ज्योतिष एवं आयुर्विज्ञान
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ज्योतिष एवं आयुर्विज्ञान  

अविनाश सिंह
व्यूस : 4616 | सितम्बर 2006

प्रश्न: ज्योतिष शास्त्र एवं आयुर्वेद में परस्पर क्या संबंध है ?

उत्तर: ज्योतिष शास्त्र एवं आयुर्वेद दोनों ही वेदांग अर्थात वेदों के अंग हंै। जहां आयुर्वेद रोग का उपचार करने में सक्षम है वहीं ज्योतिष शास्त्र मानव शरीर में पनपने वाले रोगों की पूर्व जानकारी देने में सक्षम है। यदि रोग के कारणों की सही जानकारी हो, तो उपचार भी सही एवं सुचारु रूप से किया जाता है और रोगी रोगमुक्त हो जाता है। आधुनिक युग में जहां डाॅक्टर मानव शरीर में पनपने वाले रोगों के कारणों को जानने के लिए आधुनिक उपकरणों की सहायता लेते हैं, वहीं पुराने समय में वैद्य, हकीम आदि ज्योतिष के माध्यम से रोगों के कारणों की पूर्ण जानकारी प्राप्त कर उपचार करते थे और यह भी जान लेते थे कि उपचार में सफलता कैसे प्राप्त होगी, रोगी रोगमुक्त होगा या नहीं।

प्रश्न: ज्योतिष के अनुसार रोग की उत्पत्ति किन कारणों से होती है ?

उत्तर: ज्योतिष के अनुसार रोग की उत्पत्ति होना, नक्षत्रों एवं राशियों पर निर्भर करती है क्योंकि जन्म कुंडली उस आकाशीय पिंडों का चित्रण है जो जन्म के समय जातक के शरीर को प्रभावित और आंदोलित करते हैं। इससे जातक के समस्त जीवन की रूपरेखा निश्चित हो जाती है और ग्रह-नक्षत्रों के प्रतिदिन के बदलते प्रभाव से जातक का शरीर प्रभावित होकर रोगी या स्वस्थ होता है।

प्रश्न: जन्म कुंडली में ग्रह-नक्षत्र राशियां और भाव भिन्न-भिन्न रोगों और शरीर के अंगों का प्रतिनिधित्व करते हैं।

उत्तर: ज्योतिष का आधार ग्रह-नक्षत्र, राशियां और द्वादश भाव हैं। प्रत्येक ग्रह, नक्षत्र, राशि या भाव मानव शरीर के किसी न किसी अंग का प्रतिनिधित्व करता है। रोग भी उसी अंग से संबंधित होगा, जिस अंग का प्रतिनिधित्व ग्रह, नक्षत्र, राशि या भाव कर रहा होगा। कालपुरुष की कुंडली में बारह राशियां, 27 नक्षत्र, नौ ग्रह और बारह भाव मानव शरीर के अंगों और रोगों का प्रतिनिधित्व इस प्रकार करते हंै।

1. द्वादश राशियां: मेष-सिर, वृष-चेहरा, मिथुन-कंधे, गर्दन और छाती का ऊपरी भाग, कर्क-दिल, फेफड़े, सिंह-पेट, कलेजा, कन्या-आंतें, तुला-कमर, कूल्हे, पेट का निचला भाग, वृश्चिक-गुप्त अंग, गुदा, धनु-जंघाएं, मकर-घुटने, कुंभ-टांगें (पिंडलियां), मीन-पैर।


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2. द्वादश भाव: पहला भाव - सिर, दिमाग, बाल, चमड़ी शारीरिक कार्य क्षमता, साधारण स्वास्थ्य, दूसरा भाव-चेहरा, दायीं आंख, दांत, जिह्वा, नाक, आवाज, नाखून, दिमागी स्थिति, तीसरा भाव - कान, गला, कंठ, कंधे, श्वास नली, भोजन नली, हथेली, स्वप्न, दिमागी अस्थिरता, शारीरिक विकास, ैथा भाव- छाती, दिल, फेफड़े, रक्तचाप, स्त्रियों के स्तन, पांचवां भाव -पेट का ऊपरी भाग, कलेजा, पित्ताशय, जीवन शक्ति, आंतें, बुद्धि, सोच, शुक्राणु, गर्भ, छठा भाव - बड़ी आंत, गुर्दे, साधारण रोग, मूत्र, कफ, बलगम, दमा, चेचक, आंखों का दुखना, अलसी, जहर, सातवां भाव - गर्भाशय, अंडाशय और अंडग्रंथि, शुक्राणु कोष, गुदा, प्रोस्टेट ग्रंथि, कामुकता, मूत्र नली, आठवां भाव - बाहरी जननेंद्रिय, अंग-भंग, लंबी बीमारी, आयु, दुर्घटना, नौवां भाव- कूल्हे, जंघाएं, धमनियां, आहार, पोषण, दसवां भाव - घुटने, घुटनों के जोड़, चपली, शरीर के सभी जोड़, ग्यारहवां भाव- टांगें, पिंडलियां, बायां कान, रोग से छुटकारा और बारहवां भाव - पांव, बायीं आंख, अनिद्रा, दिमागी असंतुलन, अपंगता, मृत्यु, शारीरिक सुख-दुख।

