तृतीयस्थ या तृतीयेश ग्रह की दशा -कभी खुशी कभी गम
तृतीयस्थ या तृतीयेश ग्रह की दशा -कभी खुशी कभी गम

तृतीयस्थ या तृतीयेश ग्रह की दशा -कभी खुशी कभी गम  

संजय बुद्धिराजा
व्यूस : 7421 | अकतूबर 2014

भारतीय ज्योतिष में तृतीय भाव को पराक्रम का भाव कहा गया है. यह भाव अष्टम से अष्टम है जिस कारण इसे शुभ भाव नहीं माना जाता है। तृतीयेश की दशा अष्टमेश की दशा तुल्य कही जाती है लेकिन ऐसा नहीं है, अन्य विषय जो तृतीय भाव से देखे जा सकते हैं, वे हैं - छोटे भाई बहन, नौकर, मित्र, छोटी यात्रायें, कंठ, कान, खेल, मृत्यु का कारण (अष्टम से अष्टम), पिता की मृत्यु (नवम से सप्तम), पड़ोसी, लेखन आदि। प्रस्तुत शोध में यह बताने की चेष्टा की गई है कि तृतीय भाव अशुभ भाव होने के बावजूद भी तृतीयस्थ ग्रहों की व तृतीयेश की दशा जातक के जीवन में अधिकतर मिश्रित फल देने वाली होती है. अतः तृतीय भाव से संबंधित दशा से डरने की आवश्यकता नहीं रहती है कि अब केवल अशुभ फल ही मिलेगें।

ये तो ‘‘कभी खुशी कभी गम’’ जैसा मिश्रित फल देती है। इस विषय पर अनेक जन्म कुंडलियों का अध्ययन किया गया जिनमें से कुछ उदाहरण स्वरूप यहां प्रस्तुत हैं जिनके माध्यम से यह समझाने का प्रयास किया गया है कि तृतीयस्थ ग्रह या तृतीयेश ग्रह की दशा का फल खट्टा मीठा होता है - उदाहरण 1: (7 मई 1958, 13ः10, दिल्ली) सिंह लग्न की कुंडली में तृतीय भाव में राहु व गुरू स्थित हैं। शुक्र तृतीयेश होकर अष्टमस्थ है और उच्च का है साथ में धनेश बुध भी है। जातक की तृतीयेश शुक्र की दशा बचपन में ही जन्म से लेकर सितंबर 1977 तक चली। इस दौरान जातक को जीवन में काफी कष्ट उठाने पडे। अष्टमस्थ शुक्र के कारण जातक का स्वास्थ्य भी खराब रहा, चोटें भी बहुत लगीं और गलत संगत भी मिली।

लेकिन धनेश व आयेश बुध के कारण धन लाभ भी हुआ। सूर्य की महादशा में तृतीयस्थ गुरू (जो पंचमेश भी है) की अंतर्दशा (अप्रैल 1980) में जातक को प्यार हुआचंद्रमा की महादशा और तृतीयस्थ राहु की अंतर्दशा (जून 1986) में जातक का प्रेम विवाह हुआ। इसी समय जातक को चतुर्थेश मंगल पर तृतीयस्थ राहु की दृष्टि होने के कारण मानसिक परेशानियों से भी गुजरना पड़ा क्योकि व्यापार में हानि उठानी पडी थी। नवंबर 1987 में चंद्रमा की महादशा में तृतीयस्थ गुरू की अंतर्दशा में जातक को संतान लाभ हुआ। लेकिन बहन की भी बीमारी के कारण मृत्यु हुई। यहां चंद्रमा एकादश भाव से मारक स्थान सप्तम भाव में एकादश से अष्टमेश शनि के साथ है और गुरू एकादश से मारकेश होकर राहु से पीड़ित है।

सन् 2000 से 2018 तक तृतीयस्थ राहु की महादशा चल रही है। 2001 में राहु/राहु में पिता का आॅपरेशन हुआ जो कि सफल रहा. राहु पिता के भाव नवम से और कारक सूर्य से मारक भाव सप्तम में है जिस कारण पिता को परेशानी उठानी पडी। लेकिन इसी दौरान पुत्र का परीक्षा में परिणाम काफी अच्छा रहा। यहां राहु पुत्र के पंचम भाव से एकादश भाव में विद्या कारक गुरू के साथ है, अतः परिणाम मिश्रित रहा, सुख व दुख दोनों का ही जातक को सामना करना पड़ा। उदाहरण 2: (22 जनवरी 1952, 21ः10, फरीदाबाद) सिंह लग्न की कुंडली में मंगल तृतीय भाव में स्थित है। जातक को तृतीयेश शुक्र की दशा मई 1987 से मई 2007 तक मिली। यहां शुक्र धनेश व आयेश बुध के साथ पंचमस्थ होकर आय भाव पर दृष्टि डाल रहा है


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जिस कारण जातक की यह दशा धन धान्य से भरपूर रही लेकिन साथ ही काफी दुख व आपसी संबंधों में कड़वाहट को भी झेलना पड़ा क्योंकि केतु की दृष्टि से शुक्र पीड़ित है और बुध भी मारकेश होकर शुक्र युत है। इसके अतिरिक्त तृतीय भाव का कारक मंगल तृतीय भाव में ही हो तो तृतीय भाव की हानि करता है जिसकारण जातक के छोटे भाई को ट्यूमर की बीमारी है। तृतीयेश शुक्र में गुरू की दशा में छोटी बहन को पेट की किसी बीमारी के कारण आॅपरेशन भी करवाना पड़ा क्योंकि तृतीय भाव से गुरू तृतीयेश व षष्ठेश है। 2004-05 में जब शुक्र में बुध चल रहा था तो छोटी बहन ने ही व्यापार में बहुत उन्नति की क्योंकि बुध तृतीय भाव से नवमेश/भाग्येश होकर भाग्य भाव पर दृष्टि डाल रहा है, अतः यहां भी परिण् ााम मिला-जुला रहा. जातिंका को कभी खुशी मिली व कभी गम मिला।

