प्रश्न: मलमास एवं क्षयमास क्या होते हैं? ऐसे मास कब-कब आते हैं और इनमें क्या करना और क्या नहीं करना चाहिए?
हमारा वैदिक साहित्य अनेकानेक विषयों का अथाह सागर है। इसमें धार्मिक सिद्धांतों के साथ-साथ ज्योतिष शास्त्र के अनेकों सिद्धांत चमत्कारिक ढंग से बताए गए हैं। सूर्य सिद्धांत के अनुसार नौ प्रकार के काल मान होते हैं। ब्रह्म, देव, पितृ (पितर), प्राजापत्य (मनु), बार्हस्पत्य (गुरु), सौर, चांद्र, सावन तथा नाक्षत्र मान। लौकिक व्यवहार में सौर, चांद्र, सावन और नाक्षत्र कालमान ही उपयोगी बन पड़ते हैं। बार्हस्पत्य कालमान केवल प्रभवादि संवत्सरों के शुभाशुभ फल में ही प्रयुक्त होता है। सौर वर्षों से युग तथा युगों से मनु एवं ब्राभ की गणना की जाती है। एक युग = 4320000 वर्ष। एक युग में धर्म के दस चरण माने गए हैं जिन्हें चार भागांे में विभक्त किया गया है।
1. सतयुग: इसे कृतयुग भी कहा जाता है। इसमें धर्म के चार चरण और 1728000 वर्ष होते हैं।
2. त्रेतायुग: इसमें धर्म के तीन चरण और 1296000 वर्ष होते हैं।
3. द्वापरयुग: इसमें धर्म के दो चरण और 864000 वर्ष होते हैं।
4. कलयुग: इसमें धर्म का एक चरण और 432000 वर्ष होते हैं। ऋग्वेद में वर्ष को बारह चान्द्रमासों में विभक्त (1 वर्ष = 12 माह = 360 दिन = 720 दिन-रात) करते हुए प्रत्येक तीसरे वर्ष चान्द्र एवं सौर वर्ष का समन्वय करने के लिए एक अधिक मास जोड़ा करते थे।
सूर्य संक्रांति, तिथि-पक्ष एवं नक्षत्र के आधार पर चार प्रकार के वर्ष माने गये हैं तथा चार प्रकार के ही मास लोक व्यवहार में प्रयुक्त किए जाते हैं। (प) सौर वर्ष एवं मास: सूर्य का बारह राशियों का भोगकाल एक सौर वर्ष कहलाता है। सौर वर्ष का मान 365 दिन 15 घटी 31 पल 30 विपल है, जो सूर्य सिद्धांत के अनुसार है। इसी प्रकार सूर्य के निरयण राशि प्रवेश (एक सूर्य संक्रांति से दूसरी सूर्य संक्रांति) तक की अवधि को सौर मास कहा जाता है।
(पप) चान्द्र वर्ष एवं मास: चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से चैत्र कृष्ण अमावस्या तक का काल एक चांद्र वर्ष कहलाता है, चान्द्र वर्ष का मान 354 सावन दिन है। इसी प्रकार पूर्णिमा से पूर्णिमा या अमावस्या से अमावस्या तक की अवधि को शुक्ल/कृष्ण चान्द्र मास कहा जाता है। इसमें तिथि क्षय या वृद्धि हो सकती है। चान्द्र मास का मान 29 दिन 22 घंटे तक का हो सकता है। (पपप) सावन वर्ष एवं मास: एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय तक 360 दिनों को मिलाकर एक सावन वर्ष बनता है।
सावन वर्षमान 360 दिन है। इसी प्रकार एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय तक की 30 तिथियों को मिलाकर एक सावन मास बनता है। इस मास में किसी भी प्रकार की तिथि क्षय या वृद्धि नहीं होती है। (पट) नक्षत्र वर्ष एवं मास: चंद्र को 27 नक्षत्रों में बारह बार घूमने की अवधि को नक्षत्र वर्ष कहते हैं। इसका मान लगभग 324 दिन है। इसी प्रकार चन्द्र का 27 नक्षत्रों में पूरा घूमना ही नाक्षत्र मास कहलाता है।