3. नौ ग्रह: सूर्य - हड्डी, चंद्र-खून, मंगल-मज्जा, बुध-त्वचा, चमड़ी, गुरु-वसा, शनि-स्नायु, राहु-स्नायु प्रणााली, केतु-गैस, वायु Û 27 नक्षत्र: अश्विनी-घुटने, भरणी-सिर, कृत्तिका-कमर, रोहिणी-टांगें, मृगशिरा-आंखें, आद्र्रा-बाल, पुनर्वसु-उंगलियां, पुष्य-मुख, आश्लेषा-नाखून, मघा-वाक, पू. फाल्गुनी- गुप्त अंग, उ.फा.-गुदा, लिंग, गर्भाशय, हस्त-हाथ, चित्रा-माथा, स्वाती-दांत, विशाखा-बाजू, अनुराधा-दिल, ज्येष्ठा- जिह्वा, मूल-पैर, पू.आषाढ़.-जंघाएं एवं कूल्हे, उ.आषाढ़-जंघाएं एवं कूल्हे, श्रवण-कान, धनिष्ठा-कमर, रीढ़ की हड्डी, शतभिषा-ठुड्डी, पू.भा.-फेफड़े, छाती, उ.भा.-छाती की अस्थियां, रेवती-बगल। क्योंकि रोग की उत्पत्ति का कारण ग्रह, नक्षत्र, राशि व द्वादश भाव हैं इसलिए उपरोक्त लिखित रोग प्रतिनिधित्वों पर विशेष विचार करना चाहिए।

प्रश्न: आयुर्वेद में तीन विकार रोग के कारण होते हैं। ज्योतिष की दृष्टि से ये विकार किन ग्रहों का प्रतिनिधित्व करते हैं?

उत्तर: आयुर्वेद का मूल आधार तीन विकार हैं: वात, पित्त, कफ। जब इन तीन विकारों में असंतुलन आ जाता है, तब मानव शरीर रोगी होता है। शरीर में वात पित्त, कफ का बढ़ना या कम होना रोग का कारण बनता है। वैद्य, हकीम आदि नाड़ी देख कर इन तीनों के अनुपात का अध्ययन कर रोग का उपचार करते हैं। ज्योतिषीय दृष्टि से इन तीनों विकारों का प्रतिनिधित्व करने वाले ग्रह इस प्रकार हैं ।

1. सूर्य-पित्त, चंद्र-कफ और वात, मंगल-पित्त, बुध-तीनों विकार, गुरु-कफ, शुक्र-वात और कफ, शनि-वात। जन्म कुंडली में जो ग्रह कमजोर होगा उस ग्रह से संबंधित विकार होगा। रोग का कारण विकार है, इसलिए यदि उस विकार से संबंधित ग्रह का उपचार किया जाए तो रोगी के स्वास्थ्य में सुधार हो सकता है।

प्रश्न: क्या ज्योतिष के आधार पर रोगी का उपचार लाभकारी होता है?

उत्तर: ज्योतिष के आधार पर यदि रोगी का उपचार किया जाए, तो लाभ अवश्य होगा। ऐसा देखने में आता है कि रोगी का उपचार किया जाता है पर रोग ठीक होने का नाम ही नहीं लेता जबकि उपचार के लिए जो औषधियां दी जा रही हैं वे सब सही हंै तो ऐसा क्या कारण है कि रोगी ठीक नहीं हो रहा। ज्योतिष के आधार पर यह जाना जा सकता है कि रोगी किस अवधि तक रोग से घिरा रहेगा। जब रोगी के ग्रह गोचर और दशांतर्दशा अनुकूल होंगे, तो रोगी ठीक हो जाएगा।


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प्रश्न: यह कैसे जानें कि जन्म कुंडली रोगी की है?

