उत्तर: चिकित्सा प्रणाली में आयुर्वेद का बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है। आयुर्वेद में, ग्रहों की प्रकृति ‘वात’, पित्त, कफ’ व तत्त्व ‘अग्नि, भूमि, वायु व जल’ को ही आधार मानकर ईलाज किया जाता है। किसी भी जातक के जन्म लग्न, जन्म राशि, लग्न में स्थित ग्रह व जन्म नक्षत्र के गुण व तत्व के आधार पर ही जातक के शरीर की प्रकृति का निर्धारण किया जाता है। इसके अतिरिक्त आयुर्वेद में जड़ी-बूटियों को पेड़ से तोड़ने, दवाई बनाने से लेकर रोगी के दवा ग्रहण करने आदि के लिए भी ज्योतिष के अनुसार काल का विचार किया जाता है।
राशि से संबंधित अंगों द्वारा रोग विचार राशियों से संबंधित अंग मेष राशि - मस्तिष्क, माथा, सिर। वृष राशि
- आंख, नाक, कान, मुख, ठोज, जीभ, गला। मिथुन राशि
- हाथ, कंधे, भुजाएं कर्क राशि
- वक्ष स्थल, फेफड़े। सिंह
- हृदय, पीठ, हड्यिां, पेट। कन्या राशि
- कमर, पेट, आंतें। तुला राशि
- नाभि वृश्चिक राशि
- गुप्तांग धनु राशि
- जांघें, मकर राशि
- घुटन कुंभ राशि
- पांव के जोड़, टखने मीन राशि
- पैर, उंगली, तलवे। रोग के लिए संभावित ग्रह स्थिति - जन्मकुंडली में लग्न या लग्नेश की स्थिति, किसी भी जातक को मिलने वाले फल विचार में विशेष रूप से सहायक होता है इसलिए लग्न या लग्नेश का 6, 8, 12 भावों से संबंध जातक को रोग प्रदान कर जीवन को कष्टदायक तथा आयु में कमी करता है
। - कुंडली में अरिष्ट योग व आयु विचार का अध्ययन भी आवश्यक है आयु लंबी होने पर जीवन मंे रोगांे की संभावना भी कुछ बढ़ जाती है।
- जन्मकुंडली में अस्थाई या कम अवधि के लिए होने वाले रोगों का विचार लग्न, लग्नेश, षष्ठम भाव, षष्ठेश, गोचर स्थिति, कारक व दशा-अंतर्दशा आदि से विचार किया जाता है।
- लंबी अवधि व असाध्य रोगों का विचार लग्न, लग्नेश, अष्टम भाव, अष्टमेश, गोचर स्थिति, कारक व दशा-अंतर्दशा आदि से विचार किया जाता है।
- जन्मजात रोगों के विचार में लग्न, लग्नेश, अष्टम भाव, अष्टमेश, गोचर स्थिति, कारक व दशा-अंतर्दशा के साथ-साथ पंचम भाव व पंचमेश आदि का विचार भी पूर्वजन्म में संचित पुण्य विचार के लिए किया जाता है।
- 6, 8, 12 भावों में शुभ ग्रहों की स्थिति या प्रभाव रोगों में वृद्धिकारक होते हैं तथा पाप ग्रहों की स्थिति रोगों में कम कर आयुकारक होती है इसी दृष्टि से अष्टम भाव में शनि की स्थिति आयुकारक मानी जाती है।
- 6, 8, 12 भाव में स्थित ग्रह तथा, इन भाव स्वामियों से संबंधित ग्रह, संबंधित शरीर के अंगों आदि का विचार रोग निर्णय के समय आवश्यक है - मारक भावों से संबंधित दशाकाल के दौरान भी बीमारी या कष्ट प्राप्त होते हैं। फलदीपिका के अनुसार 6 व 8 भाव में विभिन्न ग्रह स्थिति से कुछ रोग इस प्रकार हैं-
क) 6, 8 भाव में सूर्य हो तो बार-बार बुखार होने का भय होता है।
ख) 6, 8 भाव में कमजोर चंद्र, पाप युक्त होकर जल राशि में होने पर क्षयरोग, टी. बी. का रोग होता है।
ग) 6, 8 भाव में मंगल व केतु हो तो घाव होता है।
घ) 6, 8 भाव में बुध की स्थिति चर्म रोग व नपुंसकता प्रदान करती है।
(ड़) 6, 8 भाव में गुरु हो तो टी. बी. (क्षयरोग) व पेट संबंधी रोग होता है।
(च) 6, 8 भाव में शुक्र हो तो गुप्तांगों से संबंधित रोग होते हैं।
(छ) 6, 8 भाव में शनि वात (वायु) रोग प्रदान करता है चंद्र के साथ शनि की स्थिति ट्यूमर का कारण बनती है।