इसमें इसको 27 दिन 7 घंटे, 43 मिनट, 8 सेकंड लगते हैं। ऋग्वेद में चान्द्र मास और सौर वर्ष की चर्चा कई स्थानों पर आयी है, इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि चान्द्र और सौर समन्वय करने के लिए अधिक मास की कल्पना ऋग्वेद काल से प्रचलित है। जस चान्द्र मास में स्पष्ट सूर्य की संक्रांति न हो वह अधिक मास या मलमास कहलाता है। जिस चान्द्र मास में स्पष्ट सूर्य की दो संक्रांति होती हो तो वह क्षय मास या मल मास कहलाता है।
प्रत्येक वर्ष 16 दिसंबर से 14 जनवरी तक सूर्य के धनु राशि में परिभ्रमण से खर मास या मलमास होता है। सूर्य जब गुरु की धनु या मीन राशि में होते हैं तो ये दोनांे राशियां उनकी मलिन राशियां मानी जाती है। वर्ष में दो बार सूर्य गुरु की राशियों के संपर्क में आते हैं। प्रथम 16 दिसंबर से 15 जनवरी तथा 14 मार्च से 13 अप्रैल तक। शास्त्रों के अनुसार सूर्य का गुरु में परिभ्रमण श्रेष्ठ नहीं माना जाता है, क्योंकि गुरु में सूर्य कमजोर स्थिति में माना जाता है।
सूत्र: सौर वर्षमान 365 दिन 15 घटी 31 पल 30 विपल। चान्द्र वर्षमान 354 दिन 22 घटी 1 पल 23 विपल इन दोनों वर्षमानों में 10 दिन 53 घटी 30 पल 7 विपल का अंतर प्रति वर्ष रहता है। इस अंतर के सामंजस्य हेतु हर तीसरे वर्ष 1 अधिक मास की तथा 19 और 141 वर्षों बाद क्षय चान्द्र मास की व्यवस्था की गई है।
इन्हीं मासों को अधिक मास व क्षय मास अर्थात मल मास कहा जाता है तथा खर मास को भी मलमास माना गया है। क्षय मास केवल कार्तिक, मार्गशीर्ष (अग्रहायण) एवं पौष मास (भास्कराचार्य) में ही होता है तथा उसी वर्ष अधिक मास भी होता है जो कि फाल्गुन से कार्तिक के मध्य होता है। पंचांगों में मासों की गणना चान्द्र मास से व वर्ष की गणना सौर मास से की जाती है। इस कारण लगभग 10 दिन का अंतर होता है। तीन वर्ष में जब यह अंतर एक चान्द्र मास के बराबर हो जाता है तो सौर वर्ष में 13 चांद्र मास होते हैं।
वह तेरहवां मास ही अधिक मास, अधिमास, मलिम्लुच, मल या पुरूषोत्तम मास कहलाता है। सैद्धांतिक रूप से जिस चांद्र मास में सूर्य की संक्रांति न हो वह अधिक मास या मल मास इसके विपरीत यदि किसी एक चान्द्र में दो सूर्य संक्रांतियां पड़ जायें तो वह क्षय मास या मलमास कहलाता है। इसी प्रकार सूर्य के गुरु राशि में भ्रमण काल को खर मास या मल मास कहते हैं। ‘‘सिद्धांत शिरोमणि’’ के अनुसार क्षय मास कार्तिकादि तीन मासों में ही पड़ता है। जिस वर्ष में क्षय मास होता है उस वर्ष दो अधिमास भी होते हैं।
ये अधिमास से तीन मास पहले व बाद में होते हैं। प्रायः 19 वर्ष बाद ही क्षय मास संभावित होता है। फाल्गुन, चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, भाद्रपद और आश्विन मास अधिक मास होते हैं। कार्तिक, मार्गशीर्ष (अगहन), पौष क्षय मास होते हैं। कार्तिक मास क्षय व अधिक मास दोनों होता है। माघ मास क्षय या अधिक नहीं होता है। परंतु कहीं-कहीं माघ मास को क्षय मास में भी माना गया है। इन क्षय, अधिक या खर मास अर्थात मास के भी स्वामी होते हैं। पुराणों के अनुसार वर्ष, मास, अयन, ऋतु पक्ष, वार एवं तिथि सबके अपने-अपने गुण है एवं उनके स्वामी हैं, जिनके चलते वे पूज्य हैं, लेकिन मलमास ही अनाथ निंदनीय, रवि संक्रांतिहीन एवं त्याज्य क्यों हुआ? इस पर भगवान श्रीकृष्ण बोले, हे अर्जुन, यह मलमास दुःखित होकर मेरी शरण में आया था और अपनी व्यथा कह सुनाई। तब मैने इस मास का स्वामित्व स्वयं ले लिया और इसे पुरूषोत्तम मास कहा जाने लगा। यह मास इतना पावन है
