हृदय रोग के योग प्रायः देखा गया है कि आवेग, उद्वेग या संवेग की उग्रतावश दिल का दौरा पड़ता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार चतुर्थ भाव से हृदय रोग का विचार किया जाता है। चतुर्थ भाव तथा चतुर्थेश पर पाप प्रभाव से यह रोग होता है। वैद्यनाथ, प्रमति तथा अन्य आचार्यों ने हृदय रोग को चतुर्थ एवं पंचम भाव तथा चतुर्थेश और पंचमेश पर पाप प्रभाव से इस रोग का संबंध बताया गया है। हृदय शूल, हृदय कंप तथा उदर रोग - हृदय रोग की श्रेणी में आते हैं। हृदय रोग के ज्योतिषीय कारण काल पुरूष की कुंडली में चतुर्थ भाव, कर्क राशि तथा चतुर्थेश चंद्रमा का संबंध हृदय से माना गया है। कुछ विद्वान सूर्य को राजा या नियंत्रक ग्रह मानते हैं।
अतः रक्त संचार प्रणाली के नियमन व नियंत्रण के लिए वे सूर्य को कारक मानते हैं। इसलिए हृदय रोगों पर सूर्य का अधिकार अधिक उपयुक्त है। मंगल रक्त है। अतः सूर्य (नियामक), चंद्रमा (रक्त संचार), मंगल (रक्त के लाल कण), चतुर्थ भाव तथा कर्क राशि (हृदय स्थान) पर पापत्व की मात्रा बढ़ने से या इनका संबंध षष्ठभाव, षष्ठेश, शनि या राहु से होने पर हृदय रोग की संभावना बढ़ती है। कुछ दैवज्ञ सूर्य को हृदय रोग का कारक मानते हैं तथा सूर्य के विभिन्न ग्रहों से युति के अनुसार रोग का स्वरूप निश्चित करते हैं।
- सूर्य तथा मंगल से रक्त संचार दोष का विचार किया जाता है।
- सूर्य तथा शनि से हृदय कंपन का विचार किया जाता है।
- सूर्य तथा केतु से हृदय पीड़ा का विचार किया जाता है। चतुर्थ भाव संबंधी योग - सूर्य, षष्ठेश तथा पाप ग्रह चतुर्थ भाव में हों।
- मंगल, गुरु तथा शनि की युति चतुर्थ भाव में हो। - मंगल तथा केतु की युति चतुर्थ भाव में हो।
- गुरु, शनि व षष्ठेश की युति चतुर्थ भाव में हो।
- पाप युक्त या पाप दृष्ट चंद्रमा चतुर्थ भाव में हो तथा पाप ग्रह एक ही राशि में हों।
- पाप ग्रह चतुर्थ भाव में तथा चतुर्थेश पाप युक्त तथा पाप मध्य हो।
- शनि चतुर्थ भाव में तथा सूर्य, षष्ठेश और पाप ग्रह एक ही राशि में हों। - राहु चतुर्थ भाव में पाप दृष्ट हो तथा लग्न बली हो।
- शनि चतुर्थ भाव में तथा राहु व्यय स्थान में हों। हृदय रोग होने के ज्योतिषीय योग:
- यदि सूर्य एवं गुरु के साथ, शनि चतुर्थ भाव में स्थित हो।
- कुंभ राशि में सूर्य हो या कर्क राशि का चंद्र, पाप या शत्रु ग्रह युक्त हो।
- चतुर्थ भाव में षष्ठेश सूर्य, क्रूर ग्रह से युक्त हो।
- चतुर्थ भाव में गुरु, मंगल व शनि, पाप ग्रहों अर्थात राहु-केतु या त्रिकेश से युक्ति, दृष्टि द्वारा प्रभावित हो।
- यदि षष्ठेश सूर्य की राशि या सूर्य के नवांश में हो या सूर्य, चंद्रमा एवं मंगल शत्रु क्षेत्री हो।
- यदि चतुर्थ भाव में मंगल नीच का स्थित होकर शनि व बृहस्पति के साथ स्थित हो।
- चतुर्थ भाव पर राहु की 5वीं दृष्टि हो, षष्ठेश बुध की 7वीं दृष्टि हो, चतुर्थेश चंद्र राहु के साथ 12वें भाव में स्थित हो या सूर्य कुंभ राशिगत हो।
