गोत्र का रहस्य एवं महत्
गोत्र का रहस्य एवं महत्

गोत्र का रहस्य एवं महत्  

व्यूस : 48782 | अकतूबर 2013
गोत्र के बारे में जानने की जिज्ञासा सभी को रहती है। सामान्यतः जब कोई भी संस्कार होता है उसमें गोत्र की चर्चा होती है। गोत्र क्या है? गोत्र हमारे समाज में कब से प्रचलन में आया और इसके पीछे धार्मिक एवं सामाजिक मान्यताएं क्या हैं? इसके बारे में विस्तृत जानकारी दे रहे हैं, विद्वान ज्योतिषी पं. दयानंद शास्त्री जी। गोत्र की परिभाषा: गोत्र जिसका अर्थ वंश भी है, यह एक ऋषि के माध्यम से शुरू होता है और हमें हमारे पूर्वजों की याद दिलाता है और हमें हमारे कर्तव्यों के बारे में बताता है। आगे चलकर यही गोत्र वंश परिचय के रूप में समाज में प्रतिष्ठित हो गया। एक समान गोत्र वाले एक ही ऋषि परंपरा के प्रतिनिधि होने के कारण भाई-बहन समझे जाने लगे जो आज भी बदस्तूर जारी है। प्रारंभ में सात गोत्र थे। कालांतर में दूसरे ऋषियों के सान्निध्य के कारण अन्य गोत्र अस्तित्व में आये। जातिवादी सामाजिक व्यवस्था की खासियत ही यही रही कि इसमें हर समूह को एक खास पहचान मिली। हिंदुओं में गोत्र होता है जो किसी समूह के प्रवर्तक अथवा प्रमुख व्यक्ति के नाम पर चलता है। सामान्य रूप से गोत्र का मतलब कुल अथवा वंश परंपरा से है। गोत्र को बहिर्विवाही समूह माना जाता है अर्थात ऐसा समूह जिससे दूसरे परिवार का रक्त संबंध न हो अर्थात एक गोत्र के लोग आपस में विवाह नहीं कर सकते पर दूसरे गोत्र में विवाह कर सकते हैं, जबकि जाति एक अंतर्विवाही समूह है यानी एक जाति के लोग समूह से बाहर विवाह संबंध नहीं कर सकते। गोत्र मातृवंशीय भी हो सकता है और पितृवंशीय भी: जरूरी नहीं कि गोत्र किसी आदिपुरूष के नाम से चले। जनजातियों में विशिष्ट चिह्नों से भी गोत्र तय होते हैं जो वनस्पतियों से लेकर पशु-पक्षी तक हो सकते हैं। शेर, मगर, सूर्य, मछली, पीपल, बबूल आदि इसमें शामिल हैं। यह परंपरा आर्यों में भी रही है। हालांकि गोत्र प्रणाली काफी जटिल है पर उसे समझने के लिए ये मिसालें सहायक हो सकती हैं। देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक लोकायत में लिखते हैं कि कोई ब्राह्मण कश्यप गोत्र का है और यह नाम कछुए अथवा कच्छप से बना है। इसका अर्थ यह हुआ कि कश्यप गोत्र के सभी सदस्य एक ही मूल पूर्वज के वंशज हैं जो कश्यप था। इस गोत्र के ब्राह्मण के लिए दो बातें निषिद्ध हैं। एक तो उसे कभी कछुए का मांस नहीं खाना चाहिए और दूसरे उसे कश्यप गोत्र में विवाह नहीं करना चाहिए। आज समाज में विवाह के नाम पर आॅनर किलिंग का प्रचलन बढ़ रहा है। उसके मूल में गोत्र संबंधी यही बहिर्विवाह संबंधी धारणा है। मानव जीवन में जाति की तरह गोत्रों का बहुत महत्व है, यह हमारे पूर्वजों की याद दिलाता है। साथ ही हमारे संस्कार एवं कर्तव्यों की याद दिलाता रहता है। इससे व्यक्ति के वंशावली की पहचान होती है एवं इससे हर व्यक्ति अपने को गौरवान्वित महसूस करता