ज्योतिष की पाठशाला-1
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ज्योतिष की पाठशाला-1  

डॉ. अरुण बंसल
व्यूस : 1206 | जून 2018

पिछले कुछ वर्षों से ज्योतिष में जाग्रत आई है एवं अनेक विद्वान इसे सीखने की आकांक्षा रखते हंै। विविध संस्थाएं ज्योतिष सिखा रही हैं, जिसमें अखिल भारतीय ज्योतिष संस्था संघ अग्रणीय है। विद्यार्थियों को अधिकांशतः कोई न कोई समस्या दिमाग में खटकती रहती है इसी को लेकर हम इस पाठशाला द्वारा कोशिश कर रहे हैं कि ज्योतिष संबंधी कुछ मुख्य समस्याओं का निदान कर सकें -

प्रश्न: जीवन पर जन्मकुंडली का प्रभाव कैसे पड़ता है?

उत्तर: जन्म समय पर बच्चे के मस्तिष्क और शरीर पर ग्रहों का प्रभाव उसी प्रकार से पड़ता है जैसे- फोटो लेने पर दृश्य अंकित होता है। जन्म के समय पर ग्रहों की स्थिति जातक के कर्म व भाग्य दोनों को ही अंकित कर देती है। उसी के अनुरूप उसका स्वभाव तथा जीवनशैली निर्भर करती हैं।

जन्म के समय की ग्रहों की स्थिति जातक की कुंडली में संवेदनशील बिंदु के रूप में अंकित हो जाती है। इन बिंदुओं पर भविष्य में जब भी कोई ग्रह आता है, उसका प्रभाव जातक के मानस पटल पर पड़ता है। यही ज्ञान हमें भविष्यकथन करने में सहयोग करता है।

प्रश्न: कुंडली बनाने के लिए कौन सा जन्म समय लेना चाहिए?

उत्तर: जन्म एक प्रक्रिया है जो कि नौ माह में पूर्ण होती है। इस प्रक्रिया के अंत में बच्चे का सिर बाहर आना, नाल काटना एवं प्रथम रूदन, ये तीन क्रियाएं हैं। प्रथम रूदन के साथ ही बच्चा प्रथम सांस लेता है तभी उसके प्राण प्रारंभ होते हैं। अतः प्रथम श्वांस ही जातक का जन्म है और अंतिम श्वांस ही जातक की मृत्यु है।

प्रश्न: कुंडली निर्माण का आधार क्या है?

उत्तर: कुंडली के निर्माण के लिए जन्म तिथि, समय और स्थान आवश्यक है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से किसी भी घटना के निर्धारण के लिए समय व स्थान का निर्धारण किया जाता है। जन्म तारीख व समय से घटना का काल निर्धारण होता है एवं जन्म स्थान से अंतरिक्ष में स्थान का निर्धारण होता है। जन्मकाल से ग्रहांे की स्थिति निर्धारित होती है एवं स्थान से उन ग्रहों का उस स्थिति में जातक पर पड़ने वाला प्रभाव निश्चित होता है।

प्रश्न: कुंडली क्या है?

उत्तर: बाहर का खांचा भचक्र को दर्शाता है। ग्रह किस भाव, किस राशि में स्थित है यह कुंडली से जाना जाता है। कुंडली एक प्रकार से जन्म के समय आकाश में स्थित ग्रहों का एक नक्शा है। कुंडली की स्थूल रूप से देखकर अनेक प्रकार के ज्ञान प्राप्त होते हैं जैसे- जन्म दिन का है या रात का, तिथि क्या है, जन्म कृष्ण पक्ष में हुआ है या शुक्ल पक्ष में, जन्म समय ग्रहण था या नहीं, समुद्र में ज्वार था या भाटा आदि। जन्म किस ऋतु या मास का है यह भी जाना जा सकता है।

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प्रश्न: लग्न क्या होता है?

