द्वितीय भाव में अग्नि तत्व राशिस्थ सूर्य का फल आचार्य किशोर द्वितीय भाव का विचार करते समय धन, मारक, नेत्र, कुटुंब, वाणी, मुख, खाद्य, लाभ, हानि आदि का विशेष रूप से विचार करना चाहिए। यह सर्वविदित है कि राजा, पिता, नेता, आत्मा, मस्तिष्क, हृदय, नेत्र, उच्च आकांक्षा, गर्व, महत्व, आडंबर, चिकित्सा, गौ-पालन, कृषि कार्य आदि सूर्य के कारकत्व में आते हैं। सूर्य के द्वितीय भाव में होने से जातक धन संपन्न होता है और उसे उत्तम रोजगार तथा उच्च पद की प्राप्ति होती है। वह उत्तम खान-पान का शौकीन होता है, उसकी वाणी गंभीर होती है और उसका स्वभाव घमंडी और दूसरों को आदेश देने वाला होता है। वह परिवार एवं कुटुंब में अपना वर्चस्व दिखाता है। उसके नेत्र उज्ज्वल और चमकदार होते हैं। भिन्न-भिन्न राशियों में भिन्न-भिन्न ग्रहों के आपसी संबंध के अनुरूप भिन्न-भिन्न फल मिलते हैं। कभी शुभ फल मिलते हैं तो कभी अशुभ। वहीं कभी मिश्रित फल मिलते हैं तो कभी कोई फल नहीं मिलता। यहां विभिन्न अग्नि तत्व राशियों में द्वितीय भावस्थ सूर्य के फलों का विश्लेषण प्रस्तुत है। मेष मेष राशि में सूर्य उच्च का होता है। यदि द्वितीय भाव में मेष का सूर्य हो तो व्यक्ति का लग्न निश्चित रूप से मीन होगा। मीन लग्न के लिए सूर्य षष्ठ भाव का स्वामी होता है और षष्ठ भाव से शत्रु, क्रूर कृत्य, रोग, चिंता, मुंहासे आदि का विचार करते हैं। यदि षष्ठ भाव का स्वामी बलवान हो तो जातक के शत्रुओं की संखया बड़ी होती है और उसे जीवन भर संघर्ष करना पड़ता है। वह रोगी, घमंडी क्रूर और अन्यायी होता है। उसे उच्च पदस्थ व्यक्तियों से लाभ मिलता है परंतु स्थिर धन की प्राप्ति नहीं होती। उसकी वाणी अस्थिर और कटु होती है। किंतु इस भाव पर बृहस्पति की दृष्टि हो तो जीविका के उत्तम साधन प्राप्त होते हैं। व्यक्ति अपनी संतान के लिए शुभ होता है और उसका पारिवारिक जीवन सुखमय होता है। वहीं यदि मंगल की दृष्टि हो तो वह अत्यधिक घमंडी होता है और उसकी वाणी कर्कश होती है। किंतु उसे जमीन-जायदाद का लाभ मिलता है। यदि इस भाव का शुक्र से संबंध हो तो व्यक्ति को नेत्र रोग होता है। उसे पत्नी से कष्ट मिलता है और उसके परिवार में अशांति रहती है। यदि इसका संबंध बुध से हो तो मकान का लाभ मिलता है। जातक देश विदेश का भ्रमण करता है। बुध के व्यापार का ग्रह होने के कारण व्यक्ति के व्यापार में वृद्धि होती है। किंतु शनि से संबंध होने पर धन हानि, शारीरिक कष्ट, ऋण और दुःख का सामना करना पड़ता है। ऊपर जिन ग्रहों के बारे में लिखा गया है, उनके बल का गंभीरतापूर्वक विश्लेषण कर ही फलादेश करना चाहिए। प्रस्तुत कुंडली रवींद्र नाथ टैगोर की है। उनका जन्म 6-7 मई 1861 को 2 बजकर 51 मिनट पर हुआ। इस कुंडली में कई राजयोग हैं। लग्नेश गुरु का पंचम त्रिकोण के स्वामी चंद्र से परिवर्तन योग है। गुरु पंचम भाव में उच्चस्थ है। यह सर्वाधिक प्रबल राजयोग है, इसलिए टैगोर ज्ञानी, पंडित और दार्शनिक थे। फिर भी पंचम स्थान में बृहस्पति ने कारक भाव नाशाय के कारण भाव को हानि पहुंचाई। टैगोर को पांच संतानों में से केवल दो संतानों का ही सुख प्राप्त हो