उत्तर: जन्म कुंडली में षष्ठ भाव रोग का होता है, इसलिए षष्ठेश को रोगेश भी कहते हैं। लेकिन इससे अधिक महत्व लग्न का होता है क्योंकि लग्न जन्म कुंडली में जातक के पूरे शरीर का होता है। यदि लग्न, लग्नेश, पाप दृष्टि या युति से युक्त है तो उपयुक्त जन्म कुंडली का जातक स्वस्थ होगा और जीवन पर्यंत स्वस्थ रहेगा। इसके विपरीत यदि लग्न और लग्नेश पाप युक्त या दृष्ट हो, तो जातक जीवन भर रोगों से घिरा रहेगा, उसे कोई न कोई शारीरिक व्याधि होती रहेगी।

प्रश्न: रोग या कष्ट जातक को किस आयु में आएगा कैसे जानें ?

उत्तर: रोग किस आयु में होगा यह जानने के लिए दशा और गोचर की सहायता लेनी होगी। कुंडली में जो ग्रह पापयुक्त या दृष्ट हो, या किसी तरह से रोगेश से संबंध बनाता हो उसी की दशा अंतर्दशा में जातक को रोग या कष्ट होता है। यदि उसी ग्रह का गोचर भी विपरीत चल रहा हो या शुभ न हो तो जातक को उस समय उस आयु में विशेष कष्ट होता है।

प्रश्न: जातक को कौन सा रोग कब होगा यह कैसे जानें ?

उत्तर: जिन भावों में पाप या अशुभ ग्रह रहते हैं जातक को उन्हीं भावों और ग्रहों से संबंधित रोग होता है। जब उस ग्रह की दशा या अंतर्दशा चलती है तो जातक को शारीरिक कष्ट होता है। जैसे यदि मंगल अकारक होकर लग्न में स्थित हो और शुभ ग्रहों की दृष्टि व युति से रहित हो, ता उसकी दशा या अंतर्दशा में, जातक को शारीरिक कष्ट होगा। यदि उस समय मंगल का गोचर भी अशुभ चल रहा हो तो, जातक को सिर में चोट आ सकती है, ब्रेन ट्यूमर या मस्तिष्क संबंधी अन्य रोग हो सकते हैं या शरीर से अधिक रक्तपात हो सकता है। ऐसे ही अन्य ग्रहों के स्थिति अनुसार रोग को जाना जा सकता है।

प्रश्न: वह कौन सा रोग है, जिसे सभी रोगों का कारण माना जाता है इसे जन्म कुंडली में कैसे देखें?

उत्तर: सभी रोग उदर से ही उत्पन्न होते हैं। जो रोग शरीर के आंतरिक भाग में उत्पन्न होते हंै, उन सभी का संबंध उदर से होता है। जन्म कुंडली में षष्ठ भाव उदर का होता है इसलिए इसे रोगेश भी कहते हैं। यदि पेट खराब हो और खाया-पीया हजम नहीं होता हो तो कई प्रकार के रोग जन्म लेते हैं, जो आंतरिक रूप से जातक के शरीर में भिन्न-भिन्न अंगों को हानि पहुंचाते हैं। उदर अर्थात पेट खराब होने का कारण भोजन होता है। यदि जातक सुपाच्य व पौष्टिक भोजन खाता है, तो पेट खराब होने की संभावना कम रहती है।

इसके विपरीत यदि जातक गरिष्ठ, मसालेदार और अन्य प्रकार के असंतुलित भोजन करें, तो उसका पेट अवश्य खराब होगा। भोजन का संबंध जातक के स्वाद पर निर्भर करता है और जन्म कुंडली में दूसरा भाव जातक की जिह्वा और स्वाद का भाव है अर्थात द्वितीय भाव और द्वितीयेश यदि पाप दृष्ट या युक्त हों, तो जातक खाने पीने का शौकीन होता है, जिससे उसके पेट की स्थिति बिगड़ जाती है और कई प्रकार के आंतरिक रोग जन्म लेते हैं।

इसके अतिरिक्त षष्ठेश और षष्ठ भाव पर भी यदि पाप ग्रहों की दृष्टि हो या उनसे युति हो, तो जातक को पेट के रोग होंगे। जन्म कुंडली में द्वितीय भाव, द्वितीयेश, षष्ठ भाव, षष्ठेश और उक्त भावों में स्थित ग्रहों और लग्न-लग्नेश की स्थिति को देखकर यह जाना जा सकता है कि जातक को पेट संबंधी कोई रोग होगा या नहीं।


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प्रश्न: हृदय रोग के ज्योतिषीय कारण क्या हैं और जातक की कुंडली से इस रोग को कैसे पहचानें ?