उत्तर: पृथ्वी के चारो तरफ तारामंडल है। कोणीय स्थिति के अनुसार ही हमें तारे (राशियां) नजर आते हैं सदैव कुछ तारे उदय हो रहे होते है तो हमारे सिर के ऊपर होते हैं और कुछ पश्चिम में अस्त हो रहे होते हैं। जो तारे या राशियां हमें पूर्व में उदय होते दिखाई देते हंै उसे ही लग्न राशि कहते हैं। सूक्ष्म रूप में उस राशि का अंश, कला एवं विकला जिस समय उदित होता है वही लग्न का अंश कला/विकला होता है। इसी प्रकार से सिर के ऊपर जो राशि व उसके अंश होती है वह दशम भाव की राशि, अंश व कला-विकला होती है।

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प्रश्न: राशि और भाव में क्या अंतर है?

उत्तर:पृथ्वी के चारो ओर स्थित तारामंडल को 12 भागों में बांटा गया है। जिन्हें 12 राशियों के नाम से जाना जाता है। पृथ्वी के अपनी धूरी पर घूमने के कारण सदैव कई राशियां उदय व उससे विपरीत राशि अस्त होती रहती है। 15 अप्रैल से 15 मई तक जब सूर्य मेष राशि में होता है उन दिनों में प्रातः मेष राशि उदय होती है। पृथ्वी के पूर्व क्षितिज से लेकर पश्चिम क्षितिज तक 6 भाव होते हैं। सर्व प्रथम पूर्व क्षितिज में आधा लग्न भाव, तदुपरांत बारहवां भाव, ग्यारहवां भाव, सिर पर दशम भाव फिर पश्चिम की ओर नवम व अष्टम भाव अंत में पश्चिम की ओर आधा सप्तम भाव होता है। शेष छः भाव पृथ्वी के पीछे होते हैं जो दिखाई नहीं देते। अतः पृथ्वी के किसी भी बिंदु पर छः भाव व छः राशियां सदैव दृश्यमान होती हैं। कौन सी राशियां दृश्यमान होंगी यह काल (तिथी व समय) पर निर्भर करता है। जबकि भाव पृथ्वी के किसी भी बिंदु पर स्थिर है। राशियां 30-30 अंश की होती हैं। लेकिन भाव 30 से कम अंशों के भी हो सकते हैं हर भाव में 2 राशियां तो होती ही हैं। किसी भी ग्रह का प्रथम फल भावानुसार होता है। तदुपरांत राशि के अनुसार फल होता है। भाव किसी भी ग्रह की जन्मस्थान से कोणीय स्थिति दर्शाते हैं जबकि काल निर्णय के अनुसार राशि की गणना होती है।


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प्रश्न: सम्पातिक काल क्या होता है? इसका क्या महत्व है?

उत्तर:यदि हम पृथ्वी से दूर तारों पर खड़े हो जाएं और वहां से हम पृथ्वी को देखें तो 365 दिन में पृथ्वी हमें 366 चक्कर लगाते हुए दिखाई देगी। पृथ्वी की सूर्य के चारो ओर परिक्रमा भी दूर से ऐसी ही प्रतीत होगी जैसे कि पृथ्वी अपनी धूरी पर चक्कर लगा रही है।

अतः तारों पर स्थित बिंदु से पृथ्वी 365 दिन में 366 चक्कर लगाती है। यदि हम ऐसी घड़ी बनाएं तो यह घड़ी लगभग चार मिनट प्रतिदिन तेज चलेगी ओर इस घड़ी के समय को सम्पातिक काल कहते हैं। यह घड़ी वर्ष में एक बार 21-22 सितंबर को पृथ्वी की घड़ी से मेल खाती है। तदुपरांत प्रतिमाह यह 2 घंटे आगे होती जाती है एवं प्रतिदिन 4 मिनट। उदाहरणतः यदि हम एक जून को संपातिक काल जानना चाहे तो यह तारीख 21 सितंबर के बाद 8 मास 10 दिन आगे है। अतः एक जून को अर्थात घड़ी लगभग 16 घंटे 40 मिनट आगे होगी। साम्पातिक काल की गणना का महत्व दशम भाव व लग्न भाव से प्रत्यक्ष रूप से जुड़ा हुआ है। इसीलिए इसकी गणना का महत्व है। जब साम्पातिक काल 0 होता है तो सायन दशम भाव भी 0 अंश पर होता है। प्रति दो घंटे पर दशम भाव एक राशि आगे हो जाता है। अतः यदि साम्पातिक काल 6 घंटे हो तो सायन दशम भाव तीन राशि, अर्थात कर्क 0 अंश होगा। सायन लग्नांश दशम भाव से लगभग 90 अंश अधिक होते हैं। अतः इस साम्पातिक काल पर लगभग सायन लग्नांश तुला 0 अंश होगा और आयनाश 240 अंश घटाने पर यह कन्या 0 अंश होगा।


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प्रश्न: राहु-केतु क्या है? और इनकी ज्योतिष में क्या महत्ता है?

