सौभाग्य शयन व्रत (29 मार्च 2009) पं. ब्रजकिशोर भारद्वाज 'ब्रजवासी' त्रिलोकेश्वर शिव एवं शक्तिरूपा पार्वती की असीम कृपा प्राप्त करने के लिए सौभाग्य शयन व्रत चैत्र शुक्ल तृतीया को किया जाता है। चैत्र शुक्ल तृतीया को दोलनोत्सव, ईश्वर-गौरी व्रतोत्सव, गणगौरी तृतीया अथवा गौरी विसर्जन तृतीया के नाम से भी जाना जाता है। त्रि लोकेश्वर शिव एवं शक्तिरूपा पार्वती की असीम कृपा प्राप्त करने के लिए सौभाग्य शयन व्रत चैत्र शुक्ल तृतीया को किया जाता है। चैत्र शुक्ल तृतीया को दोलनोत्सव, ईश्वर-गौरी व्रतोत्सव, गणगौरी तृतीया अथवा गौरी विसर्जन तृतीया के नाम से भी जाना जाता है। मनुष्यों के हित के लिए तपोधन महर्षियों ने अनेक साधन नियत किए हैं, जिनमें एक साधन व्रत भी है। विभिन्न कष्टों से मुक्ति एवं जीवन को सफल बनाने में व्रत की बड़ी महिमा है। ऋषियों का कथन है कि व्रत और उपवास के नियमों को अपनाना ही तप है। सौभाग्य शयन व्रत की महिमा के संबंध में मत्स्यपुराण में उल्लेख है कि पूर्वकाल में जब संपूर्ण लोक दग्ध हो गया था, तब सभी प्राणियों का सौभाग्य एकत्र होकर बैकुंठलोक में विराजमान भगवान श्री विष्णु के वक्षस्थल में स्थित हो गया। दीर्घकाल के बाद जब पुनः सृष्टिरचना का समय आया, तब प्रकृति और पुरुष से युक्त संपूर्ण लोकों के अहंकार से आवृत्त हो जाने पर श्री ब्रह्माजी तथा श्री विष्णुजी में स्पर्धा जाग्रत हुई। उस समय पीले रंग तथा शिवलिंग के आकार की अत्यंत भयंकर ज्वाला प्रकट हुई। उससे भगवान श्री विष्णु का वक्षस्थल तप उठा, जिससे वह सौभाग्यपुंज वहां से गलित हो गया। श्री विष्णु के वक्षस्थल में स्थित वह सौभाग्य अभी रसरूप होकर धरती पर गिरने भी न पाया था कि ब्रह्माजी के पुत्र दक्ष प्रजापति ने उसे आकाश में ही रोककर पी लिया, जिससे दक्ष का प्रभाव बढ़ गया। उनके पीने से बचा हुआ जो अंश पृथ्वी पर गिरा, वह आठ भागों में बंट गया, जिससे ईख, रसराज (पारा) आदि सात सौभाग्यदायिनी औषधियां उत्पन्न हुईं तथा आठवां पदार्थ नमक बना। उक्त आठों पदार्थों को 'सौभाग्याष्टक' कहा गया। दक्ष ने जिस सौभाग्यरस का पान किया था, उसके अंश के प्रभाव से उन्हें एक कन्या की प्राप्ति हुई जो सती नाम से प्रसिद्ध हुईं। उनके अद्भुत सौंदर्य, माधुर्य तथा लालित्य के कारण सती को ललिता भी कहा गया है। चैत्रमास के शुक्लपक्ष की तृतीया तिथि को विश्वात्मा भगवान शंकर के साथ देवी सती विवाह हुआ था। अतः इस दिन उत्तम सौभाग्य तथा भगवान शंकर की कृपा प्राप्त करने के लिए सौभाग्यशयन नामक व्रत किया जाता है। यह व्रत सभी मनोरथों को पूर्ण करने वाला है। इस दिन प्रातः तिलमिश्रित जल से स्नान आदि कर देवी सती के साथ साथ भगवान शंकर का पूजन करें। पंचगव्य तथा चंदनमिश्रित जल से देवी सती और भगवान चंद्रशेखर की प्रतिमा को स्नान कराकर धूप, दीप, नैवेद्य तथा नाना प्रकार के फल अर्पित कर उनकी अर्चना करनी चाहिए। सर्वप्रथम दोनों के नाममंत्रों से उनके विविध अंगों की पूजा करें। 