- चतुर्थ भाव में पाप ग्रहों की स्थिति तथा चतुर्थेश की पापग्रहों के साथ युति हो।
- अस्त, नीच, वक्री, शत्रु राशिगत चतुर्थेश अष्टम भाव में स्थित हो।
- सूर्य, मंगल व गुरु की युति चतुर्थ भाव में स्थित हो।
- चतुर्थ व पंचम भाव में पाप ग्रह स्थित हो। - यदि चतुर्थभाव में स्थित शनि पर राहु का पाप प्रभाव हो।
- चतुर्थेश, पंचमेश या शुभ ग्रह निर्बल होकर त्रिक भाव (6, 8, 12) में हो।
- यदि चतुर्थ भाव में स्थित मंगल पर शनि की दृष्टि हो।
- राहु चतुर्थ भाव में स्थित हो तथा षष्ठेश पापी ग्रह हो।
- यदि राहु-केतु, सूर्य, चंद्र, चतुर्थ व पंचम भाव को पीड़ित करें।
- यदि पत्री में तृतीय भाव पीड़ा कारक हो।
हृदय रोग के अन्य योग:
- हीन बली या पाप पीड़ित चंद्रमा शत्रु क्षेत्री हो।
- किसी त्रिक स्थान में सूर्य व शनि की युति हो।
- सूर्य तथा शनि की युति षष्ठ स्थान में हो, पाप युक्त, पाप दृष्ट बुध लग्नस्थ हो।
- शनि केंद्र में तथा चंद्रमा राहु सप्तम भावस्थ हों।
- सूर्य वृश्चिक राशि में, षष्ठेश पाप युक्त तथा गुरु का संबंध पापी मंगल से हो।
- सूर्य तथा चंद्रमा परस्पर राशि परिवर्तन या नवांश में परिवर्तन करें।
- सूर्य तथा चंद्रमा की युति, कर्क या सिंह राशि में हो।
- अष्टमस्थ गुरु, जल तत्व राशि में स्थित होकर, पाप युक्त या पाप दृष्ट हों।
- सूर्य शनि की राशि नक्षत्र या नवांश का होकर पाप युक्त हो।
- चंद्रमा पाप मध्यत्व में तथा शनि सप्तमस्थ हो।
- सूर्य शनि की राशि, नक्षत्र या नवांश का होकर पाप युक्त हो। निम्नलिखित योगों में से कोई योग हो तो हृदय रोग होता है-
- चतुर्थ स्थान में पाप ग्रह हों तथा चतुर्थेश पाप ग्रहों के साथ हों।
- चतुर्थ स्थान में पाप ग्रह हों तथा चतुर्थेश पाप कर्तरी योग में पीड़ित हो।
- चतुर्थेश जिस नवांश में हो उसका स्वामी क्रूर षष्ठांश में हो तथा उस पर क्रूर ग्रह की दृष्टि हो।
- चतुर्थेश अष्टमेश के साथ अष्टम स्थान में हो।
- यदि चतुर्थेश नीच राशिगत हो, शत्रुराशिगत हो या अस्तगत अष्टम स्थान पर हो। - चतुर्थ स्थान में शनि सूर्य एवं पाप ग्रहों के साथ हों।
- सूर्य मंगल एवं गुरु चतुर्थ स्थान में हो।
- चतुर्थ एवं पंचम स्थान में पाप ग्रह हों। हृदय शूल हृदय में तीव्र दर्द या असहनीय वेदना हृदय शूल कहलाती है। इसका विचार चतुर्थ भाव, चतुर्थेश एवं सूर्य से किया जाता है। इसके निम्नलिखित योग हैं-
- चतुर्थ भाव में राहु स्थित हो तथा पाप ग्रहों से दृष्ट हो तथा लग्नेश निर्बल हो।
- चतुर्थेश की राशि तथा नवांश का स्वामी क्रूर षष्ठांश में हो तथा पाप ग्रहों से दृष्ट हो।
- पाप ग्रहों के साथ सूर्य वृश्चिक राशि में हो।
- षष्ठेश सूर्य पापाक्रांत हो तथा शुभ ग्रह षष्ठ स्थान तथा व्यय स्थान में हो। द्वादश स्थान में राहु हो तो गैस या वायु से हृदय में दर्द होता है। हृत्कम्प: हृदय में होने वाली घबराहट या बेचैनी को हृत्कंप कहते हैं। इस रोग के निम्नलिखित योग हैं-
- चतुर्थ भाव में शुभ ग्रह हों।
- दिन में जन्म हो तथा नेष्ट मंगल को गुरु देखता है।
