जब आश्चर्यचकित हुए हनुमान
जब आश्चर्यचकित हुए हनुमान

जब आश्चर्यचकित हुए हनुमान  

व्यूस : 4890 | फ़रवरी 2009
जब आश्चर्यर्चचकित हुएुए हनुमुमान प्र भु सर्वव्याप्त हैं, सर्वज्ञ हैं। प्रभु की कृपा समस्त संसार को चाहिए पर इसे प्राप्त करने का मार्ग अत्यंत जटिल है। इसके लिए निश्छल भक्ति चाहिए। भक्ति में असीम शक्ति है। यह यदि निःस्वार्थ हो तो स्वयं प्रभु भक्त के भक्त हो जाते हैं। भक्ति के अनेक प्रसंग हमें हमारे धर्मग्रंथों में मिल जाते हैं। ऐसा ही एक प्रसंग है रामायण में उस समय का जब भक्त प्रवर महावीर हनुमान संजीवनी बूटी लाने पर्वत पर गए थे। कथा है कि संजीवनी पर्वत खंड को उठाने के पूर्व हनुमान जी ने भक्ति और आदर के साथ उसकी प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा के समय उन्हें अपने अंदर अपार शक्ति और स्फूर्ति का भान हुआ और मन असीम उत्साह से भर गया। परिक्रमा पूरी करने के बाद बजरंगबली ने वंदन करने के लिए जैसे ही शीश झुकाया, उन पर आकाश से दिव्य सुगंधित पुष्पों की वर्षा होने लगी, दिव्य वाद्यों की कर्णप्रिय ध्वनि चहुं ओर गूंजने लगीं और एक ममतामयी मधुर वाणी सुनाई पड़ी, “वत्स हनुमान! तुम्हारी जय हो। तुम्हारे सभी कार्य सदा सुसंपन्न होंगे और विजयश्री तुम्हारा वरण करने के लिए हमेशा आतुर रहेगी।” हनुमानजी ने सिर ऊपर उठाया तो देखा कि दिव्य प्रकाश-पुंज के मध्य माता सीता अंतरिक्ष में खड़ी मुस्करा रही थीं। उनका दाहिना हाथ वर मुद्रा में था। हनुमानजी आश्चर्यचकित रह गए। वह सोचने लगे कि माता तो दुष्ट रावण की अशोक वाटिका में थीं, फिर वह यहां कैसे दिखाई दे रही हैं। लेकिन सीताजी तत्काल अंतर्धान हो गईं और उनके पिछले अंक में हमने प्रेम की महिमा का चित्रण किया था, इस अंक में भक्ति की गरिमा का वर्णन प्रस्तुत है जिसे पढ़कर पाठकों को उसके महत्व का ज्ञान होगा और उन्हें भक्ति की प्रेरणा मिलेगी... स्थान पर भगवान श्रीराम प्रकट हुए - जटाजूट बांधे हाथ में धनुष और कंधे पर तूणीर। फिर तो हनुमानजी का विस्मय और भी बढ़ गया। वह कुछ पूछने ही वाले थे कि श्रीराम अंतर्धान हो गए और उनके स्थान पर लक्ष्मणजी प्रकट हो गए। अब हनुमानजी के आश्चर्य की सीमा नहीं रही। उनकी आंखें बंद हो गईं। उनके मन में आया कि जिन मृतप्राय लक्ष्मणजी के लिए वह संजीवनी लेकर जा रहे हैं, वह तो पूरी तरह स्वस्थ हैं। फिर हनुमानजी ने आंखें खोलीं तो देखा कि वहां भगवान शंकर अपने अर्धनारीश्वर रूप में विराजमान हैं। तब पवनपुत्र के हाथ स्वतः जुड़ गए और उन्होंने श्रद्धापूर्वक शीश झुकाकर अर्धनारीश्वर को प्रणाम किया। भगवान शंकर ने मुस्काराते हुए कहा, “वायुनंदन! आश्चर्यचकित क्यों हो रहे हो? सर्वेश्वर प्रभु श्रीराम की लीला विचित्र है। उसे देख-सुनकर अज्ञानी मोहित होते हैं, तुम तो ‘ज्ञानिनामाग्रगण्यं बुद्धिमतांवरिष्ठं’ हो। अपने मूल स्वरूप को स्मरण करो। जो मैं हूं, वही तुम हो और जो तुम हो, वही मैं हूं। मुझमें और तुम में कुछ अंतर नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि संजीवनियों को ले जाने के उत्साह तथा उल्लास के कारण तुम्हारी विचारधारा भौतिक स्तर पर उतर गई है। तनिक सोचो, संपूर्ण सृष्टि की उद्भव-स्थिति-संहारिणी जगज्जननी आदि शक्ति सीता माता को दुष्ठ भाव से स्पर्श भी करने की शक्ति किसमें है? फिर तुच्छ रावण द्वारा उनका अपहरण प्रभु की लीला नहीं तो और क्या है? इसी प्रकार धरा को धारण करने वाले शेषावतार लक्ष्मण किसी राक्षस के प्रहार से मूर्च्छित हो सकते हैं क्या? अब प्रभु श्रीराम की बात लो। वह सच्चिदानंद स्वरूप हैं। माया, सत-रज-तम गुण, राग, द्वेष, हर्ष, विषाद आदि दोषों से रहित हैं। फिर भी राज-सुख को त्यागकर वन-पर्वत में विचरण करते हुए सर्दी-गर्मी-वर्षा का कष्ट सहन कर रहे हैं। क्यों? उन्होंने मानव-शरीर धारण किया है। अतः मर्यादा पुरुषोत्तम की भूमिका का निर्वाह करते हुए संसार में मानव-जीवन का आदर्श स्थापित करना है। अपनी भगवत्ता का प्रदर्शन वह नहीं करना चाहते। यही प्रभु द्वापर में जब श्रीकृष्ण के रूप में अवतरित होंगे, तब पग-पग पर मर्यादा का उल्लंघन करने में वह तनिक भी नहीं हिचकेंगे। यही नहीं, वह अपनी भगवत्ता का उद्घोष भी करेंगे। तब भगवान श्रीकृष्ण की प्रभुता एवं सर्वशक्तिमत्ता देखकर सभी ऋषि-मुनि तथा देवगण ‘सर्व देव प्रति कृतं पूजा वासुदेव स्वयं ग्रहणति।’ सिद्धांत की घोषणा करेंगे। फिर ऐसे प्रभु की लीला में आश्चर्य क्या करना कि जो श्री लंका में मूर्च्छित लक्ष्मण के पास शोकमग्न बैठे थे, वे यहां कैसे दिखाई पडे़।“ हनुमानजी कुछ कहें, इसके पहले अर्द्धनारीश्वरी, आद्याशक्ति, भगवती पार्वती बोलने लगीं, ”हे अंजनी कुमार! यद्यपि अणिमा, गरिमा आदि सिद्धियां तुम्हें पहले से ही प्राप्त हैं तो भी तुम्हारी सिद्धियों को सुदृढ़ करने की दृष्टि से मैं तुम्हें वरदान देती हूं कि तुम अपने शरीर को इच्छानुसार अति सूक्ष्म, स्थूल, भारहीन, महाभारयुक्त, लुप्त या प्रकट कर सकते हो। मेरे इस निर्देश को ध्यान में रखना कि इन सिद्धियों का उपयोग अपने लिए न करके प्रभु की सेवा या भगवद् भक्तों का संकट दूर करने के लिए वर्तमान अथवा भविष्य काल में करना। अब मैं तुम्हारे मस्तक पर विजयश्री के रूप में सिंदूर का तिलक करती हूं।“ फिर भगवती ने मांग से थोड़ा-सा सिंदूर निकालकर हनुमानजी को तिलक लगाया। तब एक बार फिर आकाश से पुष्प वर्षा हुई तथा विभिन्न वाद्यों की मधुर ध्वनि गूंजने लगी। हनुमानजी ने अत्यंत श्रद्धापूर्वक जगज्जननी आद्याशक्ति के पावन चरण कमल स्पर्श किए। भगवती ने कहा, ”हनुमान! अब से सदैव तुम सिंदूर से पूजित होगे, सिंदूर तुम्हें बहुत प्रिय होगा तथा प्रत्येक विवाहिता सिंदूर के माध्यम से अपने पति का आयु-वर्धन करती रहेगी।“ माता से वरदान लेने के बाद पवनपुत्र ने समय का अनुमान लगाने के लिए आकाश की ओर देखा और यह देखकर आश्चर्यचकित रह गए कि समय जहां का तहां रुक सा गया था। समय वही था जो लंका से चलते समय था। हनुमानजी के मन में यह प्रश्न घुमड़ने लगा कि क्या समय स्थिर हो गया? उनके मन में चल रहे इस ऊहापोह को अंतर्यामिनी जगदंबा ने भांप लिया और स्नेहसिक्त वाणी में बोलीं, ”वत्स! क्या सोच रहे हो? समय की बात सामान्य बुद्धि वालों के लिए है, तुम जैसे महाज्ञानियों के लिए नहीं। तुम सर्वज्ञ हो, सर्वगुणसंपन्न हो तथा सर्व समर्थ हो। बचपन में ऋषियों द्वारा दिए गए शाप के वशीभूत भोले बने रहते हो। अच्छा सुनो, मैं तुम्हें समझाती हूं। योग योगेश्वर भगवान शिव, सच्चिदानंद श्री सीताराम, सर्वेश्वर श्री राधाकृष्ण सब प्रकृति के नियामक हैं। अपने भक्तों के मनोरंजन के लिए वे जब कोई लीला करते हैं, तब काल एवं प्रकृति दोनों अस्तित्वहीन हो जाते हैं। सूर्य, चंद्र और नक्षत्रों की गति रुक जाती है। क्षिति, जल, पावक, गगन और समीर सबको अपनी स्थिति का विस्मरण हो जाता है। तब सारा ब्रह्मांड प्रभु में लय हो जाता है। मारुति! तुम भगवान श्री सीताराम के परम कृपापात्र हो। आशा है, तुम सब समझ गए होगे। अब अपने विवेक के अनुसार आगे कार्य संपन्न करो।“ इतना कहकर भगवान अर्द्धनारीश्वर अंतर्धान हो गए। श्रद्धावनत हनुमानजी ने प्रभु के चरणों में शीश झुकाया। तात्पर्य यह कि निश्छल भक्ति में असीम शक्ति होती है। यह निश्छल भक्ति ही थी कि अंजनी सुत हनुमान को सर्वत्र अपने आराध्य श्री सीताराम दिखाई देते थे। यह भक्ति में निहित शक्ति ही थी, जिसने उन्हें परम शक्तिशाली बनाया। इसलिए, ईश्वर की भक्ति में डूब जाओ - पूर्णतः निष्काम, निःस्वार्थ होकर। देना सीखो - बदले में कुछ पाने की लालसा के बगैर। फिर अपने में असीम ऊर्जा के संचार का अनुभव करोगे।



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