उत्तर: काल पुरुष की कुंडली में हृदय का प्रतिनिधित्व कर्क और सिंह राशियां करती हैं और हृदय का मुख्य स्थान चतुर्थ भाव, नव ग्रहों में सूर्य सृष्टि का जीवनाधार है और यही हृदय की धड़कन का कारक है। यदि जन्मकुंडली में कर्क और सिंह राशियां, चतुर्थ भाव, सूर्य और चंद्र बलवान एवं शुभ ग्रहों से युक्त व दृष्ट हों, तो व्यक्ति को हृदय रोग नहीं होता। इसके विपरीत यदि ये सभी कमजोर हों, तो व्यक्ति को निश्चय ही जीवन में हृदय संबंधी कोई न कोई रोग होगा।

प्रश्न: मधुमेह रोग के ज्योतिषीय कारण बताएं ?

उत्तर: मधुमेह पेन्क्रीयास ग्रंथि की गड़बड़ी के कारण होता है जो रक्त में ग्लूकोज की मात्रा को निश्चित स्तर पर बनाए रखता है और जब पेन्क्रीयास ग्रंथियों में इन्सुलिन नहीं बनता तो ग्लूकोज की मात्रा रक्त में बढ़ जाती है और व्यक्ति मधुमेह से ग्रस्त हो जाता है। यह पेन्क्रीयास ग्रंथि आमाशय के नीचे जठर के बीच में आड़ी पड़ी होती है जो पेट के ऊपरी भाग में स्थित है। ज्योतिषीय दृष्टिकोण से यह भाग कुंडली का पंचम भाव है। पंचम भाव यकृत, पेन्क्रीयास ग्रंथि और शुक्राणुओं का कारक भाव है।

इस भाव का कारक ग्रह गुरु है। पेनक्रीयास ग्रंथि के कुछ भाग का नेतृत्व शुक्र ग्रह भी करता है, जो शरीर में बनने वाले हार्मोन्स को संतुलित करता है। इसलिए मधुमेह रोग में गुरु, शुक्र पंचम भाव और पंचमेश का विशेष महत्व होता है। यदि कुंडली में गुरु, शुक्र, पंचम भाव और पंचमेश पापयुक्त या दृष्ट हों तो जातक को मधुमेह रोग का सामना जीवन भर करना पड़ेगा।

प्रश्न: कैंसर रोग किन ज्योतिषीय कारणों से होता है ?

उत्तर: कैंसर शरीर के किसी भी अंग की कोशिकाओं में अनियंत्रित रूप से विभक्त होकर उस अंग में गांठ बना देता है। जिससे कैंसर रोग होता है। कैंसर कालपुरुष की कुंडली में सूर्य, चंद्र, षष्ठ, अष्टम, द्वादश भावों व उनके स्वामियों तथा कर्क, कन्या, तुला, वृश्चिक और मीन राशियों के दूषित प्रभाव में रहने से होता है। यह रोग शरीर में धीरे-धीरे फैलता है। शनि और राहु पुराने रोगों और धीरे-धीरे फैलने वाले रोगों के कारक हैं। इसलिए कैंसर इन्हीं के दुष्प्रभावों में रहने के कारण होता है। यदि प्रथम भाव अर्थात लग्नेश शनि राहु के दुष्प्रभाव में रहते हैं, तो सिर या दिमाग का कैंसर होता है।

यदि शनि और राहु कुंडली में अशुभ होकर तृतीय भाव व द्वितीयेश से दृष्टि या युति संबंध बनाएं, तो गले, श्वास नली, फेफड़े आदि का कैंसर होता है। इनका यदि चतुर्थ भाव या चतुर्थेश से संबंध हो, तो स्तन या छाती का कैंसर होता है। षष्ठ भाव या षष्ठेश यदि ऐसे अशुभ प्रभाव में रहे, तो पेट या आंतों का कैंसर हो सकता है। यदि पंचम सप्तम और अष्टम भाव दुष्प्रभावों में हों तो गर्भाशय का कैंसर होता है। यदि शनि योगकारक हो, किंतु कुंडली में यदि वह अकारक ग्रह से युक्त या दृष्ट हो और अन्य त्रिक भावों के स्वामी से भी संबंध बना रहा हो, तो जिस भाव पर उसकी दृष्टि होगी या जिसमें उसकी स्थिति होगी, उस भाव से संबंध कैंसर से रोगी को फैलाएगा।

प्रश्न: गुर्दे के रोग के ज्योतिषीय कारण क्या हैं ?

