ज्योतिष से हृदय रोग का ज्ञान
ज्योतिष से हृदय रोग का ज्ञान

ज्योतिष से हृदय रोग का ज्ञान  

फ्यूचर पाॅइन्ट
व्यूस : 3926 | मार्च 2006

ज्योतिष द्वारा जातक के शरीर में होने वाले किसी भी रोग की भविष्यवाणी समय रहते की जा सकती है। जहां कुंडली के प्रथम, तृतीय तथा अष्टम भाव व्यक्ति के जीवन तत्व को प्रदर्षित करते हंै वहीं छठा भाव रोग को, बारहवां अस्पताल को तथा सातवां एवं द्वितीय भाव मरण को प्रदर्षित करते हंै। कुंडली में सूर्य की अवस्था हृदय की स्थिति की सूचक होती है। सूर्य समस्त सृष्टि में ऊर्जा एवं ताप का स्रोत है और यही कारण है कि वह जैविक देह में हृदय का सूचक है। हृदय रोग की संभावना उस समय बढ़ जाती है जब सूर्य दुष्प्रभावित हो रहा हो। इसके अतिरिक्त सूर्य की राषि सिंह भी महत्वपूर्ण है ।

हृदय रोग मुख्यतः दो स्वरूपों में दृष्टिगोचर होता है पहला हृदयघात जो कि अकस्मात होता है तथा उसका किसी प्रकार का पूर्वाभास रोगी को नहीं होता और दूसरी समस्या वाल्व संबंधी । हृदय में अनेक छोटे छोटे सूराख सदृश वाल्व होते हैं जो रुधिर के एकतरफा बहाव को नियंत्रित करते हैं । ये वाल्व प्रत्येक हार्ट धड़कन के साथ ही बंद होते हैं तथा रुधिर के पुनरागमन को बाधित करते हुए रक्तचाप को भी नियंत्रित करते हैं । इन वाल्व में उत्पन्न सिकुड़न या इनका बंद होना जानलेवा हो जाता है।


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हृदय की तरफ जाने वाली सभी धमनियों की स्थिति बुध द्वारा प्रदर्षित होती है तथा शरीर के किसी भी अंग में कोई सिकुड़न या खराबी का कारण शनि होता है । व्यक्ति के मस्तिष्क की अवस्था मंगल द्वारा प्रदर्षित होती है तथा रक्त एवं रक्त चाप चंद्रमा एवं कर्क राषि द्वारा देखे जाते हंै। हृदयाघात के अधिकतर प्रकरणों में देखा जा सकता है कि इसका मूल कारण कोई आकस्मिक मानसिक आघात होता है। इस प्रकार के प्रकरणों में सूर्य एवं चंद्रमा पर मंगल का दुष्प्रभाव देखा गया है । मंगल एवं चंद्रमा संयुक्त रूप से व्यक्ति की मानसिक अवस्था के द्योतक होते हैं।

यदि मंगल युति अथवा दृष्टि से चंद्रमा को दुष्प्रभावित कर रहा हो तो व्यक्ति में असामान्य रक्तचाप की षिकायत देखने में आती है तथा जब यह सूर्य को भी प्रभावित करें और दषा, अंतर्दषा एवं गोचरवष इन तीनों का सामूहिक प्रभाव हो तब व्यक्ति किसी मानसिक आघात से पीड़ित होकर हृदयाघात की अवस्था में चला जाता है । इस प्रकार का आघात शनि, राहु एवं केतु भी उत्पन्न कर सकते हैं बषर्ते वे सूर्य एवं चंद्रमा को दुष्प्रभावित कर रहे हों । सर्वप्रथम यह देखना आवष्यक है कि क्या व्यक्ति के हृदय रोगी होने के किसी प्रकार के लक्षण कुडली में हैं क्या ? यह योग देखने के लिए कंुडली में चतुर्थ भाव, चतुर्थेष, सूर्य, चंद्रमा एवं दोनों की राषियों क्रमषः सिंह एवं कर्क का परीक्षण किया जाना चाहिए।

किसी भी ग्रह या राषि पर दुष्प्रभाव उसकी स्थिति, दृष्टि एवं युति के कारण हो सकता है। इसके अतिरिक्त इनके मारक भाव में स्थित ग्रहों एवं राषियों का भी अध्ययन किया जाना चाहिए। यदि यह स्पष्ट हो जाता है कि व्यक्ति के हृदय के रुग्ण होने की संभावना है तो यह देखना चाहिए कि छठे भाव में स्थित ग्रह या उसके स्वामी तथा बाधक स्थानाधिपति या बाधक भाव में उपस्थित ग्रह की दषा, अंतर या प्रत्यंतर में युति कब होती है।