सका। सप्तमेश बुध सूर्य एवं शुक्र के साथ द्वितीय भाव में है। द्वितीय भाव के परिवार एवं कुटुंब का भाव होने के कारण उनका पारिवारिक जीवन कष्टमय रहा और उन्हें स्त्री और पुत्र का वियोग सहना पड़ा। बुध एवं शुक्र जन्मकुंडली में द्वितीय भाव में हैं, परंतु नवांश में बुध और शुक्र अपनी-अपनी राशि में हैं। इस योग के फलस्वरूप उनके जीवन में बहुत सी शुभ घटनाएं भी घटीं और देश विदेश में उन्हें खयाति मिली। किंतु सूर्य के द्वितीय भाव में होने के कारण शत्रुओं के साथ संघर्ष होना स्वाभाविक था, परंतु षष्ठ भावस्थ शनि के कारण शत्रु का दमन भी हुआ और चंद्र, बृहस्पति, शुक्र और बुध के कारण बने राजयोग के फलस्वरूप शत्रु उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाए। हां, सूर्य की महादशा में उन्हें स्त्री और पुत्र का वियोग सहना पड़ा। टैगोर सूर्य की दशा में बार-बार विदेश गए, क्योंकि सूर्य सप्तमेश बुध के साथ द्वितीय भाव में स्थित है। उन्होंने शांति निकेतन जैसी संस्था की स्थापना की। टैगोर की कुंडली में लग्न से सप्तम स्थान के मध्य राहु को छोड़कर सभी ग्रह विद्यमान हैं, इसलिए उन्हें यश, कीर्ति, धन, मान-सम्मान सब मिला। उच्च स्थान में सूर्य और गुरु के होने के कारण उन्हें दीर्घ आयु भी मिली। अष्टम स्थान से गुरु केंद्र (दशम) में है। सिंह सिंह राशि में सूर्य स्वगृही होता है। सूर्य द्वितीय भाव में सिंह राशि में हो तो जातक का लग्न कर्क होता है। यदि धनेश स्वगृही होकर धन स्थान में हो तो जातक को धन की कमी साधारणतया नहीं होती। उसका रोजगार उत्तम होता है। वह स्वतंत्र व्यवसाय करता है अथवा उसकी नियुक्ति किसी उच्च सरकारी पद पर होती है। जिससे समाज में मान-सम्मान एवं विशेष अधिकार की प्राप्ति होती है। सिंह राशि के स्थिर राशि होने के कारण जातक का धन स्थिर होता है। उसकी वाणी गंभीर होती है। परिवार में उसका वर्चस्व होता है। परंतु उसे पत्नी एवं पुत्र से दुःखी होना पड़ता है। यहां पर धन एवं व्यय के स्वामी का संपर्क नहीं है। सूर्य का आधिपत्य केवल सिंह राशि पर होता है। सूर्य अपनी दशा-अंतर्दशा में बाकी ग्रहों से संबंधों के अनुरूप अर्थात् पाप ग्रहों से संबंध होने पर अशुभ फल और शुभ ग्रहों से संबंध होने पर शुभ फल देता है। द्वितीय भाव मारक भाव भी होता है, इसलिए यहां सूर्य मारक भी है, परंतु स्वगृही होने के कारण मारक दोष प्रभावी नहीं होगा। इस लग्न के लिए शनि सप्तम-अष्टम भाव का स्वामी होकर प्रबल मारक है। यदि शनि का संबंध या दृष्टि सूर्य पर हो तो सूर्य मारक हो जाएगा। यदि बृहस्पति का संबंध हो तो धन लाभ होगा। शुक्र से संबंध हो तो नेत्र विकार या आंखों की बीमारी देगा। चंद्रमा के साथ संबंध हो तो स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। मंगल के साथ संबंध हो तो भाग्य एवं धन की वृद्धि होती है। नीचे एक ऐसे व्यक्ति की कुंडली का विश्लेषण प्रस्तुत है जो एक गरीब परिवार में जन्म लेने के बावजूद बहुत बड़ा आदमी बना। जातक विद्यार्थी जीवन पूरा करके एक बहुत बड़े वकील बने। उनका चरित्र अस्थिर रहा, क्योंकि बुध लग्नस्थ और लग्नाधिपति चंद्र शनि, शुक्र एवं मंगल