है। हिंदू धर्म की सभी जातियों में गोत्र पाए गए हैं। ये किसी न किसी गांव, पेड़, जानवर, नदियों, व्यक्ति के नाम, ऋषियों के नाम, फूलों या कुलदेवी के नाम पर बनाए गए हैं। इनकी उत्पत्ति कैसे हुई इस संबंध में धार्मिक ग्रंथों का आश्रय लेना पड़ेगा। धार्मिक आधार - महाभारत के शांति पूर्व (296-17, 18) में वर्णन है कि मूल चार गोत्र थे- 1. अंगिरा 2. कश्यप 3. वशिष्ठ 4. भृगु बाद में आठ हो गए जब जमदाग्नि, अत्रि, विश्वामित्र तथा अगस्त्य के नाम जुड़ गए। गोत्रों की प्रमुखता उस काल में बढ़ी जब जाति व्यवस्था कठोर हो गई और लोगों को यह विश्वास हो गया कि सभी ऋषि ब्राह्मण थे। उस काल में ब्राह्मण ही अपनी उत्पत्ति उन ऋषियों से होने का दावा कर सकते थे। इस प्रकार किसी ब्राह्मण का अपना कोई परिवार, वंश या गोत्र नहीं होता था। एक क्षत्रिय या वैश्य यज्ञ के समय अपने पुरोहित के गोत्र के नाम का उच्चारण करता था। अतः सभी सवर्ण जातियों के गोत्रों के नाम पुरोहितों तथा ब्राह्मणों के गोत्रों के नाम से प्रचलित हुए। शूद्रों को छोड़कर अन्य सभी जातियों, जिनको यज्ञ में भाग लेने का अधिकार था उनके गोत्र भी ब्राह्मणों के ही गोत्र होते थे। गोत्रों की समानता का यही मुख्य कारण है। शूद्र जिस ब्राह्मण और क्षत्रिय परिवार का परंपरागत अनन्तकाल तक सेवा करते रहे उन्होंने भी उन्हीं ब्राह्मणों और क्षत्रियों के गोत्र अपना लिए। इसी कारण विभिन्न आर्य और अन्य जातियों तथा वर्णों के गोत्रों में समानता पाई जाती है। चैहान राजपूतों, मालियों, आदि कई जातियों में मिलना सामान्य बात है। सारांश में पुरोहितों तथा क्षत्रियों के परिवारों की जिन जातियों ने पीढी़ सेवा की उनके गोत्र भी पुरोहितों और क्षत्रियों के समान हो गए। राजघरानों के रसोई का कार्य करने वाले शूद्र तथा कपड़े धोने का कार्य करने वाले धोबियों एवं चमड़े का कार्य करनेवाले चर्मकार आदि व्यक्तियों के गोत्र इसी वजह से राजपूतों से मिलते हैं। लंबे समय तक एक साथ रहने से भी जातियों के गोत्रों में समानता आई। ब्राह्मणों के विवाह में गौत्र-प्रवर का बड़ा महत्व है: पुराणों व स्मृति ग्रंथों में बताया गया है कि यदि कोई कन्या संगौत्र हो, किंतु सप्रवर न हो अथवा सप्रवर हो किंत ु संगौत्र न हो तो ऐसी कन्या के विवाह को अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ, कश््यप-इन सप्तऋषियों और आठवें ऋषि अगस्त की संतान ‘‘गौत्र’’ कहलाती है। यानी जिस व्यक्ति का गौत्र भारद्वाज है, उसके पूर्वज ऋषि भारद्वाज थे और वह व्यक्ति इस ऋषि का वंशज है। आगे चलकर गौत्र का संबंध धार्मिक परंपरा से जुड़ गया और विवाह करते समय इसका उपयोग किया जाने लगा। भारत वैदिक काल से ही कृषि प्रधान देश रहा है और कृषि में गाय का बड़ा महत्व रहा है .. वैदिक काल से ही आर्य ऋषियों के निकट रहकर पठान, पाठन, इज्या, शासन, कृषि, प्रशासन, गोरक्षा और वाणिज्य के कार्यों द्वारा अपनी जीविका चलाते थे। और चूंकि भारत की जलवायु