यदि इसके साथ ही प्रबल मारकेष भी किसी रूप में कार्यरत हो रहा है, तो मृत्यु या मृत्युतुल्य कष्ट होगा, किंतु एकादषेष या एकादष भाव में उपस्थित ग्रह की भी किसी रूप में दषा, अंतर या प्रत्यंतर हो तो व्यक्ति निःसंदेह उपचार से निरोग हो जाएगा। यदि दषानाथ, अंतरनाथ या प्रत्यंतरनाथ केतु या शनि हो अथवा केतु से युत कोई ग्रह हो तो ऐसी अवस्था में शल्य चिक्त्सिा के योग बनते हैं, किंतु शल्य चिकित्सा द्वारा रोग ठीक होने के लिए आवष्यक है कि शनि अथवा केतु कंुडली में सकारात्मक अवस्था में उपस्थित हो, अन्यथा शल्य चिकित्सा सफल नहीं हो पाती है तथा अन्य पीड़ाएं भी उत्पन्न हो जाती हैं।

बुध पर यदि शनि एवं केतु का प्रभाव हो तो एंजियोग्राफी एवं एंजियोप्लास्टी हो सकती है। उदाहरणस्वरूप निम्न कुंडली का अध्ययन करें। इस कुंडली में चतुर्थेष बृहस्पति षष्ठ भाव में राहु के शतभिषा नक्षत्र में उपस्थित है तथा द्वादष भाव में उपस्थित शनि से पूर्ण दृष्ट है। चंद्रमा शनि की राषि मकर में तथा अष्टमेष एवं तृतीयेष मंगल के नक्षत्र में उपस्थित है। सूर्य की राषि सिंह में शनि विराजमान है तथा अपनी दषम दृष्टि से सूर्य को देख रहा है। लग्नेष अष्टम भाव में स्थित है तथा मंगल, जो अष्टमेष है, लग्न में उपस्थित होकर अष्टम भाव में लग्नेष को पूर्ण दृष्टि से देख रहा है।


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इस विवेचन से स्पष्ट है कि जातक के हृदय की अवस्था निःसंदेह कमजोर है तथा लग्नेष की स्थिति रुग्णता के योग भी उत्पन्न कर रही है। जातक को अगस्त 1989 में कंुडली दिखाने पर बताया गया कि दिसंबर 1989 के बाद स्वास्थ्य का विषेष ध्यान रखे क्योंकि शनि की महादषा प्रारंभ हो रही थी। उसे हृदय रोग होने की आषंका से अवगत कराया गया तथा यह भी बताया गया कि अगस्त 1995 तक शनि में बुध का अंतर चलेगा और यह धमनियों का रोग उत्पन्न करेगा जिसका इलाज बिना शल्य चिकित्सा के चलेगा तथा सफल होने की संभावना कम है क्योंकि जातक का बुध अष्टम भाव में मंगल की राषि में एवं सूर्य के नक्षत्र कृत्तिका में उपस्थित है जो द्वादषेष है और नवमांष कुडली में भी सप्तम मारक एवं बाधक भाव में उपस्थित है।

तत्पष्चात अक्टूबर 1996 तक चलने वाले शनि में केतु के अंतर में शल्य चिकित्सा करवानी पड़ सकती है। केतु के केन्द्र में अवस्थित होने तथा एकादषेष चंद्रमा के नक्षत्र में उपस्थित होने के फलस्वरूप शल्य चिकित्सा के शत प्रतिषत सफल रहने की घोषणा की गई। ज्ञातव्य है कि उस समय जातक को हृदय का किसी प्रकार का रोग नहीं था तथा उसने इस घोषणा पर अत्यंत आष्चर्य व्यक्त किया तथा बताया कि उसका रक्तचाप नियमित रूप से जांचा जाता है और वह आहार एवं विहार में अत्यंत संतुलित है, अतः हृदय रोग की संभावना नहीं है ।

जातक को 1992 में हृदय में पीड़ा का आभास हुआ तथा चिकित्सकों ने उसे रोग का मरीज घोषित किया। फरवरी 1996 में शल्य चिकित्सा द्वारा उसका इलाज किया गया। तब उसकी कुंडली में शनि की महादषा में केतु का अंतर तथा एकादषेष चंद्रमा का प्रत्यंतर दोनों चल रहे थे। केतु की केन्द्र में शुभ अवस्था होने तथा एकादषेष के प्रत्यंतर में होने के कारण शल्य चिकित्सा सफल रही । एक जातक की सन् 2000 से हृदय की चिकित्सा चल रही थी तथा दो आघात मेडिकल कार्ड में दर्ज थे।

यह जातक अपनी कंुडली दिखाने आया तथा उसकी ग्रहों की स्थिति एवं चल रही विंषोत्तरी दषा से ज्ञात हुआ कि हृदय रोग होने की वर्तमान में संभावना नहीं है। इस बाबत उसके अतीत की घटनाओं का मिलान किया गया तथा जन्म पत्रिका के समय शुद्धिकरण पष्चात उसे पूर्ण जांच हेतु हृदयरोग विषेषज्ञ से मिलने को कहा गया। जांच से ज्ञात हुआ कि उसका हृदय पूर्ण रूप से सामान्य है तथा कभी कोई आघात नहीं हुआ है।


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