से दृष्ट है। फिर भी अमेरिका जैसे देश में लोकसभा सदस्य बने। उनके विचार नकारात्मक थे फिर भी वे जन प्रिय थे। उनमें राजनीतिक गुण अत्यधिक थे, क्योंकि कर्क लग्न से द्वितीय अर्थात वाणी भाव में मंगल के साथ स्वराशिस्थ सूर्य के कारण नाम और यश के साथ-साथ धन की प्राप्ति भी हुई। सूर्य की महादशा में राजनीति के क्षेत्र में विशेष सफलता मिली। यहां सूर्य को मारक नहीं मान सकते। लेकिन चंद्र की महादशा में बुध की अंतर्दशा में एक आतंकवादी की गोली से आहत हुए। यहां शुक्र एकादश भाव तथा चतुर्थ केंद्र का स्वामी होकर प्रबल मारक ग्रह शनि के साथ स्थित है। दोनों की दृष्टि चंद्र पर है। चंद्र लग्न में गुलिक स्थित है और उस पर मंगल की दृष्टि भी है। गुरु की राशि में भाग्य भावस्थ चंद्र दूषित नहीं है। तृतीय एवं द्वादश भाव के स्वामी बुध के लग्न में होने के कारण चंद्र की महादशा में बुध की अंतर्दशा में उनकी मृत्यु हुई। धनु वृश्चिक लग्न से द्वितीय भाव या धनु राशि में दशमेश होकर सूर्य के स्थित होने से जातक को अपने कर्म से पर्याप्त लाभ मिलता है। साथ ही उसे राजयोग भी मिलता है। उसे उच्च पद की प्राप्ति की संभावना भी रहती है, क्योंकि सूर्य अपनी राशि से पंचम होता है। पाप ग्रह सूर्य केंद्रेश होकर लग्न से द्वितीय भाव में स्थित हो तो जातक को मंत्री पद जैसे उच्च पद के साथ-साथ पर्याप्त धन की प्राप्ति भी हो सकती है। दशम और धन भाव बलवान हों तो जातक यशस्वी और गुणवान होता है। यदि बृहस्पति का संबंध हो तो संतान सुख की प्राप्ति होती है। किंतु शनि के साथ संबंध होने पर हानि की प्रबल संभावना रहती है। शुक्र का संबंध हो तो जातक विषयी और स्त्रियों के प्रति आसक्त होता है। किंतु इस स्थिति के शुक्र का मारक प्रभाव भी हो सकता है। सूर्य का बुध के साथ संबंध हो तो धन की वृद्धि होती है। भाग्येश चंद्र का संबंध होने पर जातक भाग्यवान होता है। इन सारे तथ्यों को और स्पष्ट करने के लिए नीचे एक कर्मचारी की कुंडली का विश्लेषण प्रस्तुत है। इस कुंडली में स्वगृही मंगल नवांश कुंडली में उच्च का होने के बावजूद अधिक बलवान नहीं है, क्योंकि लग्न कुंडली में नीच के चंद्र के साथ व मंगल तथा शनि से दृष्ट है। यहां सबसे बलवान सूर्य है, क्योंकि सूर्य अपने मित्र बृहस्पति की राशि में है और उससे दृष्ट भी है। सूर्य से दशम का स्वामी बुध है। सूर्य और बृहस्पति दोनों बुध के नवांश में है, इसलिए जातक बलवान है। द्वितीय भाव में सूर्य के बृहस्पति की दृष्टि में होने और सूर्य से दशम भाव में राहु के होने के कारण व्यापार के साथ-साथ राजनीति में भी सूर्य की महादशा में सफलता मिली। कुंडली में चंद्र नीचस्थ मंगल के साथ व शनि से दृष्ट है। सूर्य से राहु 1350 और केतु से 450 दूर स्थित है। बृहस्पति मंगल की दृष्टि में है। इस प्रकार जब-जब शुभ ग्रह की दृष्टि रही तब-तब जातक को राजयोग मिले, किंतु जब-जब पाप ग्रह की दृष्टि रही, योग प्रभावहीन भी होते रहे। अग्नि तत्व राशि (धनु राशि) में द्वितीय भाव में स्थित सूर्य-बुध पर बृहस्पति और पाप ग्रह शनि की दृष्टि है। यह एक स्त्री, जो भारतीय प्रशासनिक सेवा अधिकारी हैं, की