(ज) 6, 8 भाव में राहु यदि मंगल से दृष्ट हो तो फोड़ा, ट्यूमर आदि प्रदान करता है।
ज्योतिष में किसी भी रोग को दीर्घ अवधि व कष्टकारी बनाने में शनि, राहु व केतु अहम भूमिका निभाते हैं। शनि रोग की लंबी अवधि के लिए राहु रोग को भयंकर व केतु रोग को गुप्त बनाने का कारक है इसलिए जब भी यह किसी भी पीड़ित/रोग कारक ग्रह, राशि, भाव या नक्षत्र से ये संबंध बनते हैं तो अपनी प्रकृति के अनुसार रोग संबंधी फल करते हैं व रोग को जटिल व असाध्य बना सकते हैं।
ज्योतिष में गुरु को शुभ ग्रह माना जाता है लेकिन रोग देने में गुरु की भूमिका भी बहुत देखी जाती है तथा गुरु के कारण होने वाला रोग भी जटिल व कष्टकारी होता है। किसी भी रोग के लिए जन्म कुंडली, षोडश वर्गों, ग्रह आदि की अवस्थाओं व दशा-अंतर्दशा का अध्ययन सावधानी पूर्वक करना चाहिए और उपाय करते समय यह अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि उपाय से हमेशा लग्न को भी बल मिलना जरूरी है क्योंकि लग्न या शरीर के बल से ही स्थिति में सुधार होकर रोग समाप्त हो सकता है। कुछ प्रमुख रोगों के लिए उदाहरण स्वरूप ग्रह स्थिति व उपाय
1. हृदय रोग इस रोग के लिए मुख्य रूप से चतुर्थ भाव, चतुर्थेश, कर्क राशि व राशि स्वामी चंद्र तथा आत्मकारक सूर्य पर अशुभ प्रभाव देखने में आता है। जैसे यदि किसी कुंडली में चंद्रमा पर राहु-केतु का प्रभाव हो और साथ ही दशा भी राहु की या रोग भाव की हो तो निश्चित ही ऐसे जातक को हृदय रोग हो सकता है उपाय स्वरूप प्रतिदिन सूर्य का दर्शन व गायत्री पाठ करें, चतुर्थेश का रत्न धारण करें, सोमवार को प्रातः मोती धारण करने से भी स्वास्थ्य लाभ होगा, पंचमुखी रुद्राक्ष धारण करें व महामृत्युंजय का पाठ करें। अशुभ ग्रहों का दान व ग्रह शांति के लिए मंत्र-जाप आदि भी जरूरी है।
3. चर्म या त्वचा रोग इस रोग में दाग धब्बे, फुलबहरी, तथा कुष्ठ आदि प्रमुख हैं। ज्योतिष में त्वचा का कारक ग्रह बुध है इसलिए कुंडली में बुध यदि पाप युक्त, पाप दृष्ट या त्रिक भावों में होकर पीड़ित होता है तो दशा काल में त्वचा रोग देता है। इस रोग में राहु तथा शनि भी अहम भूमिका निभाते हैं। यह रोग रक्त से संबंधित होने के कारण मंगल तथा चंद्र से भी संबंध रखता है। बुध पीड़ित होकर जिस भाव में स्थित होगा उस भाव संबंधित अंग को यह रोग देता है। उपाय स्वरूप इस रोग में पन्ना धारण करना चाहिए, मंगल व चंद्र के लिए जल अधिक ग्रहण करना व शिव आराधना विशेष लाभकारी है। अशुभ ग्रहों का दान व ग्रह शांति के लिए मंत्र-जाप आदि भी जरूरी है।
4. गुर्दे की पथरी या गुर्दे के रोग - वर्तमान में पथरी का रोग बहुत तेजी से फैल रहा है। यह रोग हमारे खानपान की आदतों से सीधा संबध रखता है। ज्योतिषीय दृष्टि से जिस कुंडली में लग्न व सप्तम भाव में नीच, पापी-अशुभ ग्रह स्थित होता है तो गुर्दे के रोग या पथरी की समस्या का सामना करना पड़ता है। कुंडली में सूर्य की नीच राशि में स्थिति पथरी की आशंका को बढ़ाता है। गुर्दे के अन्य रोगों में मूत्र विकार भी शामिल है। इस रोग में उपाय स्वरूप मोती या पुखराज धारण करने से लाभ मिलता है या चांदी की अंगूठी में किडनी स्टोन भी आवश्यकता अनुसार धारण किया जा सकता है। अशुभ ग्रहों का दान व ग्रह शांति के लिए मंत्र-जाप आदि भी जरूरी है।