'पाटलायै नमोऽस्तु, शिवाय नमः' से क्रमशः पार्वती और शिव के चरणों का, 'जयायै नमः, शिवाय नमः' से दोनों की घुटि्टयों का, 'त्रिगुणाय रुद्राय नमः, भवान्यै नमः' से पिंडलियों का, 'भद्रेश्वराय नमः, विजयायै नमः' से घुटनों का, 'हरिकेशाय नमः, वरदायै नमः' से ऊरुओं का, 'शंकराय नमः, ईशायै नमः' से दोनों के कटिभाग का, 'कोटव्यै नमः, शूलिने नमः' से कुक्षिभाग का, 'शूलपाणये नमः, मंगलायै नमः' से उदर का, 'सर्वात्मने नमः, ईशान्यै नमः' से दोनों के स्तनों का, 'वेदात्मने नमः, द्राण्यै नमः' से कंठ का, 'त्रिपुरघ्नाय नमः, अनन्तायै नमः' से दोनों हाथों का, 'त्रिलोचनाय नमः, कालानलप्रियायै नमः' से बाहों का, 'सौभाग्यभवनाय नमः' से आभूषणों का, 'स्वाहा स्वधायै नमः, ईश्वराय नमः' से दोनों के मुखमंडल का, 'अशोक मधुवासिन्यै नमः' से ऐश्वर्य प्रदान करने वाले ओठों का, 'स्थाणवे नमः, चन्द्रमुखप्रियायै नमः' से मुंह का, 'अर्द्धनारीश्वराय नमः, असितांग्यै नमः' से नासिका का, 'उग्राय नमः, ललितायै नमः' से दोनों भौंहों का, 'शर्वाय नमः, वासव्यै नमः' से केशों का, 'श्रीकण्ठनाथाय नमः' से केवल शिव के बालों का तथा 'भीमोग्ररूपिण्यै नमः, सर्वात्मने नमः' से दोनों के मस्तकों का पूजन करें। इस प्रकार, शिव और पार्वती की विधिवत् पूजा करके उनके आगे सौभाग्याष्टक रखें। ईख, रसराज (पारा), निष्पाव (सेम), राजधान्य (शालि या अगहनी), गोक्षीर (क्षीरजीरक), कुसुंभ (कुसुम नामक पुष्प), कुंकुम (केसर) तथा नमक ये आठ वस्तुएं अर्पित करने से सौभाग्य की प्राप्ति होती है, इसलिए इन्हें 'सौभाग्याष्टक' की संज्ञा दी गई है। इस प्रकार, शिव-पार्वती के आगे सारी सामग्री अर्पित करके रात में सिंघाड़ा (जलफल) खाकर भूमि पर शयन करें। फिर प्रातः उठकर स्नान और जप करके पवित्र होकर माला, वस्त्र और आभूषणों से ब्राह्मण दम्पति का पूजन करें। इसके बाद सौभाग्याष्टक सहित शिव और पार्वती की सुवर्णमयी प्रतिमाओं को ललितादेवी की कृपा के लिए ब्राह्मण को दान करें। दान के समय इस प्रकार बोलें- ललिता, विजया, भद्रा, भवानी, कुमुदा, शिवा, वासुदेवी, गौरी, मंगला, सती और उमा प्रसन्न हों। इस प्रकार, सौभाग्य की अभिलाषा करने वाले मनुष्यों को एक वर्ष तक प्रत्येक तृतीया को भक्तिपूर्वक विधिवत् पूजन करना चाहिए। एक वर्ष तक इस व्रत का विधिपूर्वक अनुष्ठान करके भक्ति के साथ शिव की पूजा करें। व्रत की समाप्ति के समय संपूर्ण सामग्रियों से युक्त शय्या, शिव-पार्वती की सुवर्ण प्रतिमा (यदि संभव हो), बैल और गौ का दान करें। कृपणता छोड़कर दृढ़ निश्चय के साथ भगवान का पूजन करें। जो स्त्री इस प्रकार उत्तम 'सौभाग्यशयन' व्रत का अनुष्ठान करती है, उसकी कामनाएं पूर्ण होती हैं। यदि वह निष्काम भाव से इस व्रत को करती है तो उसे नित्यपद की प्राप्ति होती है। प्रति मास इसका आचरण करने वाले पुरुष को यश और कीर्ति की प्राप्ति होती है। जो बारह, आठ या सात वर्षों तक सौभाग्यशयन व्रत का अनुष्ठान करता है, उसे शिवलोक की प्राप्ति होती है। अतः वर्णाश्रम के आचार-विचार में रत रहने वाले, निष्कपट, निर्लोभ, सत्यवादी, सभी प्राणियों का हित चाहने वाले, वेद के अनुयायी, बुद्धिमान तथा कृतसंकल्प होकर कर्म करने वाले गुणी जनों के लिए इस व्रत का पालन करना श्रेयस्कर है।