कि इसके माहात्म्य की कथा स्वयं भगवान विष्णु ने देवर्षि नारद को अपने श्रीमुख से सुनाई थी। अधिक मास में त्याज्य कार्य: अधिमास में अग्न्याधान, देवप्रतिष्ठा, यज्ञ, दान, व्रत, देवव्रत, वृषोत्सर्ग, चूड़ाकरण, यज्ञोपवीत संस्कार, मांगल्यकर्म, अभिषेक, तुलादिमहादान, प्रथमदेवदर्शन, बावली, कूप, तड़ागादि प्रतिष्ठा, यज्ञादिकर्म, और प्रथमतीर्थस्नान त्याज्य हैं। अधिक मास में कत्र्तव्य कर्म: अधिमास में नित्यकर्म, ग्रहणशान्त्यादि निमित्तक- नैमित्तिक स्नानादि कर्म, द्वितीयवार का तीर्थ स्नान, गजच्छायायोगनिमित्तक श्राद्ध-प्रेतस्नान, गर्भाधान, ऋणादि में बार्धुवषिकृत्य, दशगात्रपिण्डदान एवं श्राद्ध करना चाहिए। अधिक मास का फल: ज्येष्ठ, भाद्रपद और आश्विन के अधिमास अशुभ फल प्रदाता हैं। शेष मासों के अधिमास शुभ फल प्रदायक हैं।
क्षय मास में त्याज्य कार्य: विवाह, यज्ञ और उत्सव तथा मंगलकार्य त्याज्य हैं। जिस वर्ष दो अधिमास होते हैं उस वर्ष कार्तिकादि त्रय मास में क्षय मास होता है। ये तीनों सभी मांगलिक कार्यों के लिए त्याज्य हैं। धर्मशास्त्र में भी वेदानुकूल अधिमास और क्षय मास के नाम हैं।
तीनों मंगल कार्यों के लिये निन्द्य हैं। कुछ वचन इस प्रकार हैं: बार्हस्पत्ये: यस्मिन् मासे न संक्रांतिः संक्रांति द्वयमेव वा ।। असंस्पर्शौतु तौ मासे लप्तमासश्च निन्दितः।। वशिष्ठ: वापीकूपतड़ागादि प्रतिष्ठा यज्ञ कर्म च। न कुर्यान्मलमासे तु संसर्पाहस्पतौतथा।। कृत्यशिरोमणौ: वस्तुतस्तु यद्वर्षे क्षयाख्यमासस्तत्र पूर्वापरमधिमासद्वयं तत् त्रितयमपि-सर्वकर्म वहिस्कृतम्। किसी ने क्षयमासवर्षीय अधिमास को भानुलंघित कहा है, परंतु वह भी मंगल कार्य में त्याज्य है यथा- चूड़ा मौन्जीबन्धन च अग्न्याधेयं महालयम्। राज्याभिषेकं काम्य च नो कुर्यान्भानुलंघिते।। भीमपराक्रमे: अधिमासे दिन-पति धनुषिरबौ भानुलंघिते मसि। चक्रिणिसुप्ते कुर्यान्नो मांगल्यं विवाहश्च।। कश्यप: मासौन्यूनाधिकौ तौतु सर्वकर्मवहिस्कृतौ। कन्या स्थित सूर्य में मलमास हो तो तुलार्क में ही देव-पितृ संबंधी कर्म करना चाहिए। जैसे पितामह का वचन है
- मासिकन्यागते भानुरसंक्रांतो भवेद्यदि। दैव पैत्रयं तदा कर्म तुलार्केकर्तुरक्षयम।। अपवाद वचनों का विचार: एक वर्ष में दो अधिमास होने पर प्रथम अधिमास प्रकृत अर्थात स्वाभाविक है, जो प्रत्येक तृतीय वर्ष में होता है। दूसरा मलिम्लुच है। क्षयमास से पूर्व जो अधिमास होता है वह गणितागत है। यह ज्योतिष सिद्धांत से सिद्ध है जैसे- क्षयमासात्पूर्वकालेऽग्रे चमासत्रयावधि। अधिमासद्वय तत्र स्यादाद्यो गणितागतः कुछ निबंधकारों ने प्रकृत का अर्थ ‘‘शुद्ध’’ लिया है जो ज्योतिष गणित के विरूद्ध है।