- शुभ ग्रह क्रूराक्रांत हों तथा षष्ठेश पापयुक्त हो।
- सूर्य वृश्चिक राशि में हो।
हृदय रोग होने पर ज्योतिषीय उपाय हृदय रोग एक विशेष रोग है तथा इस रोग के निदान में जरा सी भूल भी जातक के लिए घातक सिद्ध हो सकती है। यदि कोई उपाय प्रमाणित न हो तो किसी के जीवन से खिलवाड़ न करें। ज्योतिषीय उपाय से जनसाधारण का यह आशय होता है कि किस प्रकार का रत्न धारण करना चाहिये अथवा किस प्रकार के दान दक्षिणा से हृदय रोग का निदान किया जा सके। यह एक मर्म विषय है
तथा इसपर पूर्ण प्रामाणिक उपचार पर चिकित्सक द्वारा दी गई जानकारी का भी जातक को ध्यान रखना चाहिए। कुछ विशेष जानकारियां नीचे दी जा रही हैं जो जातक के हित में होगी तथा जातक के लिए लाभदायक सिद्ध होगी। हवन: हवन एक ऐसी प्रक्रिया है जिससे जातक को लाभ पहुंचता है क्योंकि जो हवन सामग्री हवन में डाली जाती है वह वाद रूप में जातक को दोबारा प्राप्त होती है। यह एक प्रामाणिक सत्य है कि हवन के वाष्पित कण जातक को अत्यंत प्रभावित करते हैं
तथा इस तथ्य को ध्यान में रखकर कुछ विद्वानों ने प्रयोग किए हैं जिसके परिणाम जातक के लिए लाभदायक सिद्ध हुए हैं। सूर्य आदि ग्रहों की समिधाएं - अर्क, पलाश, खादिर, अपामार्ग, अश्वत्थ, उथुम्बर, शमी, दूर्बा एवं कुशा को मधु, घी एवं दही मिलाकर इन समिधाओं से हवन करने अप्रत्याशित लाभ प्राप्त होता है। हवन में निम्न ग्रहों के अनुसार सामग्री मिश्रित करके हवन करने से रोगी को लाभ की पूर्ण संभावना होती है। हवन क्रिया में उक्त सामग्री की आहुति के साथ गायत्री मंत्र तथा महामृत्युंजय मंत्र नवग्रह पूर्ण मंत्र की कम से कम 1 माला (108 बार) की जानी चाहिए।
यदि यह हवन क्रिया 40 दिन से 47 दिन लगातार की जाए, तो जातक को अप्रत्याशित लाभ प्राप्त होने के पूर्ण योग होते हैं। ध्यान: यह भी एक ऐसी विद्या है जो जातक के लिए लाभकारी सिद्ध होती है। भारतीय पद्धति में चक्रों को ष्म्दमतहल ब्मदजतमष् कहा जाता है। विद्वानों ने अनाहत चक्र को ‘‘हृदय चक्र’’ से संबोधित किया है। यदि इस चक्र पर ध्यान केन्द्रित करके ‘ऊँ’ मंत्र का उच्चारण किया जाए तो जातक को लाभ प्राप्त होता है। इस मंत्र का उच्चारण करते समय ओ ओ. ओ ---- ओ मं मं म----- मं मं जितना अधिक से अधिक लंबा खींचा जाएगा उतना अधिक लाभ प्राप्त होगा। यह मंत्र समस्त शरीर में कंपन उत्पन्न कर देता है।
यदि यह क्रिया पांच मिनट तक की जाए तो मन को पूर्ण शांति मिलती है तथा जातक को लाभ प्राप्त होता है। उक्त सभी उपायों से जातक को लाभ पहुंचने के पूर्ण योग हैं तथा इस प्रकार की विधाओं में जातक को कोई हानि होने की संभावना नहीं है। इन उपायों का कोई दुष्परिणाम भी नहीं है। शेष ईश्वर की इच्छा पर निर्भर है। मानव उतने ही सांस ले पाता है जितने वह अपने भाग्य में अपने साथ लिखवा कर लाया है। हृदय रोग कारण, उपाय ज्योतिषीय दृष्टि से हृदय रोग पर कर्क एवं सिंह राशि का अधिकार है जिनके स्वामी ग्रह क्रमशः चंद्र व सूर्य होते हैं। इसी तरह, चतुर्थ एवं पंचम भाव से हृदय रोग का विचार करते हैं। शरीर में भी ‘आत्मा’ का प्रधान स्थान हृदय को ही माना जाता है।
