करते हुए मंत्र जाप व सुंदर चरित्रों का बारंबार श्रवण करें। यह संपूर्ण कामनाओं को सिद्ध करने वाला व्रत है।