6. बवासीर बवासीर भी वर्तमान में बहुत तेजी से बढ़ रहा है। चिकित्सकों के अनुसार इसका मुख्य कारण ज्यादातर समय कुर्सी, पलंग आदि एक ही स्थान पर बैठकर कार्य करना है। ज्योतिष में यह रोग सप्तम भाव पर पाप प्रभाव विशेषकर मंगल जैसे क्रूर ग्रहों से होता है। यदि अष्टम भाव पर भी पाप प्रभाव हो तो यह रोग और अधिक भयानक स्थिति ले सकता है। सूर्य-चंद्र की युति भी इस रोग का कारण हो सकती है। उपाय स्वरूप ऐसे जातक को चांदी की अंगूठी में मोती या रक्त वर्ण मूंगा धारण करना चाहिए। अशुभ ग्रहों का दान व ग्रह शांति के लिए मंत्र- जाप आदि भी जरूरी है।
7. कमर दर्द आज कमर के दर्द से ज्यादातर व्यक्ति परेशान हैं। मुख्य रूप से यह समस्या हमारी आधुनिक जीवन शैली के कारण है। मोटापा भी इसका एक बहुत बड़ा कारण है। ज्योतिषीय दृष्टि से कमर का दर्द कन्या राशि और नसों से संबंधित होने के कारण शनि व बुध से संबंध रखता है। इसलिए जिस कुंडली में कन्या राशि, शनि या दोनांे पर पाप प्रभाव हो तो ऐसे जातक को प्रतिकूल ग्रहों की दशा में कमर दर्द की समस्या आ सकती है और कमर के साथ ही घुटनों, पिंडलियों, टखनों, पैरों व पंजों के रोग भी हो सकते हैं। शनि के पाप प्रभाव में होने पर कमर दर्द से राहत के लिए लोहे का कड़ा या घोड़े की नाल का बना कड़ा शनिवार को धारण किया जा सकता है, कन्या राशि पीड़ित होने पर राशि स्वामी बुध का रत्न पन्ना धारण किया जा सकता है। अशुभ ग्रहों का दान व ग्रह शांति के लिए मंत्र-जाप आदि भी जरूरी है।
8. मुंहासे ज्योतिष में मंगल का संबंध फोड़े-फुंसियों से है और मुंहासे इसका ही स्वरूप माने जाते हंै। इस कारण मंगल अधिष्ठित मेष और वृश्चिक राशियों वाले जातकों के लिए विशेष रूप से परेशानी का कारण बनते हैं विशेषकर जब मेष, तुला मकर राशि में शुक्र व केतु की युति हो तो शुक्र की दशा-अंतर्दशा में चेहरे पर इस रोग की संभावना अधिक होती है। ऐसे जातक को चांदी की अंगूठी में मूंगा या मोती, मध्यमा अंगुली में धारण करना चाहिए। अशुभ ग्रहों का दान व ग्रह शांति के लिए मंत्र-जाप आदि भी जरूरी है। विभिन्न प्रकार के रोग वास्तविक तौर पर रोग दो प्रकार के होते हैं
शारीरिक व मानसिक। कुछ रोग व्यक्ति को जन्म से ही हो जाते हैं परंतु कुछ रोग एक निश्चित अवधि के दौरान होते हैं। फिर वो जीवन के अंत तक चलते हैं या अवधि के खत्म होते ही दूर हो जाते हैं। विभिन्न कुंडली के विवेचन द्वारा हम यह बात पता कर सकते हैं। वाणी के रोग जातक की कुंडली मंगल लग्न में बलिष्ठ अवस्था में स्थित है। वाणी का कारक ग्रह बुध धन स्थान में स्थित है। वाणी का कारक ग्रह बुध धन स्थान में सूर्य व चंद्र के साथ स्थित है तथा गुरु से दृष्ट है।
जातक की कुंडली में सप्तम भाव व वृष राशि वाणी, मुख, गले की कारक है जिसका स्वामी शुक्र लग्नेश मंगल के साथ अस्त है। सप्तम स्थान में मंगल, राहु की दृष्टि होने की वजह से जातक स्पष्ट रूप से बोलने में सक्षम नहीं है। परंतु वाणी कारक बुध की द्वितीय स्थान में स्थिति व गुरु की दृष्टि के कारण जातक एक मृदुभाषी व्यक्ति है। अतः जातक रूक-रूककर बोलता हैं। नासिका के रोग जातक की कुंडली में लग्नेश, धनेश शनि, चतुर्थेश व एकादशेश मंगल के साथ सप्तम में स्थित हैं। दोनांे ग्रहों का संबंध लग्न व धन स्थान से पूरी तरह बन रहा है जिसके कारण व्यक्ति के शरीर में छोटे-मोटे रोग लगे रहते हैं। इसके अतिरिक्त वृष राशि जो नासिका, कंठ की कारक है, में अष्टमेश सूर्य, षष्ठेश बुध, मारकेश चंद्रमा, पंचमेश शुक्र के साथ स्थित है जिसके कारण व्यक्ति की नाक में अस्थि से संबंधित रोग लगे रहते हैं। कर्णों के रोग जातक की कुंडली में तृतीयेश मंगल तृतीय स्थान में है जो कर्णों का कारक है।