सूर्य, आत्मा एवं मस्तिष्क का कारक ग्रह है। चंद्र, मन-मस्तिष्क का कारक ग्रह है। ज्योतिष से, मन का विचार चतुर्थ भाव से व मस्तिष्क (बुद्धि, विवेक) का विचार पंचम भाव से किया जाता है। हृदय रोग, अधिकांशतः मन-मस्तिष्क यानि दिलो-दिमाग पर दबाव के कारण उत्पन्न होते हैं और दिल का दौरा आवेग, उद्वेग, उत्तेजना, आवेश, क्रोध की तीव्रता के कारण होता है और हृदय गति रूकने पर शरीर मृत हो जाता है। अतः पत्रिका में सूर्य, चंद्र, चतुर्थ, पंचम भाव, कारक बुध, गुरु चतुर्थेश पंचमेश निर्बल होकर त्रिक भाव में हो या इन सभी पर पाप ग्रहों का अशुभ प्रभाव हृदय रोग का कारण है। मंगल ग्रह रक्त का कारक ग्रह है। जन्म लग्न से सप्तम लग्न, जिनके मध्य चतुर्थ लग्न भी आ जाता है, जिसमें शुद्ध रक्त रहता है जिसे वाया या देव भाग कहते हैं।
सप्तम से लग्न प्रथम भाव, जिनसे मध्य में दशम लग्न रहता है, हृदय का दाहिना भाग जो अशुद्ध एवं काले रक्त भंडार का होता है और खगोल में पृथ्वी का नीचे वाला भाग, वह अंधकार युक्त होता है जिसे दानव भाग कहते हैं। ये उत्तरी एवं दक्षिणी धु्रव के भी प्रतिनिधि हैं। हृदय को सर्वाधिक सुरक्षित रखने का काम शुक्र एवं बुध करते हैं।
बुध ग्रह, हृदय कारक सूर्य के सर्वाधिक निकट है, इसके पश्चात शुक्र निकटतम ग्रह है। बुध ही हृदय के चारों भागांे की झिल्ली होता है तथा शुक्र बाहरी भाग एवं महा धमनियों (जो हृदय से शुद्ध खून को शरीर में पहुंचाने का कार्य करती है) के संपर्क का साधन होता है। शनि ग्रह, अशुद्ध काले खून को शिराओं के माध्यम से शुद्ध करने हेतु फेफड़ांे तक पहुंचाने का कार्य करता है तथा चंद्र पुनः इसी शुद्ध प्राणवायु युक्त रक्त को हृदय तक लाने का काम भी करता है। हृदय का स्पंदन (भड़कना) स्वयं दूरी ही है, जिसे हम आत्मा कहते हैं।
यह संसार की आत्मा भी है। मंगल रक्त का कारक है तथा बृहस्पति ग्रह शुद्ध रक्त को विकारों से बचाने का काम भी करता है। पाप ग्रह राहु, केतु इन 7 ग्रहों के साथ मिलकर रोग का कारण बन जाते हैं या स्वयं ये 7 ग्रह निर्बल हो त्रिक भाव में हो तो जातक को हृदय रोग देते हैं। ज्योतिष में छाया एवं पाप ग्रह राहु-केतु काफी कष्टकारक माने गये हैं। ये कालसर्प योग के साथ पितृ दोष भी बनाते हैं। सूर्य, चंद्र के साथ ग्रहण अशुभ योग, मंगल के साथ अंगारक योग, बुध के साथ जड़ योग, गुरु के साथ चांडाल योग, शुक्र के साथ अभोत्वक योग व शनि के साथ नंदी नामक अशुभ योग बनाते हैं, जो हृदय रोग का कारण बनते हैं।
उपाय
- यदि हृदय रोग से रोगी अत्यंत पीड़ित हो तो गायत्री मंत्र का संकल्प लेकर सवा लाख या 24 लाख मंत्रों के जप का अनुष्ठान करायें। इसके अलावा दिन में तीनों संध्या (प्रातः, दिन, सायं) को गायत्री मंत्र की 1 माला (तुलसी/चंदन की) जप करें। गायत्री जी की तस्वीर या यंत्र स्थापित करें।
