संकट मोचक की शिक्षा
संकट मोचक की शिक्षा

संकट मोचक की शिक्षा  

व्यूस : 6608 | आगस्त 2013
माता अखिल ब्रह्माण्ड की अदम्य शक्तिस्वरूपा होती है। समग्र सृष्टि का स्वरूप माता की गोद में ही अंकुरित, पल्लवित, पुष्पित एवं विकसित होता है। विश्व का उज्ज्वल भविष्य माता के स्नेहांचल में ही फूलता-फलता है। यदि कहा जाए कि निखिल संसार की सर्जना-शक्ति माता है, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। बालक जन्म से पूर्व गर्भ में ही माता से संस्कार ग्रहण करने लग जाता है और जन्म के बाद वह माता के संस्कार का अनुगामी हो जाता है। बालक के बचपन का अधिकांश समय माता की वात्सल्यमयी छाया में ही व्यतीत होता है। करणीय-अनुकरणीय, उचित-अनुचित, हित-अहित सभी संस्कारों का प्रथमाक्षर वह माता से ही सीखता है। सन्तान के चरित्र-निर्माण में माता की भूमिका आधारशिलास्वरूप है। माता के स्नेहिल अपनत्व से भीगे आँचल में ही बच्चा दिव्य आनन्द एवं तृप्ति की अनुभूति करता है। इसीलिए महीयसी माता को प्रथम गुरु का सम्मान दिया गया है। अंजनादेवी परम सदाचारिणी, तपस्विनी एवं सद्गुण-सम्पन्न आदर्श माता थीं। वे अपने पुत्र श्रीहनुमानजी को श्लाघनीय तत्परता से आदर्श बालक का स्वरूम प्रदान करने की दिशा में सतत जगत और सचेष्ट रहती थीं। पूजनोपरान्त और रात्रि में शयन के पूर्व वे अपने प्राणाधिक प्रिय पुत्र को पुराणों की प्रेरणाप्रद कथाएँ सुनाया करतीं थीं। वे आदर्श पुरुषों के चरित्र श्रीहनुमानजी को पुनः-पुनः सुनातीं और अपने पुत्र का ध्यान उनकी ओर आकृष्ट करती रहतीं। वे महामानवों का जो चरित्र सुनाती, उसे पुनः पुनः श्रीहनुमानजी से भी पूछतीं। और श्रीहनुमानजी को क्या सीखना था ! सर्वज्ञ और सर्वान्तर्यामी शिव से गोपनीय क्या है ? किन्तु लीलावश कभी-कभार श्रीहनुमानजी अनजान बनकर ठीक उत्तर नहीं देते तो माता उस चरित्र को पुनः सुनाकर उन्हें कण्ठाग्र करा देतीं। करूणावरूणालय के दिव्यावतारों की समस्त कथाएँ श्रीहनुमानजी को मुखस्थ थीं। मातृ मुख से सुनी हुई उन कथाओं को श्रीहनुमानजी अपने कपि-किशोरों को अतीव प्रेम एवं उत्साह से सुनाया करते। माता अंजनादेवी जब भगवान् श्रीराम के अवतार की कथा सुनाना प्रारम्भ करतीं, तब बालक श्रीहनुमानजी का सम्पूर्ण ध्यान उक्त कथा में ही केन्द्रित हो जाता। निद्रा एवं क्षुधा उनके लिए कोई अर्थ नहीं रखतीं। माता को झपकी आती तो श्रीहनुमानजी उन्हें झकझोर कर श्रीराम से सम्बद्ध कथा-क्रम को आगे बढ़ाने को कहते। माता अंजना श्रीहनुमानजी को पुनः श्रीराम-कथा सुनाने लग जातीं। श्रीराम-कथा के श्रवण से श्रीहनुमानजी को तृप्ति ही नहीं होती थी। वे माँ से पुनः-पुनः श्रीराम-कथा ही सुनाने का आग्रह करते। माता अंजना सोल्लास कथा कहतीं और श्रीहनुमानजी उस कथा के श्रवण से भाव-विभोर हो जाते। उनके नेत्रों में अश्रु भर आते, अंग फड़कने लगते। वे सोचते-‘काश ! मैं भी वही हनुमान होता। कथा कहते-कहते माता अंजनादेवी पूछ बैठतीं-‘बेटा ! तू भी वैसा ही हनुमान बनेगा ?’ हाँ, माँ ! अवश्य मैं वही हनुमान बनूगा।’ श्रीहनुमानजी उत्तर देते। पर श्रीराम और रावण कहाँ हैं। यदि रावण ने जगज्जननी माँ सीताजी की ओर कुदृष्टि डाली तो मैं उसे धूमिसात् कर दूँगा।’ माता अंजना कहतीं-‘बेटा ! तू भी वहीं हनुमान हो जा। अब भी लंका में एक रावण राज्य करता है और अयोध्यानरेश दशरथ के पुत्र के रूप में श्रीराम का अवतार भी हो चुका है। तू शीघ्र सयाना हो जा। श्रीराम की सहायता करने के लिए अपार बल और प्रचण्ड पौरुष की अनिवार्यता है। तू यथाशीघ्र अपेक्षित बल एवं पराक्रम आयत्त कर।’ ‘माँ ! मुझमें बलाभाव कहाँ है ?’ श्रीहनुमानजी रात्रि में शय्या से कूद पड़ते और अपना भुजदण्ड दिखाकर माँ के सम्मुख विराट् बलशाली होने का प्रमाण प्रस्तुत करने लगते। माता अंजना मुस्कुरा उठतीं और पुनः अपने पुत्र श्रीहनुमानजी को अपनी गोद में समेटकर थपकियाँ देकर मधुर स्वर से प्रभु-स्तवन सुनाती हुई सुलाने लगतीं। श्रीहनुमानजी माता अंजना के वक्ष से लगकर सुखपूर्वक निद्रादेवी की गोद में जा विराजते। सहजानुराग से श्रीहनुमानजी पुनः-पुनः श्रीराम-कथा का श्रवण करते। पुनः-पुनः श्रीराम-कथा का श्रवण करते। पुनः-पुनः श्रीराम-कथा का श्रवण करने से वे बार-बार भगवान् श्रीराम का स्मरण और चिन्तन करते। फलतः उनका श्रीराम-स्मरण उत्तरोत्तर प्रगाढ़ होता गया। कालक्रमेण उनका अधिकांश समय श्रीराम के ध्यान और स्मरण में ही व्यतीत होने लगा। वे कभी वन में, कभी गिरि-गवहर में, कभी सरिता-कूल पर और कभी सघन कुंज में ध्यानस्थ बैठ जाते। श्रीराम का ध्यान करते समय श्रीहनुमानजी की आँखों से प्रेमाश्रु प्रवाहित होता रहता। इस प्रकार, ध्यान की तीव्र तन्मयता के कारण उन्हें भूख-प्यास की भी सुध-बुध नहीं रहती। माता अंजना मध्याह्न और सायंकाल अपने हृदयहार श्रीहनुमानजी के अन्वेषण में निकल पड़तीं। उन्हें विदित था-मेरा पुत्र कहाँ होगा। वे अरण्य, पर्वत, सरिता, निर्झर एवं वन में घूम-घूमकर अपने पुत्र को ढूढ लातीं, तब कहीं माता के स्नेहाग्रह से उनके मुख में ग्रास का प्रवेश होता। और, यह क्रम प्रतिदिन चलने लगा। श्रीहनुमानजी अपने परमाराध्य श्रीराम के प्रेम में इतने तल्लीन रहने लगे कि उन्हें अपने तन की सुध-बुध भी नहीं रह जाती । उनके मुह से सतत श्रीराम का नाम ही उच्चरित होता रहता। अपने पुत्र की निरंकुश मानसिक स्थिति के कारण माता अंजना अनुपल उन्मन-उदास रहा करती थीं। श्रीहनुमानजी की आयु भी विद्याध्ययन के योग्य हो गयी थी। माता अंजनीदेवी एवं वानरराज केसरी ने विचार किया- ‘अब हनुमान को विद्यार्जन के निमित्त किसी योग्य गुरु के हाथे सौंपना ही होगा। कदाचित् इसी से इसकी उद्दण्डता को विराम मिले।’ यद्यपि उन्हें अपने ज्ञानमूर्ति पुत्र की विद्या-बुद्धि एवं बल-पौरुष तथा ब्रह्मादि देवों द्वारा प्रदत्त अमोघ आशीर्वाच्यों का पूर्ण ज्ञान था, तथापि उन्हें यह भी ज्ञात था कि सामान्य जन महामानवों का अनुकरण करते हैं और समाज में कुव्यवस्था उत्पन्न न हो जाए, इसलिए महामानवों के आचरणों में संयम और साधुता होती है। वे सतत शास्त्रानुमोदित आचरण करते हैं। यही कारण है कि जब-जब करुणानिधान प्रभु धराधाम पर अवतरित होते हैं, वे सर्वज्ञ होने पर भी विद्योपार्जन के लिए गुरु-गृह की शरण लेते हैं तथा गुरु की सभक्ति सेवा कर अतीव श्रद्धापूर्वक उनसे ज्ञान-प्राप्ति करते हैं। सच तो यह है कि गुरु को सेवा से सन्तुष्ट कर अमित श्रद्धा एवं अविचल भक्ति से अर्जित विद्या ही फलवती होती है, अतएव माता अंजना और कपीश्वर केसरी ने श्रीहनुमानजी को ज्ञानोपलब्धि के लिए गुरु-गृह भेजने का निर्णय किया। अपार उल्लास के साथ माता-पिता ने अपने प्रिय श्रीहनुमानजी का उपनयन-संस्कार कराया और उन्हें विद्यार्जन के लिए गुरु-चरणों की शरण में जाने का स्नेहिल आदेश किया, पर समस्या यह थी कि श्रीहनुमानजी किस सर्वगुण-सम्पन्न आदर्श गुरु का शिष्यत्व अंगीकृत करें। माता अंजना ने प्रेमल स्वर में कहा- ‘‘पुत्र ! सभी देवताओं में आदिदेव भगवान् भास्कर को ही कहा जाता है। वे संसार-सागर के अन्ध्कार को विध्वस्त कर सब लोकों और दिशाओं को अलोकित करते हैं। वे सभी धर्मों में श्रेष्ठ धर्मस्वरूप हैं। वे पूज्यतम हैं। ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि सभी देवता, असुर, गन्धर्व, सर्प पक्षी आदि तथा इन्द्रादि देवता, ब्रह्मा, दक्ष, कश्यप सभी के आदिकारण भगवान् आदित्य ही हैं। भगवान् आदित्य सभी देवताअ में श्रेष्ठ और पूजित हैं। और फिर, सकलशास्त्रमर्मज्ञ भगवान् सूर्यदेव तुम्हें समय पर विद्याध्ययन कराने का कृपापूर्ण आश्वासन भी तो दे चुके हैं। अतएव, तुम उन्हीं के शरणागत होकर श्रद्धा-भक्तिपूर्वक शिक्षार्जन करो।’’ कौपीन-कछनी काछे, मूँज का यज्ञोपवीत धारण किए, पलाशदण्ड एवं मृगचर्म लिए ब्रह्मचारी श्रीहनुमानजी ने सूर्यदेव की ओर दृष्टि-निक्षेप किया और कुछ सोचने लगे। माता अंजना ऋषिया के शाप से अवगत थीं ही, उन्हों अविलम्ब कहा- ‘‘अरे पुत्र ! तेरा सामथ्र्य असीम है। ये तो वही सूर्यदेव हैं, जिन्हें अरूण-फल समझकर तू बालपन में ही उछलकर निगलने पहुँच गया था। भगवान सूर्य के साथ तो तुम क्रीड़ा कर चुके हो। तुम्हारे आतंक से राहु देवराज इन्द्र की शरण में दौड़ा-दौड़ा पहुँचा था और स्वयं देवराज इन्द्र भी तुम्हारा बल देखकर गए थे। बेटा ! इस सकल ब्रह्मांड में ऐसा कोई कार्य नहीं है, जिसे तू संपादित न कर सके। तुम्हारे शारीरिक, मानसिक और आत्मिक बल की इयत्ता नहीं है। तुम देव, दानव और मानव आदि समस्त प्राणियों के लिए अजेय हो। तुम्हारा बल कालान्तर के सदृश है। तू भगवान सविता से सम्यक् ज्ञान प्राप्त करने जा। तेरा कल्याण सुनिश्चित है।’’ श्रीहनुमानजी माँ के ये वचन सुनकर उत्साह से उल्लसित हो उठे और माता-पिता के श्रीचरणों में अपने प्रणाम सादर निवेदित कर आकाश में उछले तो सामने सूर्यदेव के सारथि अरुण मिले। श्रीहनुमानजी ने पिता का नाम लेकर अपना परिचय दिया और अरुण ने उन्हें अंशुमाली के पास जाने को कहा। आंजनेय ने अतीव श्रद्धापूर्वक भगवान् सूर्यदेव के चरणों का स्पर्श करते हुए उन्हें अपना हार्दिक नमन निवेदित किया। विनीत श्रीहनुमानजी को बंद्धाजलि खड़े देख भगवान् भुवनभास्कर ने स्नेहिल शब्दों में पूछा- ‘बेटा ! आगमन का प्रयोजन कहो।’ श्रीहनुमानजी ने विनम्र स्वर में निवेदन किया- ‘प्रभो ! मेरा यज्ञोपवीत संस्कार सम्पन्न हो जाने पर माता ने मुझे आपके चरणों में विद्यार्जन के लिए भेजा है। आप कृपापूर्वक मुझे ज्ञानदान कीजिए।’ सूर्यदेव बोले- ‘‘बेटा ! मुझे तुम्हें अपना शिष्य बनाने में अमित प्रसन्नता होगी, पर तुम तो मेरी स्थिति देखते ही हो। मैं तो अहर्निश अपने रथ पर सवार दौड़ता रहता हू। अरुणजी रथ की गति धीमी करना जानते ही नहीं। ऐसी दशा में मैं तुम्हें ज्ञानदान देना तो दूर, तुमसे थोड़ी भी देर के लिए रुककर वार्तालाप तक कर सकने की स्थिति में नहीं हँ ’ सूर्यदेव की बात सुनकर पवनात्मज बोले-‘प्रभो ! वेगपूर्वक चलता आपका रथ कहीं से भी मेरे अध्ययन को बाध् त नहीं कर सकेगा। हाँ, आपको किसी प्रकार की असुविधा नहीं होनी चाहिए। मैं आपके सम्मुख रथ के वेग के साथ ही आगे बढ़ता रहँगा।’ श्रीहनुमानजी सूर्यदेव की ओर मुख करके उनके आगे-आगे स्वभाविक रूप में चल रहे थे। भानुसों पढ़न हनुमान गये भानु मन- अनुमानि सिसुकेलि कियो फेरफार सो। पाछिले पगनि गम गगन मगन-मन, क्रम को न भ्रम, कपि बालक-बिहार सो।।



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