उत्तर: राहु और केतु को छाया ग्रह माना गया है। राहु और केतु खगोलीय बिंदु हैं जो चंद्र के पृथ्वी के चारों ओर चक्कर लगाने से बनते हैं क्योंकि ये केवल गणित के आधार पर बनते हैं, इसलिए काल्पनिक हैं और इनका कोई भौतिक अस्तित्व नहीं है। छाया ग्रह का अर्थ किसी ग्रह की छाया से नहीं है। अपितु ज्योतिष में वे सब बिंदु जिनका भौतिक अस्तित्व नहीं है, लेकिन ज्योतिषीय महत्व है, छाया ग्रह कहलाते हैं। पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा एक समतल में करती है। चंद्र भी पृथ्वी की परिक्रमा एक समतल में करता है लेकिन यह पृथ्वी के समतल से एक कोण पर रहता है। दोनों समतल एक दूसरे को एक रेखा पर काटते हैं। एक बिंदु से चंद्र ऊपर और दूसरे से नीचे जाता है। इन्हीं बिंदुओं को राहु और केतु की संज्ञा दी गई है। जब चंद्रमा, सूर्य और धरती के बीच आ जाता है तो सूर्य ग्रहण और जब सूर्य, चंद्र और पृथ्वी के मध्य आ जाता है तो इस स्थिति को चंद्र ग्रहण कहा जाता है। ग्रहण के कारण ही राहु/केतु का महत्व है। अन्य ग्रहों के भी राहु/केतु होते हैं। लेकिन क्योंकि बहुत दूर है और उनकी छाया पृथ्वी पर नहीं पड़ती है इसलिए ज्योतिष में उनका अधिक महत्व नहीं है।

प्रश्न: यूरेनस, नेप्च्यून प्लूटो और अन्य नए ग्रहों का ज्योतिषीय प्रभाव है?

उत्तर:सभी ग्रह सूर्य की परिक्रमा केवल एक गुरुत्वाकर्षण बल के कारण करते हैं। खगोल शास्त्र में ग्रहों की गणना के लिए भी केवल इसी बल का उपयोग करते हुए उनकी भूत एवं भविष्य की स्थिति का निर्णय किया जाता है। अतः यूरेनस, नेप्च्यून एवं प्लूटो अतिदूर एवं सूक्षम होने के कारण अन्य सभी ग्रहों के अनुपात में केवल 4ः से भी कम प्रभाव डालते हैं क्योंकि ज्योतिष विशुद्ध विज्ञान नहीं है, अपितु यह एक संभावित विज्ञान है इसीलिए 4ः प्रभाव को त्याज्य कर, कम बिंदुओं पर केंद्रित कर अधिक सटीक फलादेश किया जा सकता है। इसीलिए अन्य नए ग्रह जो पाए जा रहे हैं उनका प्रभाव तो 0.1ः से भी कम पाया जाता है। यही कारण है कि ज्योतिषीय फलादेश में इन्हें शामिल नहीं किया जाता है। दूसरे ज्योतिष में ग्रह की एक राशि में पुनः प्रवेश उसके फलादेश की पुनार्वृत्ति करता हैं दूर स्थित ग्रह जातक के जीवन काल में पुनः नहीं आ पाते हें। अतः उनकी उपयोगिता ज्योतिष में कम है। यही कारण है कि शनि की उपयोगिता ज्योतिष में सर्वाधिक है। क्योंकि यह तीन या चार बार मनुष्य के जीवन में परिक्रमा करता है एवं जब एक स्थान पर स्थित होकर शुभ/अशुभ फल देता है तो वह फल दीर्घ कालीन होता है और याद रहता है। इसके विपरीत शीघ्रगामी ग्रहों का प्रभाव तात्कालीन फल जानने के लिए ही लिया जाता है।


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