उत्तर: जन्म कुंडली में गुर्दे का स्थान षष्ठ एवं सप्तम भाव का मध्य है। षष्ठ भाव का कारक मंगल और सप्तम भाव का कारक शुक्र है। इसलिए यदि कुंडली में षष्ठ भाव, सप्तम भाव, षष्ठेश, सप्तमेश, मंगल एवं शुक्र पाप ग्रहयुक्त या दृष्ट हों तो जातक को गुर्दे से संबंधित रोग होता है। षष्ठ भाव, सप्तम भाव, षष्ठेश, सप्तमेश, मंगल और शुक्र यदि कुंडली में बलवान और शुभ स्थिति में हांे, तो जातक को गुर्दे रोग नहीं होता।


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प्रश्न: बहरेपन के ज्योतिषीय कारण क्या हैं ?

उत्तर: काल पुरुष की कुंडली का तृतीय भाव कान का भाव माना जाता है। जिसका कारक ग्रह मंगल है। यदि कुंडली में तृतीय भाव पाप ग्रहों से युक्त या दृष्ट हो, तो जातक को कान के रोग होते हैं। तृतीयेश, कारक मंगल और बुध भी यदि पापकर्तरी हो तो भी कान से संबंधित रोग होते हैं और जातक को बहरेपन का सामना करना पड़ता है।

प्रश्न: रोगी को रोग से मुक्ति कब मिलेगी या नहीं मिलेगी, यह रोगी की कुंडली से कैसे जानें ?

उत्तर: सबसे पहले यह जान लेना चाहिए कि रोगी की कुंडली में लग्न, लग्नेश, षष्ठ भाव एवं षष्ठेश बलवान हंै या बलहीन। यदि उक्त दोनों भाव बलहीन हों, तो रोगी को रोग से मुक्ति या तो देर से मिलती है या मिलती ही नहीं। इसके साथ-साथ रोगी को किस महादशा एवं अंतर्दशा में रोग हुआ और उनकी क्या अवधि है यह भी देखना चाहिए यदि महादशा का स्वामी रोग का कारण हुआ तो समझ लें कि दशा की जितनी अवधि है, रोग भी उतनी अवधि तक रहेगा। इसके अतिरिक्त ग्रह गोचर भी रोग की अवधि निश्चित करने में सहायक होता है।

यदि ग्रह गोचर शुभ चल रहा हो, तो रोगी को रोग से जल्द ही मुक्ति मिल जाएगी, लेकिन यदि ग्रह गोचर अशुभ हुआ अर्थात साढ़ेसाती आदि चल रही हो और दशांतर्दशा भी अशुभ ग्रहों की चल रही हो तो जातक को रोग का लंबी अवधि तक सामना करना पड़ेगा और हो सकता है कि जीवन भर कष्ट का सामना करना पड़े।

प्रश्न: यदि रोग हो ही जाए तो क्या ज्योतिषीय उपायों से लाभ होगा एवं क्या उपाय करने चाहिए?

उत्तर: ज्योतिषीय उपाय जैसे रत्न, मंत्र, ग्रह शांति आदि अवश्य ही रोगोपचार में लाभदायक हैं। यदि ग्रह जनित रोग हो, तो किसी औषधि से पूर्ण लाभ नहीं मिलता एवं अनेक बार कष्ट होता है, पर रोग का पता नहीं चलता। ऐसे में ग्रह शांति के साथ औषधि सेवन तुरंत लाभ प्रदान करता है। रोगोपचार में महामृत्युंजय जप विशिष्ट फल प्रदायक है। इस मंत्र के सवा लाख जप करन से एवं तदुपरांत दशांश का हवन करने से असाध्य रोग भी ठीक होते देखे गए हैं। इसके साथ रत्न धारण, महामृत्युंजय यंत्र स्थापन व ग्रह पूजन का विशेष लाभ प्राप्त होता है।

सूर्य आत्मकारक ग्रह है, अतः सूर्य को जल देने से प्रातः तांबे के लोटे में रखे जल के पीने से अनेक रोग जैसे नेत्र रोग, हृदय रोग, रक्तचाप आदि दूर हो जाते हैं। रुद्राक्ष धारण भी विशेष हितकारी है। इससे रक्तचाप में एवं मानसिक रोग में विशेष लाभ प्राप्त होता है और ऊर्जा एवं शांति प्राप्त होती है। जो ग्रह कुंडली में बली होकर दुष्ट स्थानों पर स्थित हों उनके लिए पदार्थ विसर्जन व दान उत्तम फल प्रदान करते हैं।

अंततः चिकित्सा विज्ञान द्वारा रोग की जानकारी केवल रोग होने पर या शरीर में लक्षण आने पर प्राप्त होती है जबकि ज्योतिष द्वारा रोग की जानकारी जन्म के समय के साथ ही प्राप्त की जा सकती है।



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