भीमपराक्रम में लिखा है- ‘‘एकत्रमासद्वितय यदिस्याद् वर्षेऽधिकं तत्र परोऽधिमासः’’ इसकी व्याख्या में वहां लिखा है कि असंक्रांतमासयोर्मध्ये पूर्वस्य कर्मण्यत्वं प्रति प्रसौति न तु वृद्धिं निषेधति’’ इससे स्पष्ट होता है कि क्षय मासीय वर्ष में दो अधिमास अवश्य होते हैं। पूर्वाधिमास का ससर्प है अतः ससर्प में जो कार्य त्याज्य होंगे वे उसमें नहीं किए जाएंगे लेकिन सामान्य अधिमास के त्याज्य कर्म इसमें हो सकते हैं। क्षयमास का फल: जिस वर्ष का क्षय मास होता है उस वर्ष विग्रह या दुर्भिक्ष या पीड़ा अथवा क्षत्रभंग होता है।
मार्गशीर्ष (अग्रहायण) में दुर्भिक्ष एवं विग्रह, पौष में क्षत्रभंग एवं रोगाधिक्य और माघ में महदम, अनेक दुर्घटना, उपज की कमी, अनेक उत्पात एवं लोगों का क्षय होता है।
खरमास: इस मास को भी मलमास कहा जाता है। समस्त मांगलिक कार्य त्याज्य हैं। विवाह, यज्ञोपवीत, कर्ण छेदन, गृह प्रवेश, वास्तु पूजा, कुआं-बावड़ी उत्खनन इत्यादि त्याज्य हैं। जब तक पृथ्वी पर जीवन है तब तक सभी प्रकार के मलमासों समस्त मांगलिक कार्यों का निषेध रहना तय है। मलमास में भगवान का भजन, व्रत, दान-धर्म श्रेष्ठ माना गया है। मलमास में दान की विशेष महिमा है। यह माना जाता है कि इस मास में दिए गए दान के भोक्ता और फलदाता भगवान विष्णु स्वयं हैं।
मलमास के दौरान गंगादि पवित्र नदियों में स्नान और तीर्थाटन भी पुण्यदायी है। इस संपूर्ण मास में भगवान विष्णु का वंदन करना चाहिए। भागवत कथा, रामायण का श्रवण श्रेयस्कर है। पीपल वृक्ष के नीचे बैठकर अपने आराध्य का ध्यान करना चाहिए। इस मास में निष्काम भाव से किया गया कर्म जन्म-जन्मांतर का कल्याण करता है। शास्त्रों में प्रातः 3 से 6 तक ब्रह्ममुहूर्त माना गया है और इस समय देवता भी पवित्र नदियों में मलमास में स्नान करने आते हैं।
सारे देवता पृथ्वी की ओर अधोगमन करते हैं और इसलिए मुंह अंधेरे सुबह इन नदियों के स्नान से देवताओं का साक्षात्कार किया जा सकता है और उनकी कृपा पाई जा सकती है। माना जाता है कि देवता भी मनुष्य रूप में अवतार लेने को तरसते हैं क्योंकि मनुष्य भक्ति द्वारा भगवान की कृपा प्राप्त कर सकता है और इस लिए देवता भी पृथ्वी पर आने को तरसते हैं। मलमास उन्हें पृथ्वी पर पुण्यदायिनी सलिला में स्नान का सुअवसर प्रदान करता है।
मलमास/ क्षयमास में क्या करें और क्या न करें
1. प्रत्येक मलमास का आगमन 32. 913 मास यानि लगभग 33 माह के उपरांत होता है।
2. मलमास के 33 ही देवता होते हैं जो कि निम्न प्रकार माने जाते हैं: (11 रुद्र $ 12 आदित्य $ 8 वास $1 प्रजापति $ 1 वास्तुकार) = 33 - इस मास को भगवान विष्णु का प्रिय मास माना जाता है।
- इस मास में भगवत भजन, व्रत, दान आदि का बड़ा महत्व है।
- पूरे वर्ष के किए गये शुभ कर्म और एक मलमास में किए शुभ कर्म बराबर माने गए हैं।
- इस मल मास में संसार के भौतिक सुखों में रचे बसे अपने मन व इन्द्रियों को समेट कर भगवान के चरणों में लगाना चाहिए जिसके लिए कुछ स्थूल नियम बनाए गए हैं। ये नियम मोटे तौर पर तो सामान्य प्रतीत होते हैं लेकिन इनके प्रभाव बहुत ही सूक्ष्म होते हैं।