कुडली है। मेरे विचार में यह एक कमजोर अधिकारी रहीं, क्योंकि लग्न और चंद्र दोनों को शनि एवं सूर्य ने पीड़ित किया है, इसलिए लग्न कमजोर स्थिति में है, परंतु लग्नेश मंगल लग्न एवं चंद्र से केंद्र में होकर बलवान है। दशम भाव पर मंगल, शुक्र और गुरु की दृष्टि है दशमेश सूर्य अपने घर से पंचम स्थान में केंद्र का स्वामी होकर बलवान है। भाव चलित में शनि के एकादश भाव में होने से उसकी पूर्ण दृष्टि सूर्य के ऊपर नहीं पड़ रही, इसलिए जातक जून 2006 (शुक्र की महादशा) तक कमजोर अधिकारी रहीं। फिर भी इस कुंडली में कई राजयोग हैं। भाग्येश चंद्र लग्न में नीच राशि में नीच भंग करके बैठा है, क्योंकि चंद्र वृषभ राशि में उच्च होता है और वृष राशि का स्वामी शुक्र लग्नेश मंगल के साथ चतुर्थ केंद्र में है और शुक्र एवं शनि का परिवर्तन योग है। कर्म एवं लाभ स्थान का स्वामी सूर्य एवं बुध धन स्थान में स्थित होकर धन राजयोग बनाए हुए हैं। धनेश गुरु एवं धनकारक ग्रह बृहस्पति अपने ही राशि एवं धन स्थान को देख रहे हैं। साथ-साथ मंगल एवं शुक्र, सूर्य नवांश में वर्गोत्तम हैं। राजयोग के अलावा सूर्य का अग्नि तत्व राशि में बलवान होना जातक को इस पद तक पहुंचाया, क्योंकि सूर्य दशमेश है। मैंने देखा है कि ग्रह कुंडली में जितने भी बलवान हों यदि उसकी दशा नहीं आती तो उसका परिणाम किंचित रूप से मिलता है। तात्पर्य यह है कि प्राकृतिक पाप ग्रह केंद्र का स्वामी होकर गुरु की दृष्टि में यदि राजयोग बनाता है तो सूर्य की महादशा में जातक को अत्यधिक शुभ फल मिलता है। वर्तमान समय में उक्त जातका पर जून 2006 से 2012 तक सूर्य की महादशा चलेगी। वर्तमान में जातका केंद्र सरकार में सचिव पद पर आसीन हैं। फिर भी जातक को दांपत्य सुख नहीं मिला। शुक्र की महादशा में 1986 के बाद जातक का तलाक हो गया, क्योंकि सप्तमेश शुक्र मंगल के साथ है और बलवान सूर्य एवं बुध (जो अष्टमेश है) अष्टम भाव पर दृष्टि डाल रहे हैं। इसलिए पति का सुख इन्हें नहीं मिला। सप्तम से अष्टम भाव में सूर्य-बुध की स्थिति और इस भाव पर उन की दृष्टि तलाक का कारण बना। चूंकि इस भाव पर गुरु की दृष्टि थी, केवल इसी कारण इनका विवाह हुआ। सूर्य का धन स्थान में होना और धन स्थान के स्वामी बृहस्पति की इस भाव पर दृष्टि इन्हें उच्च शिक्षा या प्रतियोगिता की तरफ लाया, क्योंकि गुरु पंचमेश है और पंचम से पंचम भाग्य स्थान के स्वामी चंद्र से लग्न में नीच भंग हो रहा है। उच्च शिक्षा के लिए पंचम नवम का संबंध आवश्यक है। भाग्येश चंद्र नवम से पंचम में है। नवमेश पंचम भाव से नवम में है और सूर्य दशमेश है। सूर्य से पंचम में लग्न से पंचम भाव का स्वामी गुरु मेष राशि में स्थित है। सूर्य एवं गुरु दोनों अग्नि तत्व राशि में हैं। सूर्य राजा है, प्रशासक है, सरकार है, इसलिए सूर्य की महादशा में जातक को सरकार का उच्च पद प्राप्त हुआ। इस प्रकार अग्नितत्व राशियों में द्वितीय भावस्थ सूर्य अन्य ग्रहों के साथ युति या दृष्टि संबंध के अनुरूप अच्छा या बुरा प्रभाव देता है। यदि सूर्य का बुरा प्रभाव मिले तो मंत्र जप, दान, पूजा आदि कर उससे मुक्ति प्राप्त की जा सकती है।