लोगों के मन में अक्सर यह शंका बनी रहती है कि लग्न कुंडली महत्वपूर्ण है या चलित कुंडली, ग्रह की स्थिति लग्न कुंडली के अनुसार देखें या चलित कुंडली के अनुसार, यदि ग्रह की स्थिति चलित कुंडली से ही देखनी है तो लग्न कुंडली क्यों और कब देखनी चाहिए? यदि चलित कुंडली के अनुसार ग्रह को देखें तो, राशि भी क्या चलित कुंडली के आधार पर ही निर्धारित करनी चाहिए। फिर क्या ग्रह की दृष्टि भी चलित कुंडली से निर्धारित करनी चाहिए। इसी प्रकार मंगलीक दोष भी क्या चलित कुंडली से ही निर्धारित करना चाहिए। इन प्रश्नों के उत्तर जानने से पहले यह जानना आवश्यक होगा कि वास्तव में ये दोनों कुंडलियां हैं क्या? और कैसे बनती हैं, अर्थात इनका गणितीय आधार क्या है? लग्न कुंडली इसमें ग्रहों को उनकी राशि के आधार पर स्थापित किया जाता है, और यह तो आपको पता ही है कि एक राशि का मान निर्धारित होता है वह है 30 अंश। इसमें कहीं भी और कभी भी मतभेद नहीं रहा है कि राशि का मान 30 अंश होता है। अब ये 30 अंश क्या होते हैं और राशियां क्या होती हैं, इसको समझना भी जरूरी है। कोई भी गोले का मान 360 Degree होता है। इसी प्रकार ब्रह्मांड में आप एक गोले की कल्पना करें जिसका आकार गोल है तथा उसका साइज अनंत है। अब गोला चाहे छोटा हो या बड़ा हो या अनन्त हो उसके कोण का मान 360 Degree ही होगा। अब इस गोले के कोण को बराबर-बराबर 12 भागों में विभाजित कर दें तो एक भाग का मान 30 Degree होगा। अब इस प्रकार प्रत्येक भाग में आपको कुछ सितारे स्थिर रूप से चमकते हुये दिखाई देंगे। यदि इन सितारों को एक बिंदु के रूप में माना जाये और इन बिंदुओं को एक रेखा से मिला दिया जाये तो एक रेखावृत्ति बन जाती है और यह रेखावृत्ति कभी किसी पशु की या मनुष्य की या वस्तु की बन जाती है जिसके आधार पर उसको एक राशि का नाम दे दिया गया, जिसको हम कुल मिलाकर एक भचक्र र्;वकपंबद्ध के नाम से जानते हैं। अब पृथ्वी को आप एक केंद्र बिंदु मान लें और इस पृथ्वी रूपी बिन्दु से ग्रहों को देखें तो प्रत्येक ग्रह ब्रह्मांड में आपको किसी न किसी राशि के अंतर्गत घूमता हुआ दिखाई देगा। ग्रह और राशि की इसी स्थिति को कुंडली के रूप में बना दिया जाता है जिसको हम लग्न कुंडली कहते हैं। अर्थात् लग्न कुंडली ग्रह की राशि में स्थिति को बताता है। चलित कुंडली इसको बनाने के लिये हम सर्वप्रथम लग्न की गणना करते हैं। लग्न हमें प्रथम भाव के मध्य की स्थिति को बताता है। यहां यह ध्यान देना आवश्यक है कि लग्न वह कहलाता है जो किसी जातक के जन्म के समय या किसी घटना घटित होने के या किसी भी क्षण उस समय पूर्वी क्षितिज पर गुजर रही राशि व उसके अंश को बताता है। यह एक ठीक उसी प्रकार होगा जैसे कि वास्तु में आप किसी निश्चित स्थान (ब्रह्म स्थान) से कम्पास की सहायता से किसी निश्चित वस्तु के अंश को नोट करने का प्रयास करते हैं। वह अंश लग्न कहलायेगा। यह प्रथम भाव का प्रारंभ या समाप्ति बिंदु न होकर प्रथम भाव का मध्य बिंदु होता है। अर्थात अभी हमें यह नहीं मालूम है कि प्रथम भाव का प्रारंभ व समाप्ति कहां पर है। यहां यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि जिस प्रकार राशि का मान 30 अंश निर्धारित होता है उस प्रकार किसी भाव का मान 30 Degre ही हो यह आवश्यक नहीं होता है। किसी भाव का मान 32 Degree भी हो सकता है या 28 Degree भी हो सकता है। इसको ज्ञात करने के लिए हम दशम भाव स्पष्ट करके आवश्यक गणना के सभी पदों को करते हुए ज्ञात कर पाते हैं कि कौन सा भाव कहां से प्रारंभ होगा और कहां समाप्त होगा। इससे यह भी पता चल जाता है किस भाव का मान कितना रहेगा। यहां यह आवयश्यक नहीं है कि भाव का मान कितना होगा, कम होगा या ज्यादा होगा, यह आवश्यक है कि भाव कहां प्रारंभ होगा तथा कहां समाप्त होगा। अर्थात भाव का प्रारंभ व समाप्ति बिंदु व राशि के प्रारंभ व समाप्ति बिंदु अलग-अलग हो जाते हैं। ये ठीक उसी प्रकार समझें कि साइकिल के दो पहिये एक ही धुरी पर इस प्रकार एक दूसरे के ऊपर लगाये गये कि