मंगल की पूर्ण दृष्टि वृष राशि में स्थित शनि पर है। व्यक्ति की कुंडली में शनि तृतीय स्थान जो दायें कर्ण का प्रतीक है व एकादश स्थान जो बायें कर्ण का प्रतीक है को प्रभावित कर रहा है। एकादशेश चंद्रमा निर्बल अवस्था में द्वादश स्थान में स्थित है। अतः वृष राशि, तृतीय व एकादश स्थान पाप ग्रहों द्वारा प्रभावित होने की वजह से जातक सुनने में असमर्थ है। पेट के रोग जातक की कुंडली में कन्या राशि तथा बुध ग्रह पाप ग्रहों से प्रभावित है। तृतीय व द्वादश स्थान का स्वामी बुध पंचमेश व दशमेश मंगल के साथ अष्टम में स्थित है जो जातक को पेट से संबंधित परेशानियां देता है। कन्या राशि व्यक्ति के शरीर में आंतो की कारक भी मानी जाती है अतः कन्या राशि में सूर्य, मंगल व राहु के प्रभाव के कारण व्यक्ति पेट के रोग से ग्रसित है।
पैरो में दर्द जातक की कुंडली में लग्नेश शनि धन स्थान में कुंभ राशि में स्थित है जो पैरों से संबंधित राशि है। शनि की पूर्ण दृष्टि अष्टमस्थ सूर्य व एकादश में स्थित चंद्रमा पर है। सूर्य की शनि पर दृष्टि हड्डी संबंधी व्याधि की कारक होती है व शनि की एकादश भाव पर दृष्टि व लाभेश मंगल की षष्ठ भाव में स्थिति जातक को पैरांे से संबंधित रोग प्रदान करती हैं। अतः जातक को जोड़ों में दर्द से संबंधित रोग है।
मस्तिष्क रोग जातक की कुंडली में लग्नेश मंगल जलतत्व राशि में व्यय स्थान में स्थित है। लग्न व मेष राशि पाप ग्रहों (शनि, राहु, केतु) द्वारा प्रभावित है तथा षष्ठेश बुध एकादशेश शनि के साथ चंद्रमा पूरी तरह अस्त है। अतः जातक को जन्म से ही मस्तिष्क संबंधी रोग है। फोड़े, फुन्सी से संबंधित रोग जातक की कुंडली में लग्नेश बुध द्वादश स्थान में पाप ग्रहों से प्रभावित है तथा षष्ठेश व लाभेश मंगल, भाग्येश व अष्टमेश शनि तथा मारकेश चंद्रमा के साथ लग्न में बैठा है। षष्ठ स्थान से त्वचा संबंधि रोगों का विचार किया जाता है।
लग्नेश बुध की षष्ठ स्थान पर दृष्टि व षष्ठेश मंगल की मारकेश ग्रहों से युति व कन्या राशि पर पूर्ण दृष्टि के कारण जातक को चमड़ी में फोड़े, फुन्सी से संबंधित कष्ट है। मंगल व शनि जातक को दाद, खाज,खुजली जैसे रोग भी प्रदान करते हैं। अतः जातक को त्वचा में खुजली व फोड़े फुन्सी से संबंधित रोग है। हृदय रोग जातक की कुंडली में पंचमेश सूर्य पंचम स्थान में षष्ठेश बुध तथा राहु के साथ स्थित है। जैसा कि विदित है
सिंह राशि हृदय को प्रभावित करती है। अतः हृदय के कारक ग्रह सूर्य का रोग कारक ग्रह बुध तथा राहु-केतु पापग्रहों से संबंध हृदय रोग की संभावनाएं उत्पन्न करता है। अतः जातक हृदय रोग से पीड़ित है। ब्लड प्रेशर जातक की कुंडली में लग्नेश चंद्रमा, रक्त के कारक ग्रह मंगल व मारकेश शनि के साथ सप्तम स्थान में स्थित है। मंगल का अष्टमेश व मारकेश शनि से संबंध जातक को रक्त संबंधी विकार उत्पन्न करता है तथा लग्नेश, लग्न व मेष राशि में पाप ग्रहों का प्रभाव जातक को मानसिक रूप से संवेदनशील बनाता है। अतः जातक ब्लड प्रेशर व्याधि से पीड़ित है।