- उपरोक्त की तरह महामृत्युंजय यंत्र के सवा लाख मंत्रों का संकल्प लेकर जप करें/करायें। इसका यंत्र या श्रीयंत्र भी स्थापित करें।
- यदि जन्मपत्री नहीं हो तो निम्न प्रकार से नवरत्न पेंडेंट गले में धारण करें जिससे नौ ग्रह अनुकूल हो जायें और हृदय रोग के अलावा सभी क्षेत्रों में लाभ मिले। नवरत्न पेंडेंट प्रत्येक रत्न का वजन लगभग 1 ग्राम (सवा 5 रत्ती) लेना है। ये बड़ों के लिए है। यह 15 वर्ष से अधिक उम्र के व्यक्तियों के लिए रत्नों का वजन है।
तीनों उपाय 1-3 जिनके पास जन्मपत्री है या नहीं है, सभी के लिए लाभदायक है। रत्न चयन उपाय रत्नों के दो ग्रुप ए व बी हैं। ग्रुप ए में माणिक, मूंगा, पीला पुखराज व मोती आते हैं। ग्रुप बी में पन्ना, हीरा या सफेद पुखराज, नीलम, गोमेद व लहसुनिया आते हैं।
गु्रप ए के रत्न आपस में मित्रता व ग्रुप बी के रत्नों से शत्रुता रखते हैं, इसी तरह ग्रुप बी के रत्न आपस में मित्रता व ग्रुप ए के रत्नों से शत्रुता रखते हैं। जिनका लग्नेश मेष, वृश्चिक, सिंह, धनु, मीन व कर्क हो वे ग्रुप ए के रत्न धारण कर हृदय रोग से लाभ लें तथा जिनका लग्नेश वृष, तुला, मिथुन, कन्या, मकर, कुंभ हो वे ग्रुप बी के रत्न से लाभ लें। मंत्र या दान उपाय जिनका लग्न 1, 4, 5, 8, 9, 12 हो तथा बुध, शुक्र, शनि, राहु व केतु निर्बल नीच आदि हो, त्रिक भाव में हो या उपरोक्त लग्न के स्वामियों पर पाप प्रभाव डाल रहे हांे, इन ग्रहों के मंत्र क्रमशः 5000, 16000, 23000, 18000 व 17000 संकल्प लेकर जप करें या करावें तथा अंत में हवन/यज्ञ करावें या इन ग्रहों की दान वस्तुओं का संबंधित दिन किसी ब्राह्मण या गरीब को दान करें।
लग्न- 2, 3, 6, 7, 10, 11 हो तथा सूर्य, मंगल, गुरु, चंद्र निर्बल नीच/शत्रुराशि त्रिक भाव में हो या उपरोक्त लग्न के स्वामियों पर पाप प्रभाव युति/दृष्टि द्वारा डाल रहे हों इन ग्रहों के मंत्र क्रमशः 6000, 10000, 19000, 11000 संकल्प लेकर जाप करें करके तथा अंत में हवन/यज्ञ करावें। या इन ग्रहों की वस्तुओं का संबंधित दिन दान करें। अमावस्या को पितृ पक्ष कार्य में प्रसाद चढ़ायें, कुत्तों, कौओं को खाने को दें आदि। कुंडली में कालसर्प योग हो तो इसके अशुभ प्रभाव दूर करने हेतु नागपंचमी या अन्य शुभ दिन, मुहूर्त में संकल्प लेकर शांति पूजा करायें।
16. कालसर्प योग व पितृ दोष शांति निवारण हेतु नागेश्ेवर ज्योतिर्लिंग महाकाल, महाकाली, काल भैरव की पूजा विशेषकर अष्टमी तिथि (कृष्ण पक्ष) को करें। 11. श्री हरिके वाराह व कूर्मावतार रूप की पूजा भी इन दोनों अशुभ प्रभाव को दूर कर हृदय रोग में लाभ देगी।