कृषि के अनुकूल थी, इसीलिए आर्य जन कृषि विज्ञान में पारंगत थे, और कृषि में गाय को सर्वाधिक महत्व दिया गया.. वह भारतीय कृषि और जीवन की धूरी बन चुकी थी... गऊ माता परिवार की समृद्धि का पर्याय थी .. गौ पालन एक सुनियोजित कर्म था, यद्यपि गायें पारिवारिक संपत्ति होती थी पर उनकी देख रेख, संरक्षण ऋषियों की देख-रेख में सामुदायिक तरीके से होता था.. अपनी गायों की रक्षा में कुछ भी कर गुजरने को तैयार थे... इस प्रकार गौ पालन के प्रवर्तक ऋषि थे.. गौपालन करने वाले अनेक वंशों के अलग-अलग कुछ सुविधानुसार अलग-अलग ऋषियों की छत्र छाया में रहते थे, लोग ऋषि के आश्रम के पास ग्राम बना कर गौ पालन, कृषि और वाणिज्यिक कार्य करते थे.. इस प्रकार जो लोग किसी ऋषि के पास रह कर गौ पालन करते थे वे उसी ऋषि के नाम के गोत्र के पहचाने जाने लगे.. जैसे कश्यप ऋषि के साथ रहने वाला रामचंद्र अपना परिचय इस प्रकार देता था। ‘‘कश्यप गोत्रोत्पन्नोहम रामचंद्रसत्वामभीवादाये’’ मैं कश्यप गोत्र मैं पैदा हुआ रामचंद्र आपको प्रणाम करता हूं। ऋषियों की संख्या लाख-करोड़ होने के कारण गौत्रों की संख्या भी लाख-करोड़ मानी जाती है, परंतु सामान्यतः आठ ऋषियों के नाम पर मूल आठ गोत्र ऋषि माने जाते हैं, जिनके वंश के पुरुषों के नाम पर अन्य गोत्र बनाए गए। ‘‘महाभारत’’ के शांतिपर्व (297/17-18) में मूल चार गोत्र बताए गए हैं - अंगिरा, कश्यप, वशिष्ठ और भृगु, जबकि जैन ग्रंथों में 7 गोत्रों का उल्लेख है- कश्यप, गौतम, वत्स्य, कुत्स, कौशिक, मंडव्य और वशिष्ठ। इनमें हर एक के अलग-अलग भेद बताए गए हैं। जैसे कौशिक-कौशिक कात्यायन, दर्भ कात्यायन, वल्कलिन, पाक्षिण, लोधाक्ष, लोहितायन (दिव्यावदन- 331-12,14)। विवाह निश्चित करते समय गोत्र के साथ-साथ प्रवर का भी ख्याल रखना जरूरी है। प्रवर भी प्राचीन ऋषियों के नाम हैं तथापि अंतर यह है कि गोत्र का संबंध रक्त से है, जबकि प्रवर से आध्यात्मिक संबंध है। प्रवर की गणना गोत्रों के अंतर्गत की जाने से जाति से संगोत्र बहिर्विवाह की धारणा प्रवरों के लिए भी लागू होने लगी। वर-वधू का एक वर्ण होते हुए भी उनके भिन्न-भिन्न गोत्र और प्रवर होना आवश्यक है (मनुस्मृति-3/5) । मत्स्यपुराण (4/2) में ब्राह्मण के साथ संगोत्रीय शतरूपा के विवाह पर आश्चर्य और खेद प्रकट किया गया है। गौतम धर्म सूत्र (4/2) में भी असमान प्रवर विवाह का निर्देश दिया गया है। (असमान प्रवरैर्विगत) आपस्तम्ब धर्मसूत्र कहता है- ‘संगोत्राय दुहितरेव प्रयच्छेत्’ (समान गोत्र के पुरूष को कन्या नहीं देना चाहिए)। गोत्रों का महत्व: जाति की तरह गोत्रों का भी अपना महत्व है। 1. गोत्रों से व्यक्ति और वंश की पहचान होती है। 2. गोत्रों से व्यक्ति के रिश्तों की पहचान होती है। 3. रिश्ता तय करते समय गोत्रों को टालने में सुविधा रहती है। 4. गोत्रों से निकटता स्थापित होती है और भाईचारा बढ़ता है। 