उदाहरण 3: (5 दिसंबर 1976, 00ः28, सोनीपत) सिंह लग्न की कुंडली में राहु तृतीयस्थ व मित्र राशि में है जिसकी दशा जून 1999 से जून 2017 तक चलेगी। राहु में राहु की दशा में जातिका का विवाह हुआ क्योंकि राहु की मित्र दृष्टि सप्तम भाव पर है और चंद्र लग्न से भी राहु सप्तम भाव में स्थित है। इसी दशा में जातिका का विदेश गमन भी हुआ। यहां राहु यात्रा भाव नवम भाव पर व विदेश भाव एकादश भाव (बाहरवें से बाहरवां) पर भी दृष्टि डाल रहा है। राहु में गुरू (दशमस्थ) की दशा में जातिका को अच्छी नौकरी विदेश में मिली और एक घर भी विदेश में खरीद लिया। यहां घर का स्वामी चतुर्थेश मंगल भी गुरू से दृष्ट है। राहु में गुरू (पंचमेश) की दशा में जातिका को संतान लाभ भी हुआ। लेकिन 2006 में राहु में शनि (षष्ठेश होकर द्वादस्थ) की दशा में जातिका को आंखों का आॅपरेशन करवाना पड़ा और बच्चा भी काफी बीमार रहा क्योंकि शनि पंचम भाव से अष्टमस्थ है।

अभी कुछ समय पहले ही राहु में शुक्र की दशा में जातिका को बड़े भाई के देहान्त हुआ क्योंकि यहां राहु की एकादश भाव पर दृष्टि है और शुक्र एकादश भाव से अष्टमस्थ है। अतः तृतीयस्थ राहु की यह दशा खुशियों के साथ-साथ गम भी ला रही है।

उदाहरण 4: (10 अप्रैल 1963, 19ः20, दिल्ली) तुला लग्न की कंुडली में तृतीयेश गुरू आयेश सूर्य के साथ छठे भाव में स्थित है। गुरू की दशा मार्च 1972 से मार्च 1988 तक चली जिसके मिश्रित परिणाम जातक ने देखे। गुरू में गुरू आते ही जातक को दिल्ली से दूर जाना पड़ा। यहां गुरू चतुर्थ भाव से द्व ादशेश होकर चतुर्थ भाव से ही अष्टमेश सूर्य के साथ है जिसकारण जातक को अपनी नौकरी के सिलसिले में धन कमाने के लिये बंगलौर जाना पड़ा। अगस्त 1976 में गुरू में शनि की दशा में बड़ी बहन की मृत्यु हुई। यहां गुरू बड़ी बहन के भाव एकादश से अष्टम भाव में है और शनि एकादश भाव से मारकेश है। लेकिन इसी दशा में एक दूसरी बहन की शादी भी हुई। यहां शनि एकादश भाव से सप्तमेश भी है।

1978 में गुरू में बुध की दशा में जातक की छोटी बहन को विद्या के क्षेत्र में इनाम भी मिले। यहां बुध तृतीय भाव से पंचम विद्या के भाव में स्थित है. लेकिन जनवरी 1980 में गुरू में केतु की दशा में जातक की माता का देहान्त हो गया। यहां केतु माता के भाव चतुर्थ में है जो कि चंद्रमा से भी चतुर्थ है और गुरू चतुर्थ भाव से द्वादशेश होकर चतुर्थ से अष्टमेश सूर्य के साथ है। 1981 में गुरू में शुक्र की दशा में दूसरी बडी बहन की मृत्यु हुई। यहां गुरू एकादश भाव से अष्टमस्थ है और शुक्र एकादश भाव से तृतीयेश होकर एकादश से मारक सप्तम भाव में है। गुरू में सूर्य की दशा में पिता को हृदय रोग हुआ। यहां पिता का कारक सूर्य है जो तृतीयेश व रोगेश गुरू के साथ छठे भाव में स्थित है। लेकिन इसी दशा में जातक को भतीजा भी हुआ यानि बडे भाई का बच्चा। यहां गुरू एकादश भाव से पंचमेश है

और सूर्य एकादशेश है। गुरू में चंद्रमा की दशा में व गुरू में म ंगल की दशा में जातक के केरियर में उत्थान रहा। यहां चंद्रमा दशमेश होकर लग्न में है और मंगल धनेश होकर दशम भाव में है। गुरू में राहु की दशा में जातक को भारत देश ही छोड कर विदेश गमन करना पड़ा। यहां गुरू विदेश भाव द्वादश को दृष्टि दे रहा है और राहु विदेश का कारक होकर जन्म स्थान चतुर्थ भाव को पीड़ित कर रहा है। इस प्रकार तृतीयेश की दशा जातक के जीवन में कभी खुशी कभी गम की तरह रही। अंत में निष्कर्ष यह निकलता है

कि जिस तरह से किसी भी ग्रह की दशा संपूर्ण रूप से न तो शुभ फलदायक होती है और न ही अशुभ फलदायक। उसी तरह तृतीय भाव स्थित ग्रहों की दशा या तृतीयेश ग्रह की दशा भी सारा समय अशुभ फल नहीं देती है बल्कि उसमें शुभ फल भी मिलते हैं। तभी तो कहा गया है कि - ‘‘ये जीवन है, इस जीवन का...यही है यही है रंग रूप थोडे़ गम हैं थोड़ी खुशियां यहीं है यहीं है छांव धूप’’


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