रुद्राक्ष द्वारा: अंक ज्योतिष द्वारा सूर्य के लिये 1 मुखी, चंद्र हेतु- 2 मुखी, मंगल हेतु-9 मुखी, बुध हेतु 5 मुखी, गुरु हेतु- 3 मुखी, शुक्र हेतु- 6 मुखी, शनि हेतु 8 मुखी, राहु एवं केतु हेतु क्रमशः 4 व 7 मुखी रुद्राक्ष धारण करने से लाभ होता है। जिनका लग्नेश या जन्म नक्षत्र स्वामी उपरोक्त ग्रह में से कोई भी हो तो इससे संबंधित रुद्राक्ष धारण करने पर लाभ होता है। राशि स्वामी के वार का व्रत करना स्वास्थ्य हेतु लाभप्रद होता है। अब हम कुंडली के उदाहरण द्वारा इसे समझने का प्रयत्न करते हैं। उदाहरण 1 उदाहरण कुंडली 1 में लग्न व लग्नेश: लग्न में केतु तथा लग्नेश बुध, राहु व केतु के मध्यत्व में स्थित है। लग्नेश चतुर्थ भाव में सूर्य व हीन बली चंद्रमा युक्त है। लग्नेश पर अष्टमेश शनि तथा बाधकेश गुरु की पूर्ण दृष्टि है। लग्नेश पाप प्रभाव में है। चतुर्थ भाव व चतुर्थेश: चतुर्थेश बुध स्वगृही हैतथा शनि, अष्टमेश बाधाकेश गुरु द्वारा पूर्ण दृष्ट है तथा हीन बली चंद्रमा युक्त है।
पंचम व पंचमेश: पंचम भाव पर षष्ठेश मंगल तथा केतु की पूर्ण दृष्टि है। पंचमेश शुक्र षष्ठस्थ है तथा पाप प्रभाव में है। कारक ग्रह सूर्य, चंद्रमा तथा मंगल: सूर्य हीन बली चंद्रमा युक्त तथा सूर्य पर अष्टमेश शनि की पूर्ण दृष्टि है तथा सूर्य की राशि द्वितीय भाव में स्थित है। इस पर राहु की पूर्ण दृष्टि है। सूर्य वक्री गुरु व्यय भाव से पूर्ण दृष्टि पाप प्रभावित है। चंद्रमा के लिए भी यही कहा जा सकता है क्योंकि दोनों चतुर्थ भावस्थ हैं। मंगल षष्ठेश होकर अष्टमेश युक्त है तथा मारक भावस्थ हैं। निष्कर्ष: उक्त सभी कारणों से जातक उच्च रक्तचाप से पीड़ित रहा तथा हृदयाघात के कारण गुरु में राहु की भुक्ति तथा चंद्रमा के प्रत्यंतर में मृत्यु को प्राप्त हुआ। (27-11-1972 को मृत्यु हुई)। उदाहरण 2 कुंडली भारत के भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री जी की है।
चतुर्थ भाव तथा चतुर्थेश: चतुर्थ भाव पर शनि मारकेश तथा व्ययेश मंगल की पूर्ण दृष्टि है। चतुर्थेश गुरु पर षष्ठेश शुक्र की दृष्टि है। लग्न व लग्नेश: लग्न पर राहु की क्रूर दृष्टि है। पंचम भावस्थ गुरु की लग्न पर पूर्ण दृष्टि अर्थात शुभ ग्रह की शुभ भाव से दृष्टि मारक सिद्ध होती है। षष्ठेश शुक्र की लग्नेश पर पूर्ण दृष्टि है। कई विद्वान गुरु तथा शुक्र को एक दूसरे का शत्रु मानते हैं। पंचम भाव तथा पंचमेश: पंचम भाव में लग्नेश गुरु विद्यमान हैं तथा कालपुरूष की कुंडली के अनुसार गुरु पंचम भावस्थ शुभ फल प्रदान नहीं करते। पंचमेश मंगल राहु युक्त नवम भाव में पाप पीड़ित है। कारक ग्रह सूर्य, चंद्रमा तथा मंगल: सूर्य हीन बली चंद्रमा (चंद्रमा अष्टमेश भी है।) बुध मारकेश युक्त दशम भावस्थ चतुर्थ भाव को देखते हैं।
(पूर्ण दृष्टि पाप युक्त) ये तीनों ग्रह व्ययेश मंगल तथा षष्ठेश शुक्र के मध्य हैं। निष्कर्ष: चतुर्थ भाव पर शनि तथा अष्टमेश चंद्रमा की दृष्टि है। चतुर्थेश गुरु का षष्ठेश शुक्र से दृष्टि विनिमय अभिष्टप्रद है। व्ययेश मंगल की चतुर्थ भाव पर दृष्टि/केतु नियंत्रक शनि की दृष्टि शुक्र को अति पाप युक्त बनाती है। सूर्य की सिंह राशि में व्ययेश मंगल राहु अति पाप युक्त बनाती है। सूर्य की चंद्रमा, अष्टमेश की युति अकस्मात मृत्यु को दर्शाती है। सभी जातक जानते हैं कि शास्त्री जी का निधन 11-1-1966 को हृदय रोग के कारण हुआ था।