5. गोत्रों के इतिहास से व्यक्ति गौरवान्वित महसूस करता है और प्रेरणा लेता है। गोत्रों की उत्पत्ति: एक समय और एक स्थान पर गोत्रों की उत्पत्ति नहीं हुई है। हिंदू धर्म की सभी जातियों में गोत्र पाए गए हैं। ये किसी न किसी गांव, पेड़, जानवर, नदियों, व्यक्ति के नाम, ऋषियों के नाम, फूलों या कुलदेवी के नाम पर बनाए गए हैं। गोत्रों की उत्पत्ति कैसे हुई इस संबंध में धार्मिक ग्रंथों एवं समाजशास्त्रियों के अध्ययन का सहारा लेना पड़ेगा। धर्मिक आधार: महाभारत के शांतिपर्व (296-17, 18) में वर्णन है कि मूल चार गोत्र थे- अंग्रिश, कश्यप, वशिष्ठ तथा भृगु। बाद में आठ हो गए जब जमदग्नि, अत्रि, विश्वामित्र तथा अगस्त्य के नाम जुड़ गए। गोत्रों की प्रमुखता उस काल में बढ़ी जब जाति व्यवस्था कठोर हो गई और लोगों को यह विश्वास हो गया कि सभी ऋषि ब्राह्मण थे। अतः सभी स्वर्ण जातियों के गोत्रों के नाम पुरोहितों तथा ब्राह्मणों के गोत्रों के नाम से प्रचलित हुए। शूद्रों को छोड़कर अन्य सभी जातियों जिनको यज्ञ में भाग लेने का अधिकार था उनके गोत्र भी ब्राह्मणों के ही गोत्र होते थे। गोत्रों की समानता का यही मुख्य कारण है। शूद्र जिस ब्राह्मण और क्षत्रिय परिवार का परंपरागत अनन्तकाल तक सेवा करते रहे उन्होंने भी उन्हीं ब्राह्मणों और क्षत्रियों के गोत्र अपना लिए। इसी कारण विभिन्न आर्य और अनार्य जातियों तथा वर्णों के गोत्रों में समानता पाई जाती है। भाटी, पंवार, परिहार, सोलंकी, सिसोदिया तथा चैहान राजपूतों, मालियों, सरगरों तथा मेघवालों आदि कई जातियों में मिलना सामान्य बात है। सारांश में पुरोहितों तथा क्षत्रियों के परिवारों की जिन जातियों ने पीढी़ सेवा की उनके गोत्र भी पुरोहितों और क्षत्रियों के समान हो गए। राजघरानों के रसोई का कार्य करने वाले शूद्र तथा कपड़े धोने का कार्य करने वाले धोबियों के गोत्र इसी वजह से राजपूतों से मिलते हैं। लंबे समय तक एक साथ रहने से भी जातियों के गोत्रों में समानता आई। समाजशास्त्रीय आधार: समाजशास्त्रियों ने सभी जातियों के गोत्रों की उत्पत्ति के निम्न आधार बताए हैं- 1. परिवार के मूल निवास स्थान के नाम से गोत्रों का नामकरण हुआ। 2. कबीला के मुखिया के नाम से गोत्र बने। 3. परिवार के इष्ट देव या देवी के नाम से गोत्र प्रचलित हुए। 4. कबिलों के महत्वपूर्ण वृक्ष या पशु-पक्षियों के नाम से गोत्र बने। समाजशास्त्रियों द्वारा उपरोक्त बताए गए गोत्रों की उत्पत्ति के आधार बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। सभी जातियों के गोत्रों की उत्पत्ति उपरोक्त आधारों पर ही हुई है।



Ask a Question?

Some problems are too personal to share via a written consultation! No matter what kind of predicament it is that you face, the Talk to an Astrologer service at Future Point aims to get you out of all your misery at once.

SHARE YOUR PROBLEM, GET SOLUTIONS

  • Health

  • Family

  • Marriage

  • Career

  • Finance

  • Business


.