1. स्नान: पूरे मलमास में ‘‘ब्रह्म मुहूर्त’’ में स्नान करना चाहिए अर्थात सूर्योदय से डेढ़ घंटा पहले स्नान करना चाहिए।
नोट: जल का जो भी सुलभ स्रोत उपलब्ध हो जैसे कि नदी, सरोवर, कूप, नल आदि उसके जल से स्नान करें। कोई स्त्री यदि इस मास में ब्रह्म मुहूर्त में जल में स्नान करती है तो उसे पूर्ण सौभाग्य की प्राप्ति होती है।
- यदि स्त्री गर्भवती है तो उसके गर्भ की रक्षा का दायित्व स्वयं विष्णु भगवान उठाते हैं और आने वाले प्रत्येक कष्ट से उसके गर्भस्थ शिशु की रक्षा करते हैं जैसे अभिमन्यु के गर्भस्थ शिशु की की थी।
2. प्रभु भक्ति व धार्मिक ग्रंथों का पठन/पाठन/श्रवण भी इस माह में करने से पुण्य की प्राप्ति होती है।
- श्रीमद् भगवद् गीता और श्रीमद् भागवत पुराण का पाठ करना व श्रवण करना सर्वोत्तम व सर्वफल प्रद माना गया है।
- ब्रह्म महूर्त में जागकर भगवान विष्णु और महा लक्ष्मी का पूजन अति हितकारी फल प्रदान करता है।
-तामसिक वस्तुओं, तामसिक क्रिया कलापों व तामसिक विचारों को पूरी तरह त्याग करना चाहिए जैसे कि मांस, मदिरा व संभोग आदि का त्याग करना चाहिए।
- यदि राजसिक जीवन जीते हांे तो इस पूरे मास में सात्विक जीवन व सात्विक विचारों को अपनाने का प्रयास सच्चे मन से करें।
- इस माह शादी (विवाह), नया व्यवसाय या नया मकान आरंभ करना, नया मकान, वाहन आदि खरीदने के विचारों को कम से कम एक माह तक स्थगित कर देना चाहिए।
इसका ज्योतिषीय कारण यह है कि मलमास में ग्रहों का प्रभाव सामान्य से अलग रहता है यानि हमारे शुभ ग्रह भी हमारे राजसिक व तामसिक क्रिया-कलापों का समर्थन नहीं करते हैं। अर्थात मलमास में इस संसार के भौतिक सुखों की प्राप्ति के पीछे न भागें क्योंकि अभीष्ट की प्राप्ति करने के प्रयास कभी-कभी अनुचित मार्ग अपनाने के लिए बाध्य करते हैं।
इसलिए इन अनुचित मार्गों का अनुगमन इस मलमास में पूरी तरह त्याज्य है। यह मास आध्यात्मिक उत्थान के लिए जातक के मन में बीजारोपण का अवसर प्रदान करता है। व्रत: व्रत (उपवास) एक ऐसी विधि है जिसके माध्यम से जातक अपने और परमात्मा के बीच की दूरी को घटा कर उस परमात्मा के निकट निवास कर सकता है (उप$वास = उपवास)।
- मलमास के पांच व्रत किए जाने का विधान है। - पूर्णिमा
- अमावस्या
- शुक्ल पक्ष व कृष्ण पक्ष दोनों की एकादशी तथा - जिस दिन चंद्रमा का गोचर श्रवण नक्षत्र में हो इन पांच दिन व्रत करने का विधान है।
- व्रत में उन्हीं नियमों का पालन किया जाता है जो नियम सामान्य चंद्र मास के व्रतों में अपनाए जाते हैं। अलग से कोई और नियम नहीं होता है।
‘‘श्राद्ध और मलमास’’ - जिनके किसी पूर्वज का निधन यदि मलमास में हुआ हो तो उस पूर्वज का श्राद्ध मलमास में किए जाने का विधान भी है।
- लेकिन यह श्राद्ध उसी मास के दौरान किया जाता है जिस मास में निधन हुआ हो न कि किसी भी मलमास में। माना यदि किसी के किसी पूर्वज का निधन मलमास (आश्विन) में हुआ हो तो जब भी आश्विन माह में मलमास पड़ेगा तब ही श्राद्ध किया जा सकता है।